Saturday 31 January 2015

सुधा राजे का लेख :- गांधी भारत की आत्मा है।

गांधी व्यक्ति नहीं 'भारत की ग्रामीण मजदूर जीवनशैली के साथ संसार भर की
बातें सोचने वाली आत्मा है ।
जब तक "सादा जीवन उच्च विचार एक आदर्श है विद्वत्ता सामाजिक सरोकारिता और
नायकत्व की पहचान का 'गाँधी जीवित है ।
हमारे देश के चंद अगुआ बन जाने वालों ने 'महानायक जनप्रिय लोकनायकों का
"अपहरण "उनकी मृत्यु के बाद कर लिया ',
जाति, मज़हब, भाषा, प्रांतीयता, और दलगत राजनीति के आधार पर ।
गाँधी की भी यही दुर्दशा हुयी है उनका जनगण नायक से अपहरण होकर
""कॉग्रेसी नेता की पहचान बनायी जाती रही ""

जबकि नेहरू के ही समय में गाँधी कॉग्रेस से जुङे थे तो 'सरदार पटेल
फिरोजशाह मेहता दादाभाई नौरोज़ी गोपालकृष्ण गोखले, और तमाम नरम पंथी गरम
पंथी अपने अनुयायियों की वजह से तब कॉग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं थी वह एक
सभा थी जहाँ बैठकर लोग भारत और ब्रिटिश शासन के हर मुद्दे पर बात करते थे
। पढ़े लिखे विचारकों का क्लब कॉफीहाऊस और परिचर्चा मंच से आगे कॉग्रेस
यदि जन जन तक पहुँची तो ''गाँधी पटेल जैसे नेताओं की बदौलत ही ।
तब जबकि "नेहरू को गुलाबों का शहज़ादा नाज़ुक मिज़ाज पूँजीपति ही समझा
जाता था और उनकी संपन्नता विलासिता और अग्रेजी रहन सहन के किस्से दूर
दराज गाँवों तक अलाव पर भी कहे सुने जाते थे ।
वह गाँधी ही थे जो "गरीब भारत "को गुलाम सोच से शर्मिन्दा होने की बजाय
अपने ""काले ठिगने और अनगढ़ शरीर पर स्वाभिमान से सिर उठाना सिखा सके ।
वह गाँधी ही थे कि छुरी काँटे चम्मच से खाते टेबिल मैनर्स पर अकङते राजे
नवाबों अंग्रेजी पिट्ठुओं के बीच गाँव की गरीब मेहनती मजदूर जनता को "
हाथ से पकी हाथ से आटा पीस कर बनायी मिट्टी के चूल्हे पर की हँडिया तवे
की रोटी दाल दलिये को सम्मान के साथ सब के साथ मिलबाँटकर बिना झिझके डरे
लजाये खाने का स्वाभिमान जगा सके ।
वह भी गाँधी थे जो इत्र क्रीम पाऊडर से महकते 'धनिकों के सूट बूट टाई कोट
स्कार्फ और सरसराते रेशमी विदेशी कपङों से सजी काया की चमक दमक के बीच ',
हथकरघे की काती और चरखे के सूत से तैयार हाथ की रँगी खुरदुरी मोटी और
सस्ती विशुद्ध भारतीय धोती लंगोटी बंडी चादर पहिन कर भी फर्राटे से
अंग्रेजी हिन्दी गुजराती बोलते लिखते और सभाओं मंचों और गोलमेज सम्मेलन
वायसराय गवर्नर लॉर्ड और राजाओं नवाबों साहूकारों ऑफिसरों के बीच भी
"पूरे स्वाभिमान से अपनी ग्रामीण मजदूर नगर कसबाई जनता की मूर्ति बनकर
देश की समाज की शासन की बात करते थे ।
आज गाँधी जीवित हैं विश्व में जन जन के मन में "
तो इसलिये नहीं कि वे गुजरात के वणिकधनिक के पुत्र थे, ' न इसलिये कि वे
लण्दन से बैरिस्टर बनकर लौटे थे, न ही इसलिये कि कॉग्रेस के व्यक्ति थे,
"""""
बल्कि सिर्फ और सिर्फ इसलिये कि "गाँधी कमजोर काले नाटे अनगढ़ और मानवीय
भूल गलतियों कामनाओं वासनाओं से भऱी काया से ऊपर उठकर, 'देश जन जन गरीब
किसान मजदूर कारीगर कलाकार लेखक कवि प्रशासक मुसलिम हिंदू शूद्र सवर्ण
बंगाली मराठी कोंकणी हिंदी काले गोरे सांवले राम रहीम वाहे गुरू जीसस
""""""""सबसे ऊपर की सोच विचार और समग्रता के साथ सबके हुये सबके लिये
किया सोचा और जीकर दिखाया वह कठोर सादी त्यागी जीवन ऊँचे आदर्शों को
आत्मसात किया ',गरीबी पर शर्मिन्दा नहीं रहे बल्कि "गरीब को स्वावलंबी
होकर सिर उठाकर जीने का मंत्र दे गये ।
है कोई जो गाँधी को जी सके????????
महात्मा गाँधी इसलिये बापू कहलाते रहे ।
हमारे नमन अश्रुपूरित नमन कृतज्ञ देश आज आपको याद करता है "महात्मा "
©®सुधा राजे


Wednesday 28 January 2015

सुधा राजे लघु लेख :- छोटी सी बात।

साधारण सी बात तक स्वयं को पता ही नहीं और चल पङे दूसरों, इलज़ाम धरने!!!!!
उसकी आस्था निष्ठा और वफादारी पर मजहबी रंग चढ़ाने????
यह सब प्राथमिक पाठशाला में ही सिखा दिया जाता है कि जब राष्ट्रीय ध्वज
फहराया जाता है तब, सारी टीम चुपचाप सावधान बिना हिले डुले खङी रहती है,
केवल कप्तान ही सेल्यूट की मुद्रा में ध्वज को सलामी देता है ।राष्ट्रीय
सेवा योजना एन एस एस की चीफ टीम मार्शल रहने और लोकप्रशासन तथा राजनीति
से पोस्ट ग्रेजुएट और लॉ ग्रेजुएट ही नही बरसों से भारत को देखने समझने
पूरा संविधान पढ़ने कंठस्थ करने से भी यह पता है कि,
,,, पंद्रह अगस्त को स्वतंत्रता दिवस होता है और उस दिन लोकनायक के रूप
में ध्वज की सलामी प्रधानमंत्री देता है परेड की सलामी भी प्रधानमंत्री
ही लेता है ।
किन्तु छब्बीस जनवरी को भारत का संविधान लागू हुआ और प्रशासन कार्यकारिणी
का प्रधान और देश के प्रथम नागरिक और तीनों सेनाओं का अध्यक्ष होने के
नाते ""भारत संघ राज्य गणतंत्र ""का राष्ट्रपति ही तीनों सेनाओं और
सशस्त्र बलों की परेड की सलामी लेता है तथा वही ध्वज रूप में देश को
सलामी देता है, '
बाकी सब सावधान की मुद्रा में ही खङे रहते है ।
यानि केवल यूनिफॉर्म में ही रहने वाली टीम सावधान में खङी रहकर अडिग अचल
रहती है और, राष्ट्रपति तथा प्रत्येक टीम का कप्तान ही सलामी का सेल्यूट
बनाता है ।
चूँकि वर्तमान प्रधानमंत्री संघ में अनुशासन के दौरान "नित्य ध्वज वंदन
करते रहते होंगे जहाँ रोज सुबह ध्वज को ही गुरु मानकर वंदन किया जाता है

किंतु एक देश एक भारत के एकमात्र प्रतीक ""राष्ट्रपति ही नायक होता है
छब्बीस जनवरी के गणतंत्र दिवस का ।
मतलब हम भारत के लोग आजाद जब हुये वह स्वतंत्रता दिवस हुआ और हमने नायक
चुना जिसे वह बहुमत दल का हमारा प्रतिनिधि 'स्वतंत्रता दिवस यानि पंद्रह
अगस्त को देश का ज़श्न मनाता है आजादी का ।और
हम भारत के लोगों ने जब अपने चुने हुये प्रतिनिधियों के माध्यम से जब
पूरी शासन प्रशासन व्यवस्था चुन ली और राष्ट्रपति राज्यपाल कलेक्टर
नगरपालिका प्रशासक ग्राम सेक्रेटरी तक जब हमारा पूरा सशक्त ढाँचा बन गया
तब ',सारी कार्यकारिणी ''माननीय महामहिम राष्ट्रपति जी के अधीन होती है
और छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस पर हम लोग, 'अपने देश के मानव रूप
प्रतीक संस्था को खङा करते हैं तब राष्ट्रपति मतलब पूरा भारत होता है और
तब तो प्रधानमंत्री को भी सावधान की मुद्रा में ही चुपचाप अचल अडिग खङे
होना चाहिये हर देशभक्त नागरिक की तरह जैसे वह घर में सब काम काज छोङकर
देश का राष्ट्रगीत राष्ट्रगान कानों में पङते ही उठकर सावधान में खङा हो
जाता है पूरे जोश और आत्मा के साथ ।

आपको याद होतो राष्ट्रपति बिल क्लिन्टन जब संसद के संयुक्त सदन में आये
और राष्ट्रीत बजाया गया तो, अमेरिकी परंपरा के तहत बिल क्लिंटन ''दिल पर
हाथ रखकर खङे थे "
जबकि पूरे सांसद मंत्रीगण सावधान में ।
ऐसे पत्रकारों को आदरणीय उपराष्ट्रपति जी से माफी माँगनी चाहिये और
स्पेशल प्रोग्राम चलाकर लोगों को गलत दिशा में सोचने की ओर प्रेरित करने
के लिये खबर पर खंडन करना चाहिये ।
देश सबका है सब देश के हैं जो भी भारत का नादरिक है और भारतीय नागरिक की
संतान या जीवनसाथी है वह भारतीय है मतलब नहीं कि उसका मजहब क्या है और
क्या है भाषा या भेष या लिंग जाति या रंग रूप वह भारतीय है और ""भारतीय
राष्ट्रगीत बजाने पर उसे सावधान खङे होकर अचल रहकर 'देश को नमन करना
चाहिये हवा पानी पोषण और सुरक्षा सबकी कृतज्ञता के लिये
जयहिन्द जयभारत
©®सुधा राजे


सुधा राजे का लेख :- बदलते वैश्विक परिवेश और शक्ति ।

सुधा राजे का लेख :- बदलते वैश्विक परिवेश और शक्ति संतुलन।

राजनीति और जीवन में किसी अपरिवर्तनीय नियम से नहीं चला जा सकता,
साम्यवाद समाजवाद 'सोवियत संघ रूस के साथ उदय हुआ था और सोवियत संघ रूस
की "लौहआवरण "नीति के भीतर बाल्टिक राज्यों और पौलेण्ड बल्गारिया
रोमानिया चेक गणराज्य कोरिया और चीन तक फैलता गया ',क्योंकि इन राज्यों
में "तानाशाहों ने मजदूरों पर भीषण ज़ुल्म किये थे और समाज दो साफ साफ
वर्गों में बँटा था "अमीर पूँजीपति शोषक निरंकुश तानाशाह अत्याचारी
अमानवीय लोग "और दूसरी तरफ गरीब संसाधन विहीन अधिकार विहीन न्यूनतन जीवन
संसाधनों तक को तरसते मजदूर और कारीगर '
इस असंतोष को हवा मिली मार्क्सवादी चिंतकों के लेखन से जिसको लेनिन जैसे
'समाज सुधारकों ने हिंसक तरीकों से भङकाकर "रक्तपात और बेहद क्रूर हिंसा
के जरिये पूँजीपतियों की हत्यायें करके 'साम्यवादियों की सत्ता क़ायम की
"
यह एक सामयिक उबाल रहा 'माओवाद के रूप में इसका चरम विस्फोट सामने आया और
"व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों का खात्मा इसको टिकाये रखने
वाले दो मूल स्तंभ बने ।
साम्यवाद के "क्रांतिकारी सत्ताधारी बनकर तानाशाह हो गये और "कला हुनर
संगीत नृत्य नौलिक लेखन कोमल भावनाओं स्त्री परिवार संपत्ति घर खेत मकान
पर नागरिक अधिकार निलंबित होते गये ',
मानव
बिलबिला उठा ',केवल आर्थिक तौर पर समग्रदेश के रूप में ताकतवर बनना काफी
नहीं होता '
प्राणीमात्र की पहली इकाई परिवार घर मकान बच्चे पति पत्नी और मित्र
कुटुंब होते हैं
इस प्राकृतिक "पजेशन "की भावना को कोई साम्यवादी विचारक नहीं मिटा सका और
एक दिन रूस बिखर गया ',क्योंकि मनुष्य सब एक से नहीं होते न एक सी होती
है उनकी योग्यतायें सोच कमियाँ और बिना बौद्धिक दैहिक मानसिक योग्यता और
कमी को समझे सबको एक सा "आठ घंटे कठोर दैहिक श्रम के बदले सिर्फ गिनती के
हिसाब से रोटी कपङा मकान वह भी न्यूनतम आवश्यकता के हिसाब से देना, न तो
प्रतियोगिता के पुरुस्कार और होङ से योग्य होकर आऊटस्टैण्डिग
क्रियेटिविटी को खादपानी बनता है न ही व्यक्ति फिर विशेष श्रम मनन चिंतन
का कोई हुनर दिखाने को प्रेरित होता है, 'जब चाहे कम करो या अधिक मिलेगी
पाँच रोटियाँ बीस गज जमीन बीस मीटर कपङा ही तो कोई अतिरिक्त योग्य होने
पर भी श्रम विशेष क्यों करे!!
यही 'प्राकृतिक अंतर साम्यवाद को खत्म करता गया "
क्योंकि प्रचार सब समान का करने पर सत्ताधारी मौज मजे आराम और शक्ति का
आनंद लेते रहे जबकि ',आम मजदूर किसान कभी अपनी हालत से ऊपर नहीं उठ सके
',
पूँजीवाद जिसे कहकर झिङका गया वह प्रजातंत्र लोकतंत्र के रूप में जनगणमन
का तंत्र है यह विश्वास एक वैकल्पिक व्यवस्था मजबूत भरोसा बनती गयी कि
'भले ही मानव गरीब या मजदूर जनम से हो परंतु उसके ऊपर उठकर फिर एक दिन
हालात सुधारने के पूरे अवसर हैं क्योंकि यदि वह अतिरिक्त श्रम करे और
योग्यता से करे तो पुरस्कार है बेहतर जीवन और सम्मान 'यही चीज
प्राणीमात्र का प्राकृतिक गुण है ।
आज एक एक करके लोग 'व्यक्तिवाद और साम्यवाद के मध्यमार्ग लोकतंत्र पर
भरोसा करने लगे हैं ।
क्योंकि, साम्यवादी सत्ताओं ने रक्तपात हिंसा भय से सत्ता तो स्थापित कर
ली किंतु राष्ट्रवाद और व्यक्ति के निजी अधिकारों का बुरी तरह हनन किया
मनुष्य विवश जब भी होगा गुलामी से बगावत करेगा और सबकी भलाई से ऊपर हावी
रहने वाली प्राकृतिक सोच है मेरा पेट मेरी संपत्ति मेरा घर मेरा परिवार
मेरा देश "
यह मैं और हम दोनों का तालमेल संभव होता आया है लोकतंत्र में 'क्योंकि
संपत्ति का संग्रह किये बिना बङे बङे कल कारखाने और उद्योग लगाना संभव ही
नहीं 'तब जब बङी मिलें कारखाने फैक्ट्रीज और उद्योग स्थापित होते है तो
मजदूरों किसानों गरीबों को रोजगार मिलता है आजीविका की गारंटी मिलती है
और मिलती है आगे बढ़कर उन्नति कर पाने की आशा जबकि अगर वही संग्रहीत
संपत्ति से स्थापित कारखाना तोङकर समान इकाईयों में सारा धन बराबर बराबर
सब मजदूरों में बाँट दिया जाये तो वे सब अत्यल्प समय में ही सब खा पीकर
खत्म कर लेगें और फिर भूखों मरने की स्थिति में आ जायेगे ।
यही हुआ भी साम्यवादी सोच का 'क्योंकि व्यक्ति प्राकृतिक रूप से समूह के
लिये नहीं स्वयं अपनी ही भलाई के लिये साझे हित की नींव पर समूह रूप में
इकट्ठा होता है ।
लोकतंत्र ऐसे ही व्यक्तिगत हितों अधिकारों की रक्षा के लिये समूह रूप में
एकजपट हुये समाज का नाम है ।
यहाँ व्यक्तिगत आज़ादी भी है हक़ भी मौलिक अधिकार मानवाधिकार भी और निजी
पति पत्नी संपत्ति परिवार के संरक्षण के अधिकार भी साथ ही योग्यता की होङ
और प्रतियोगिता के पुरस्कार भी ।भारत कभी केवल दो वर्गों का देश नहीं रहा
।यहाँ विविधता है तो कई स्तरों पर है ।रंगभेद तो कभी था ही नहीं यह तो
गोरों के शासन के बाद गोरा होना सुंदर मान लिया गया किंतु इससे न तो
भारतीयों की चमङी का रंग बदला न ही सांवलापन '। ठीक इसी तरह जाति लिंगभेद
और मजहबी भेद भी कभी चरम स्तर तक विभाजित ही नहीं रह सके क्योंकि मध्यम
वर्ग भी कई स्तर पर रहा और शासक भी कभी निरंकुश नहीं रह सका उस पर
ज्ञानियों का सम्मान रहा हावी और ज्ञान पर वीरता राष्ट्रवाद को तरज़ीह दी
गयी ।
श्रम को सदा सम्मान मिला और विविधता को एकता के समान पारस्परिक
अन्योन्याश्रित व्यवस्थित विभाजन सहित माना जाता रहा ।योग्य को किसी भी
निचले स्तर से किसी भी उच्चस्तर तक उठने के पूरे पूरे अवसर रहे ।
यहाँ साम्यवादियों का शार्प शीयर(sharp & sheer) विभाजन कारगर हो ही नहीं
सकता था इसीलिये बावजूद इसके कि 'भारत ने दो विश्व युद्धों की विभीषिका
झेलते संसार का सच समझ कर 'गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी और "नेहरू
-नासिर -टीटो ' की निर्गुट नीति पर लंबे समय तक भारत चलता रहा किंतु
"भारत विभाजन "के घाव को मरहम पट्टी की जरूरत थी अंग्रेज जाते जाते देश
को मजहबी क्रूर भेदभाव का प्रदूषण दे गये और पाकिस्तान इस नफरत के चलते
गुटबंदी के खेमे में ही नहीं जा बैठा बल्कि वहाँ लोकतंत्र क़त्ल कर दिया
जाकर 'मजहबी चरमपंथियों का बोलबाला हो गया 'भारतीय सीमायें अशांत हो गयीं
और चीन के भू विस्तार साम्राज्यवाद के कारण नेफा लद्दाख और पाकिस्तान के
विस्तार की लालसा ने कश्मीर कच्छ राजस्थान सीमान्त पर युद्ध होने लगा, और
भारत हालात के हाथों मजबूर था जो पाकिस्तान चीन का मित्र? वह भारत का
मित्र कैसे? इसी कारण भारत 'सुरक्षा परिषद में समर्थक और एक बङे हथियाद
विक्रेता मददगार मित्र "सोवियत संघ रूस का स्थायी मित्र बना "बार बार यह
मैत्री संधि नवीनीकरण से दुहराई जाती रही । सोवियत संघ रूस के बिखराव के
बाद, भारत की गुटनिरपेक्षता निरर्थक हो गयी क्योंकि अब सोवियत संघ एक बङी
शक्ति संतुलन की महाशक्ति न रहकर विखंडित पंद्रह राज्यों की परस्पर रक्षा
की संधि मात्र रह गया, येल्तसिन और गोर्बाचोब के बाद तो सोवियत रूस अनेक
मायनो में अमेरिकी समर्थक राष्ट्रों से ही जा मिला और संसार में शीत
युद्ध काल के समापन के साथ ही "शक्तिसंतुलन और पृथक्करण बदल गया अमेरिका
नाटो सीटो सेन्टो सियेटो और बगदाद पैक्ट से भी ऊपर उठकर सामरिक आर्थिक
महाशक्ति बन गया और दूसरे पलङे में शक्ति के अनेक ध्रुव बन गये "तेल
राष्ट्रों के विपरीत चीन, भारत, और एकीकृत होकर दुबारा संगठित जर्मनी
'फ्रांस ब्रिटेन और विकासशील संसाधन संपन्न तीसरी दुनियाँ तराजू के
काँटे पर जा बैठी और कई ध्रुव बन कर संसार की शक्तियाँ विकेन्द्रित हो
गयीं ।
आज "भारत एक बङा लोकतंत्र नाभिकीय शक्ति और संचार सूचना शक्ति से संपन्न
मानव संसाधनों से भरापूरा देश है ।
सम्मान भरोसा और आर्थिक शक्ति के साथ साख भी मुद्दा है 'तीखी गुटबंदी या
तटस्था अब बेमानी हो चुकी है ।एशिया की सबसे बङी समस्या है आतंकवाद 'और
भारत रूस अमेरिका सब इससे परेशान है सबसे बङा खतरा है प्रदूषण और सबसे
बङी समस्या है धरती पर प्रकृति की रक्षा के साथ मानव के रहने लायक
ब्रह्मांड को बनाये रखना ।
हर आदमी आज विश्व नागरिक है और देश मतलब लोकल गवर्निंग बॉडी "और यही सोच
है युवा की वह पैदा होता है भारत में पढ़ता है फ्रांस अमेरिका कनाडा में
, जाकर रहता है अरब या तेल राष्ट्र में और एक दिन वह देश की सीमा से ऊपर
सोचता है धरती कैसे सुंदर सुरक्षित मानव हेतु सुखद और देश कैसे उसके लिये
सम्मान का विषय बने ।
आज विज्ञान तकनीकी और सूचना के साथ रोजगार शिक्षा जल भोजन आवास रहन सहन
मनोरंजन और निजी हक सबको चाहिये और ये सब पारस्परिक रूप से आदान प्रदान
आयात निर्यात पर निर्भर है ।
जरूरत है कि समय रहते लोकतांत्रिक देश एक साझा मंच तैयार करके संसार से
प्रदूषण आतंकवाद गरीबी खत्म करने और मानव को बेहतर ब्रह्मांड में बेहतर
जीवन देने पर सहमत होकर समवेत कार्य करें '।
भारत अमेरिका फ्रांस कनाडा ब्रिटेन ही नहीं सब तकनीक और संसाधन संपन्न
देशों को एक परिवार बनकर धरती और ब्रह्मांड के बारे में साझे प्रयास करने
होंगे ।
@सुधा राजे


Sunday 25 January 2015

सुधा राजे के गीत

अब भी सहरा में
आँसुओं की नदी बहती है।

Sudha Raje
अब भी सहरा में आँसुओं
की नदी बहती है।
बर्फ़ सरहद पे गिरी
गाँव" वो"सिहरती है
ख़ून में
लिपटा तिरंगा वो जिस्म
कद्दावर
बर्फ़ में दफ़्न
हरी वर्दियाँ बिखरती हैं
धुंध कोहरे को चीरते
वो लफ़्ज़ "जय भारत"
वो सफेदी पे लाल बारिशें
बरसतीं हैं
वो झुर्रियाँ वो आँखें
धुँधली हुयी रो -रो के
थरथराती वो थकाने
जो रोज़ मरतीं हैं
सफेद थान में
जिन्दा वो लाशें तन्हा हैं
वो "किलक" मुफ़्लिसी में
जो यतीम पलती है
वो उड़ाने जो मय्यतों पे
लायी आबादी
वो ज़नाज़े जो बरातें
भी रश्क़ करतीं हैं
वो सख्त सर्द
हवा जख्मी सिपाही कोहन
वो चिट्ठियाँ लहू से धुल के
अश्क़ भरतीं हैं
वो आँसुओं से तर-ब-तर भिंचे
नरम तकिये
कलाई सूनी रजाई खनक
पिघलती है
आह वो आग वो दिल
ज़िस्मो -ज़ां ज़मीर जले
वो ख्वाहिशें जो गर्म ख़ून
में मचलतीं हैं
वो गर्म गर्म बयानों पे
सियासत ठंडी
वो सर्द फर्ज़ राहतें फ़रेब
करतीं हैं
वो ख़ैरख्वाह वो ग़ंज़ीने
कहाँ गये बोलो? ?
अब भी बंदूक वो सरहद पे यूँ
ही चलती है
वो राखियाँ समाधियों पे
हिचकियाँ रखतीं
वो डोलियाँ जो बिना भाई
के निकलती हैं
वो आईने पे चाक़ चूर लहू
की बिन्दी
वो अपने खून से ज़र-बर्क़
माँग भरती है
आग बारूद वो संग़ीन
वो चमक़ लाशें
वो गली उँगलियाँ जलती बरफ
अकड़तीं हैं
सर्दियाँ वर्दियाँ ठंडी बरफ़
घने कोहरे
शबनमें चश्मे "" सुधा"" उफ्फ
चिनाब जलती है
©®¶©®¶
Sudha Raje
Datia--Bijnor

वंदे मातरम बोल

Sudha Raje©®
दुश्मन की ललकार मिटा दे
भुनगों की गुंजार मिटा दो।
तिनकों की दीवार मिटा दे ।
उठा उठा तूफान
बाजुओं
क़दमों से भूडोल ।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल ।
बोल बोल जयहिन्द -
हिन्द की सेना की जय बोल ।
वन्दे मातरम् बोल ।
उठो तिरंगा झुक ना जाये
उठो ये गंगा रुक ना जाये
उठो कि बच्चे चिंहुँक ना जाये ।
भून भून दो कीट पतिंगे ।
तोपों के मुँह खोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्देमातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल ।
बोल बोल जयहिन्द हिन्द
की सेना की जय बोल ।
©®Sudha Raje
है कश्मीर हमारी क्यारी
काटो जो करते ग़द्दारी।
शौर्य देख ले दुनियाँ सारी।
सीमा पर दुश्मन की लाशें
बिछा बदल भूगोल ।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
बोल बोल जयहिन्द
हिन्द की सेना की जय बोल ।
सबसे पहले देश का नारा
जय विज्ञान किसान हमारा।
हर सीने पर लिखे तिरंगा हर जवान
अनमोल।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
बोल बोल जयहिन्द!!!!!!!!!!!!
हिन्द की सेना की जय बोल
वन्दे मातरम् बोल ।
मानचित्र नयी सीमा खींचों
दुश्मन के लोहू से सींचों ।
नमक चुकाओ आँख न मींचों
मज़हब भाषा जात भूल
कर मिलो आज़ जी खोल ।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
बोल बोल जयहिन्द!!!!!!!!
हिन्द की सेना की जय बोल!!!
छोङो छोङो अब रंगीनी ।
दुश्मन ने कमज़ोरी चीन्ही।
है नापाक़ इरादे ख़ूनी।
संगीनों की नोंक पे रख दो ।
सबकी साज़िश तोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम बोल
वन्दे मातरम बोल
बोल बोल जय हिन्द!!!
हिन्द की सेना की जय बोल
वन्दे मातरम् बोल
Jai hind!!!!
Written by Sudha Raje
©®
सुधा राजे
Dta-Bjnr
जयभारत


Saturday 24 January 2015

सुधा राजे का स्तंभ :- '

सुधा राजे का लेख ''कॉलम ''स्त्री ''
---***--**--**--**
"ये धर्म भक्ति है या भय? ''
★★★
बॉलीवुड की फिल्म या सास बहू छाप टीवी सीरियल में जब भली बहू को पसंद
किया जाता है 'या कोई भली बुरी स्त्री की तुलना होती है तो कुछ पहचान आम
होती है भली बहू की ',वह भोर बङी सुबह सबसे पहले जागकर घर की झाङू लगाकर,
सबसे पहले नहाकर, सीधे पल्लू की साङी सिर पर ओढ़े पीठ पर लंबे बाल फैलाये
बङी सी बिंदी लगाये तुलसी मईया को पीतल या तांबे के लोटे से जल चढ़ाती
हुयी बङी ही सुरीली मीठी आवाज में भजन गाती है, और जब वह मगन होकर आरती
करती है तो सब, अलसाते हुये देर तक सोने वाले चिढ़कर उठते है और एक दो
लोग चौंककर उस भली "बहू "पर वारी वारी जाऊँ की तरह मोहित हो जाते हैं ।
रोजमर्रा के जीवन में भी देखें तो महिलाओं की सबसे अधिक कतारें मंदिर,
मज़ार, दरग़ाह, सतसंग, प्रवचन, भजन, और धार्मिक कार्यक्रमों में दिखती है
'फिर चाहे चारधाम यात्रा हो या सांई दरबार या पीर मजार चर्च हो 'धर्म का
सारा कारोबार और धूमधाम सबसे अधिक स्त्रियों के दमखम पर जारी है ।
चाहे नवरात्रियाँ हो, या कोई गुप्त पूजा पाठ, कर्मकांड से परे व्रत
अनुष्ठानों की अपनी ही एक दुनियाँ स्त्रियों की आस्थाओं की रची बसी खङी
है ।
भली बहू बेटी माँ दादी मतलब वह स्त्री जो, सुबह जल्दी उठकर बारहों महीने
जस्दी नहाकर बिना कुछ खाये पिये पूजा पाठ करती हो ।बचपन से ही । और विवाह
के पहले से ही सोलह सोमवार या शुक्रवार या प्रदोष या गुरूवार या अन्य कोई
व्रत पूजा पाठ करके भावी पति ससुराल और घर वर 'माँग कर अपना भाग्य जगाती
हो ।जो विवाह के बाद इतनी सती तेजस्वी हो कि उसके "सत्त" के प्र्ताप से
हर संकट ससुराल पर से पति पर से हट जाये जैसे आग से तपकर कागज जल जाता है
वैसे ही हर परस्त्रीवांछा रखने वाला कामी चरित्रहीन उस "सत्त धारिणी ''की
ओर देखते ही अंधा हो जाये छूते ही जल मरे ।
जो यमराज से भी अपने पति को छीन ले अपने सुहाग व्रत की भयंकर साधना के तपबल से ।
वही भारत की महान नारी है ।यदि पति को जरा भी कुछ होता है तो उस नारी के
"सत्त "में तेज और सतीत्व में प्रताप नहीं, व्रतोपवासादि में साधना नहीं,

इसीलिये करोङों भारतीय स्त्रियाँ प्रतिवर्ष दर्जन भर व्रत "सुहाग "की
दीर्घायु के लिये रखतीं हैं ।जैसे करवाचौथ, वटसावित्री, गणगौर, हरितालिका
हङतालतीज, सौभाग्यसुंदरीव्रत,और विविध तिथि त्यौहारों के व्रत '।
ये स्त्रियाँ पुत्र पाने के लिये और पुत्र हो जाने पर पुत्र की दीर्घायु
के लिये भी अनेक व्रत रखती हैं ',अहोई अष्टमी, हलषष्ठी,,संतानसप्तमी,
लोलार्क षष्ठी, पुत्रदा एकादशी, प्रदोष, द्वादश फाल्गुन पयोव्रत आदि, ।
वैसे भी साल भर में कभी 'वैभव लक्ष्मी कभी एकादशी कभी आशादशमी तो कभी चौथ
और साँते आँठे 'के अनेक व्रत करतीं रहतीं है ।कुछ नहीं तो विविध ग्रहों
की शांति और देवताओं की कृपा के लिये व्रत पूजा और फिर कथा रामायण सतसंग
तीर्थाटन मंदिर मजार पीर जियारत अलग से ।
प्रश्न उठता है कि, क्या वास्तव में स्त्रियाँ "ईश्वर की भक्त हैं ईश्वर
पाकर मोक्ष औऱ आत्मकल्याण माँगतीं हैं अथवा इन सब व्रत उपवास पूजापाठों
के पीछे "कहीं 'डर 'भय 'आतंक, रहता है? जबकि लगभग हर स्त्री है कि
माँगती रहती है "सुहाग, भाई भतीजे 'पुत्र और क्या!!!!!
ये पूजा पाठ आस्था ईश्वर के दर्शनों या ईश्वरीय दुनियाँ में जाने के लिये
"कितनी स्त्रियाँ करती हैं जिसमें "आत्म कल्याण मुक्ति मोक्ष या
भगवत्कृपा प्राप्ति की साधना है?
बेचारा भगवान और निरीह औरतें!!!!!
डरी हुयी बेबस स्त्रियाँ? या वाकई आस्था?
वह पूजा तो बेशखक करती है भगवान की किंतु माँगती है "पुत्र? पति की लंबी
उमर सुहागिन मरने की कामना? ससुराल की प्यारी? रूपवती ताकि पति सौत न
लाये? पिता को धन के अंबार ताकि लोग दहेज पा सकें,? रोजी रोजगार पति के
लिये ताकि बच्चे पल सकें? पुत्र संतान ताकि उसका उत्पीङन न हो और अपमान
से बची रह सके?
मतलब ये आस्था और पूजा पाठ व्रत उपवास केवल "भय "की वजह से!!!!!!!
डर विवाह न होने पर समाज की नजरों का?
डर पति को कुछ हो न जाये वरना विधवा होकर तबाही झेलने का?
डर पुत्र न होने पर तानों और अपमान और नीची हैसियत रह जाने का? डर रूप
रंग धन कम होने होने पर सौत का या पति की प्यारी न रह जाने का?
हजारों तरह के भयों और डरों "की मारी स्त्रियाँ, तरह तरह की 'इच्छायें
लेकर जब चंट चालाक बाजारी बाबाओं साधु संत औलिया मौलवी पादरी तांत्रिकों
के पास जातीं हैं तो अपनी अनुभवी कुशल मनोवैज्ञानिक बातचीत से वे उनको
फाँस कर तरह तरह के प्रलोभन उनकी मनोकामना पूरी करने के देते हैं और ठगते
हैं ।अनेक बार तो स्त्रियाँ लूटपाट बलात्कार और ब्लैकमेलिंग की' शिकार तक
हो जाती हैं ।
फिर भी गजब है कि सबसे ज्यादा भीङ धर्मस्थलों पर स्त्रियों की ही है।
जैसे जैसे स्त्रियाँ 'स्वावलंबी और कमाई, पढ़ाई लिखाई, ताकत हिम्मत दौलत
शोहरत हुकूमत और हुनर में स्वयं के दम पर न केवल अपना बल्कि परिवार का
जीवन पाल पोसने लायक होती जाती है
""ये डर कम होते जाते है "
और 'शुद्ध भक्ति तो बङी ऊँची शै है, 'किंतु ऐसे मजबूत स्त्रियों की
आस्था चूँकि निर्भीक होती है तो आध्यात्मिक स्तर पर उनका ज्ञान विज्ञान
विचार सोच और अभिव्यक्ति ही केवल शक्तिशाली नहीं होता अपितु उनको 'ठग
साधु संत मौलवी पादरी और भयादोहन करने वाले फकीर तांत्रिक भी नहीं ठग
पाते ।
वस्तुतः तब ही कहीं जाकर ''स्त्री का भगवान से परिचय होता है, 'जबकि
स्त्री होने मात्र से जुङे भय समूल खत्म हो चुके होते हैं ।
रहा प्रश्न धर्म में स्त्री का स्थान? तो कुतर्क से चाहे भले ही कोई
मुर्गे की तीन टाँग बोलता रहे ', मोक्ष, संन्यास, मठ, आश्रम, संतई और
भगतगीरी में स्त्री का कोई स्थान धर्म नहीं देता है, '।
स्त्री का भगवान पति को बताकर 'पति की ही सेवा पूजा आराधना करके ही मोक्ष
मिल जायेगा यह भी घोषित कर दिया गया है ',और तर्क दे दिया गया कि 'अंध
बधिर रोगी अति दीन, ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री सौ सौ नर्क भोगने
पङते हैं ।
मरकर वह क्या भोगेगी क्या नहीं किंतु एक सामान्य आदमी की स्त्री को "पति
की नाराजी, मन से उतरने, रूठने, क्रोधित होने, छोङ देने या मर जाने पर
जीते जी वास्तव ही में सौ सौ नर्क झेलने पङते हैं । ऐसा सब केवल इसलिये
क्योंकि न तो उसके पास ज़मीन ज़ायदाद होती है, न ही बैंक में धन और बँधी
हुयी रोजी रोजगार न ही, समाज ऐसा है जो एक साधारण स्त्री को, अकेली बिना
टोके रोके छेङे, डराये धमकाये जी लेने दे ।
विवाह की अऱेंज मैरिज की भारतीय प्रणाली ही 'लङकी को पहले ही मोङ पर कमतर
और अपाहिज बना देती है जहाँ लङकी केवल पसंद की जाती है ।
चार आयु आश्रमों की व्यवस्था देनेवाला भारतीय धर्मसंकलन भी इज़ाजत नहीं
देता कि 'स्त्री आत्म कल्याणार्थ पति के जीवित रहते धार्मिक कारणों से
वैराग्य ले ले 'या वनवास पर कुटिया में बिना परिजनों को लिये चली जाये,
'।
स्पष्ट व्यवस्था वेद न पढ़ने की उत्तरवैदिक युग में कर दी गयी, और हर
स्तोत्र, सूक्त आदि में "प्रार्थनायें पुरुष वाचक है और सब प्रार्थनाओं
का सार यही है कि ' "इस पाठ को पढ़ने पूजने से ""धर्म अर्थ काम मोक्ष इन
पुरुषार्थ चतुष्टय की कामना पूरी होगी ',न कोई स्त्री हेतु पूजाफल है न
कोई बिना पुरुष के करनेवाली पूजा यज्ञ हवन समाधि की व्यवस्था ।
तो क्या ""धर्म और ईश्वर स्त्री के लिये नहीं????
या ये ईश्वर वह केवल पिता पुत्र पति के लिये रिझाने वाली मध्यस्थ
"पुजारिन मात्र है?????
या इस देवीपूजकों के देश में जहाँ अब तक बहुत कम कोई शक्तिपीठ ऐसा हो
जहाँ पुजारिन की गद्दी पर स्त्री हो?
आधुनिक काल मनमानी पूजा का संक्रमण काल है और इसलिये तरह तरह की ""माताजी
""नित नये समाचार बन जाती है 'किंतु पूजा के व्यवसायिक संगठनात्मक रूप
पुरुष का ही बोलबाला है और स्त्री पुरुष पुजारियों से घिरे मंदिर में
भूखी रहकर पुरुष के लिये पद पैसा सोना चांदी रोजगार पुत्र पति की लंबी
आयु आदि माँगने जाती ।
कुमारी कन्या को दुर्गा का विग्रह मानकर पूजता पुरुष 'पुजारी हेता वक्ता
स्वयं है, विवाहोपरांत मात्र बांयी तरफ बंधन ओढ़कर बैठने को 'ईशाराधन का
हक नहीं कहा जा सकता, ।
एक कृष्ण के पीछे 'गोपी सखी बनी 'स्त्री की चर्चा किये बिना बात पूरी
नहीं होगी, ' कि मिथक या कथा जो भी माने यह तय होता है कि स्वयं कृष्ण ने
'विरही गोपियों को निराकार ब्रह्मोपासना करने और कृष्ण को भुलाने का
निवेदन उद्धव के द्वारा करवाया, जबकि ब्रजमण्डल की गोपियों ने जिद वश
कृष्ण की भक्ति की '। यह वही मथुरा वृन्दावन है जहाँ दो सौ सालों से
बंगाल और दक्षिण भारत से विधवायें, अकेली भटकने जबरन छोङ दी जाती हैं लो
करो अब भक्ति ',क्योंकि स्त्री को विधवा होने से जलाना कानूनन भयंकर
अपराध क्षमा नहीं होगा ।
यह शोध का विषय है कि 'स्त्री की आराधना में उसका निजी आध्यात्म धर्म और
ईशप्राप्ति की कितनी हिस्सेदारी है और वैधव्य बाँझपन सौत और पति का साथ
छूटने अच्छा घर वर न मिलने का भय कितना ।
नोट --अपवादों के आधार पर समाज नहीं चलता ।हर चीज के अपवाद की तरह बहुत
कम स्त्रियाँ विशुद्ध ईशाराधन के लिये भक्त हो सकतीं है बात गिनी चुनी
नहीं समग्र आम घरेलू स्त्रियों की है '।
©®सुधा राजे
ग्वालियर —&—बिजनौर


Saturday 17 January 2015

सुधा राजे का स्तंभ :-स्त्री और समाज " विवाह सपना नहीं हकीकत है।"

विवाह सपना नहीं हकीकत है
"""""""""""""""""""""""""""""
'सुधा राजे' का लेख :17/1/2015/7:20AM
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★सामाजिक ताने बाने में जब भी 'स्त्रियों के प्रति हिंसा और अपराध की बात
आती है तो प्रायः एक सीमित दृष्टिकोण
"यौन अपराध और ससुराल वालों के अत्याचार "
पर ही सारी बात सिमट कर खत्म कर दी जाती है;जबकि मूल कारण क्या है इस
भाँति यौन हिंसा और वैवाहिक अत्याचार की इस पर हम विचार विमर्श तक करने
के लिये भी तैयार नहीं हैं ',जबकि प्राचीन समाज से ही जो रीति रिवाज़
परंपरायें रूढ़ियाँ और नियम अलिखित अघोषित होकर भी कार्य विचार व्यवहार
और मानक आचरण बनते गये हैं वे सब 'दो ही मूल बातों से उद्भूत हैं 'प्रथम
''कृषि व्यापार आजीविका''और द्वित्तीय ''विवाह परिवार और संतान । मानव की
आवश्यकताओं का ढाँचा सोपान रूप से तय किया जाये तो भोजन, आवास, सहवास,
सुरक्षा, समूह, ऋतु अनूकूल वस्त्र, खेलकूद मनोरंजन और व्यक्तिगत वस्तुओं
का संग्रह ही सिद्ध होता है । विवाह नामक संस्था और संस्कार तो बहुत बाद
में प्रारंभ हुयी। पहले तो यह सब नैसर्गिक प्रणयेच्छा सहवास और प्रजनन ही
मात्र था जिसके कलह युद्ध संघर्ष और विवादों के शमन के लिये 'नियम बनाये
गये। ये नियम उन लोगों ने बनाये जो 'सत्ता पाने में शक्ति साहस और संघर्ष
के साथ चतुराई से सफल हो गये । स्त्रियों के नैसर्गिक 'कोमल देह और
मातृत्व के साथ संतान के प्रति ममत्व के गुणों ने उनको 'संरक्षण की खोज
के लिये प्राकृत रूप से विवश किया और बलवान नर को मादा ने रक्षक समझा और
यह बहुत हद तक सत्य भी रहा ।परिणाम स्वरूप स्वस्थ बलिष्ठ संतान सहवास और
परिवार की सुरक्षा को ध्यान में रखकर सदैव बलवान नरों का समूह पर वर्चस्व
स्थापित रहा । विवाह इसी तरह के बलिष्ठ नर द्वारा 'स्त्री 'और संतान पर
अधिक से अधिक स्वामित्व पाने की प्रतियोगिता और
'स्त्री के परिजनों द्वारा बलिष्ठ नर से संबंध बनाकर समूह को और बलवान
करने की "समझौता संधि या डील रही "जिसे हम कालान्तर में स्वयंवर प्रथा
के किञ्चित विकसित
रूप में देखते है |
आजीविका आदिमानव की बङे छोटे पशु पक्षियों का शिकार करना रहा तभी से समूह
बनाकर आहार जुटाना 'प्राणि रूप में एक अनिवार्यता बन चुकी थी । ज्यों
-ज्यों मानव भोजन के अन्य स्रोत पाता गया, आहार का संग्रह संरक्षण और
उत्पादन तथा स्वादिष्ट बनाने के लिये समूह रूप की आवश्यकता बढ़ती गयी।
परिवार सबसे अधिक विश्वसनीय समूह और अन्योन्याश्रित इकाई के रूप में सबसे
अधिक भरोसेमंद प्रमाणित हुये । प्रेम की व्याख्या "प्राणि रूप में
'सहवासेच्छा, संसर्ग साथ मैत्री सहयोगी और परस्पर विश्वसनीयता के साथ
लंबे समय तक जीवन के आवास भोजन संतान और कार्य व्यवहार के साथी की स्थायी
व्यवस्था का ही एक नाम रहा। मन बुद्धि अहंकार और वासना के साथ 'सामाजिक
नियमों से धीरे धीरे 'सभ्य और संस्कृतिवान होना मानवीय समाज 'दूसरे की और
अपनी वस्तुओं की सीमायें पहचानने लगा और यहीं से "एकाधिकारवाद प्रारंभ
हुआ । विवाह और आजीविका व्यक्ति की नैसर्गिक आवश्यकता रहे हैं और आज भी
हैं । आवास चाहे गुफायें हों या कुटिया महल हों या फ्लैट अपार्टमेन्ट
'मनुष्य को भी पशु पक्षी कीट आदि की भाँति अपने भोजन शयन और आवश्यक
वस्तुओं के संग्रह सुरक्षादि के लिये "घर चाहिये ।
ये घर 'नर का होता चला गया । लङकियाँ घर छोङकर नये पुरुष के साछ चलीं
जातीं और घर बनाने वाले माता पिता अगर पुत्र नहीं होते तो अकेले रह जाते
।क्योंकि तब खेती और शिकार के बाद श्रम करके ही भोजन और जीवनोपयोगी सामान
जुटाया जाता था ।इसीलिये घर को 'लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी सुदृढ़ और स्थायी
बनाये रखने के लिये 'नर संतति को ही महत्तव दिया गया ताकि जो घर रहे उसका
हो घर '। लङकियाँ नये परिवार में चलीं जातीं और बदले में बहुयें आ जातीं
'समाजिक संतुलन तब अधिक से अधिक संतान जन्मने को भला समझता था क्योंकि
अधिक संतानों का मतलब था कुनबे की शक्ति और आहार तथा लङाई जीतने की
क्षमता । 'दस बीस संताने होना बहुत साधारण बात होती थी । बहुविवाह भी इसी
'अधिक काम करने वाले अधिक लङने वाले और अधिक युवा लगातार परिवार में बनते
बढ़ते रहने की आवश्यकता का ही परिणाम रहे । दस लङके मतलब सौ पौत्र होना
रहा ।कबीलों से गाँव और पुरवे बसते गये ।लोग अपने घर की लङकियों को दूसरे
कबीलों और गाँव में ब्याहकर मैत्री बढ़ाते और शत्रुता समाप्त करने का
बहाना बन गये विवाह ।आर्थिक आवश्यकतायें बङे परिवार की अधिक थीं तो बङे
परिवार की श्रम शक्ति उत्पादक क्षमता सत्ता और भूमि भवन खेत बनाने की भी
क्षमता अधिक थी । स्त्री ऐसे समय केन्द्र में थी क्योंकि वह माँ बनकर
संतानों को जन्म देती थी पालती थी और परिवार के सब सदस्य रसोई और भंडारण
की उसकी कला कौशल और न्यायपूर्ण पोषण वितरण पर ही निर्भर थे ।
किंतु आज तक आते आते 'विवाह स्वयं में एक परंपरा और रिवाज तो है ',परंतु
''नैसर्गिक प्रेम प्रणय हमसफर जीवनसंगी समवयस्क समरुचि समविचार स्थायी
मित्र और शैयासाथी ""आदि नहीं के बराबर रह गया है ।
कैसे????
वह ऐसे कि भारतीय परिवेश में विवाह "सबका मामला है 'बस नहीं है तो लङकी
का मामला नहीं है जिसकी शादी होने वाली है "!!!!!!
जी हाँ, एक लङकी को 'विवाह के लिये तो तैयार किया जाता है जीवन के लिये
कतई नहीं "। क्योंकि यह संस्कार धर्म संस्कृति और जाति गोत्र ही नहीं
जन्मपत्री और कुंडली का भी मामला है । यहाँ मामला ये भी है कि लङकी के
पिता की हैसियत कितने मूल्य तक का 'वर 'खरीदने की है ।यह भी मामला है कि
'लङकी को चाहे लङका बिलकुल पसंद न हो 'परंतु अगर लङकी के पिता भाई काका
ताऊ दादा बाबा को पसंद आ गया है मतलब "कुंडली के कुल बत्तीस में से?
अट्ठारह से ऊपर गुण मिल गये है, जाति और धर्म का लङका है गोत्र पृथक हैं
और दहेज जो माँगा है उतना दे पाने की लङकी वालों की औक़ात है, लङकी की
लंबाई चौङाई त्वचा बाल दाँत नाक कान फिगर डील डौल सब लङका ही नहीं 'होने
वाली सास ननद ससुर देवर जेठ और उनके बच्चों को पसंद आ चुके हैं 'लङकी की
शिक्षा 'जॉब कमाई पसंद है '।लङकी को आता क्या क्या है सारा इंटरव्यू
साक्षात्कार लङकी पास कर चुकी है तब जाकर "तिथि नक्षत्र मुहूर्त भद्रा और
ग्रहबाधा बचाकर ''विवाह लगन की सहालग के मौसम में ही ''विवाह की तिथि
तारीख़ तय हो पाती है।
कुल मिलाकर 'विवाह केवल लङकी का लङके से "प्रेम करना या लङके का लङकी से
प्रेम करना नहीं है अपितु लङके के मकान माँ बाप भाई बहिन नौकर पङौसी माली
कुत्ते गाय बैल भैंस सचिव बॉडीगार्ड खेल गाँव नगर जो जो भी लङके के पास
है उस सबसे "बिना किसी शर्त के बिना किसी उम्मीद के प्रेम करना है ।
लङकी को बदले में "प्रेम मिलेगा यह कोई आवश्यक पुरस्कार नहीं केवल एक
शुभकामना है "हो गया तो किस्मत नहीं हुआ तो बदकिस्मती लङकी की ।
बिना प्रेम के ही अधिकांश जोङे रह लेते हैं । हनीमून के दिनों से ही "कम
दहेज के ताने, रूप रंग और विवाह के उत्सव के आयोजन के ताने चालू हो जाते
हैं पहला और दूसरा बच्चा होते होते "अधिकतर जोङों की कलई फीकी और बेरंग
दीवारों की तरह रह जाती है ।बचती है तो लङकी की "आर्थिक मजबूरी बच्चो के
पालन पोषण की विवशता और बेगाना हो चुका मायका 'अजनबी नगर की ससुराल के
बीच जङों से कटी डाल की तरह फिर से पनप कर दिखाने की चुनौती ।
विवाह दूसरे शब्दों में कहें तो बंद गली का आखिरी दरवाजा जहाँ किस्मत बनी
तो बनी 'बिगङी तो फिर कभी नहीं बनती ।
यह सबसे बङे अचंभे की बात है कि हर तीसरी लङकी की प्रतिभा हुनर कौशल
पहचान और सपनों का खात्मा बङी बेदर्दी से ''विवाह के नाम पर 'मायके वाले
ही करते हैं 'तब जब वे लङकी को जीवन की 'जिजीविषा से दूर वे सब चीजें
नहीं सीखने देते जो "जीवित रहने के लिये जरूरी है "इसकी बजाय 'उन
व्यक्तियों की सेवा और इच्छा के अनुसार मनमारकर सहन करते रहना सिखाते है
जो 'रोटी कपङा मकान में आधा बिस्तर देने के बदले बिना अवकाश के पूरा जीवन
बेगारी बंधुआ मजदूरी कराते हैं!!!!!!!
हर पशु पक्षी बिना किसी भेदभाव के अपनी सब संतानों को "पेट भरने शिकार
करने और जिंदा रहने के तौर तरीके सिखाता है और वयस्क प्राणी स्वावलंबी हो
जाता है ',किन्तु भारतीय स्त्रियाँ???? बालिग होते होते पूरी तरह "जीवन
से विकलांग होती जाती हैं!!!!!!!!!!
तैरना, ड्राईविंग, नाव खेना, बेङा बनाना, शिकार करना, खेती करना, दुकान
चलाना, मशीनें सुधारना, रुपया कमाना और अपना घर स्वयं बनाना, स्त्री के
कार्य ही नहीं समझे जाते?
भारतीय फिल्मों की तरह समाज में भी अधिकतर घरों में बिजली फिटिंग, वाहन
मरम्मत 'और 'शासन निर्णय हुकूमत 'कमाई स्त्री के कार्य नहीं माने जाते ।
इसकी तस्वीर बङी भयावह है :हज़ारों औरतें हर साल विधवा हो जाती है, तलाक
देकर घरों से बाहर फेंक दी जाती है, दहेज की माँग पूरी नहीं होने पर
क्रूरता से बंधन में रखी और मारी पीटी अपमानित की जाती है, या उ नकी
हत्या तक कर दी जाती है, पुत्र न पैदा करने तक बार बार माँ बनने को विवश
की जाती है, और पुत्रियाँ जनमने पर सताया और अपमानित किया जाता है या
कन्याभ्रूण हत्या के लिये विवश कर दिया जाता है, कामकाज जॉब पढ़ाई केवल
'लही वर मिलने के नाम पर लङके वालों की मरज़ी के नाम पर विवश करते छुङवा
दिये जाते हैं ।
फिर भी इस बात पर घोर आश्चर्य न हो तो क्या हो कि 'आम और खास अकसर घरों
की लङकियाँ रूप रंग और दहेज के दम पर 'विवाह करके सुखी होने पूरी जिंदगी
"सुहागिन रहकर और पति की प्यारी 'ससुराल की दुलारी रहकर खुश रहने का सपना
देखतीं है!!!!!!!!
जीवन सपना नहीं ',तो विवाह भी सपना कैसे?
इसमें हनीमून के पहले सप्ताह के बाद की 'ऊब है 'रूप ढलने और प्रसव की
पीङा से पहले के गर्भधारण
के कष्ट है ',बच्चों की मलमूल सफाई गीले बिस्तर रतजगे और कैरियर के बंधन
है ',आकस्मिक बीमारियाँ दुर्घटनायें परिजनों की दुष्ट छिपी मनोवृत्तियाँ
स्वार्थ और चुगलियाँ ईर्ष्या द्वेष और अनिवार्य बँटवारे बिछोङे हैं । आज
लङकी की 'शादी कर देना ही जीवन का समाधान हो ही नहीं सकता । बिना आर्थिक
सुरक्षा के हर दावा
''भले घर के नाते का बेकार है "
क्योंकि हर सुबह की साँझ है और हर साँझ के बाद रात का अंधकार है । हर रात
को पछतावा होने से बचाने के लिये केवल चाँद नहीं 'कृत्रिम प्रकाश भी
चाहिये बिजली 'जेनरेटर इनवर्टर बल्व और लैम्प भी ',हर रात सुहागरात नहीं
रहती किंतु हर रात पेट को खाना बदन को बिस्तर कपङे कमरा और समाज में
सम्मान से जीने लायक हक और सामान जरूर चाहिये ',क्या आप विवाह से पहले
केवल "सपनों के सहारे तो नहीं जी रहीं???
©®सुधा राजे


Saturday 10 January 2015

सुधा राजे का स्तंभ:- स्त्री और समाज - घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा
:सुधा राजे ' का लेख '
•••••••••••••••••••••••
इसकी मूल वज़ह आर्थिक निर्भरता तो है ही साथ ही साथ समाज का वह ताना बाना
भी है जिसमें ग्रामीण कसबाई स्त्री हो या महानगरीय आधुनिक उच्चशिक्षिता
',लोग एक स्त्री को खेत पर चारा काटते घास छीलते फसल उसाते पशु चराते
'कंडियाँ बीनते और बोझ भर लकङी सिर पर उठाकर घर लाते या सब्जी बेचते
देखकर घरों में बर्तन झाङू पोंछा कपङे धोने की महरी दाई सफाई वाली या
शौचालय साफ करती, या सङकों पर झाङू लगाती देखकर जरा सा भी नहीं चौंकते ',
किंतु जैसे ही एक लङकी आधुनिक सुविधाजनक पोशाक पहन कर बाईक या कार
चलाती हुयी ऑफिस के लिये निकलती है लोग आज भी ''एलियन ''समझकर घूरना
फिकरे कसना चाहने लगते हैं ।कौन है किस घर से है किसकी बेटी है शादी हुयी
या नहीं, बच्चे कितने हैं, लङके कितने कितनी लङकियाँ, बाप करता क्या है
'भाई कितने हैं कौन हैं 'पति कैसा है दिखने में कौन है क्या करता है 'ये
स्त्री क्या करती है कितनी पढ़ी लिखी है किस पद पर है???????????
सवालों का अंत नहीं!!!!!!!!!!!!!
जैसे उसका सबसे बङा गुनाह स्वावलंबी होना है या स्त्री होना ये पता लगाना
बङी ही कठिन परीक्षा ।
स्वावलंबी तो वे महरी दाई मजदूर किसान साफ सफाई वाली स्त्रियाँ भी हैं
किन्तु अन्तर है "सत्ता का हक़ का हनक और दमक का और निर्णायक भूमिका का ।
समाज को सदियों से 'निम्नकोटि का समझे जाने वाले कार्यों को स्त्रियों से
करवाने की आदत पढ़ चुकी है।शूद्र और स्त्री दोनों को हर तरह के अधिकार से
वञ्चित रखा गया ।शूद्रों के परिवार में भी पुरुष उस समुदाय के निर्णायक
और स्त्रियाँ सेविकायें और निम्न समझी जाने वाली सेवाओं को करनेवाली मशीन
'।
लोगों को अभ्यास पङ चुका है स्त्रियों को कुट्टी काटते, उपले कंडे पाथते,
गाय भैंस नहलाते चराते दुहते, घर सङक और हॉस्पिटल साफ करते शौचालय साफ
करते झाङू लगाते बर्तन माँजते कपङे धोते, गोबर उठाते, फसल काटते, गन्ना
छीलते, घर के बाहर के लोगों की सेवा करते आवभगत और जूठन उठाते, खाना
पकाते, रोटी बेलते आटा गूँथते, स्वेटर बुनते, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई करते,
देखते रहने और सेवायें कराने की ।इन सेवा कार्यों को भी अगर स्त्रियाँ
बङे और व्यवसायिक पैमाने पर करना शुरू कर दें कि आय बढ़ जाये और वे
पूर्णतः आर्थिक आत्मनिर्भर ही नहीं परिवार का संतान का और अपनी
आकांक्षाओं का सारा व्यय स्वयं वहन करने लग जायें, 'तो यह एक बग़ावत जैसा
क़दम माना जाता है मसलन 'धुलाई का काम करने के नाम पर पुरुष सारा कपङा घर
लाकर पटक देते और स्त्रियाँ दिन भर कपङे नदी तालाब या घर के हैंडपंप पर
कूटतीं रहतीं थीं ।आज भी कसबों गाँवों में यही हाल है ।किंतु यदि स्त्री
पिता पति की गुलामी को जरा सा परे रखकर 'लॉउण्ड्री "खोलने और रफू,
ड्राईक्लीन 'आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक मशीनों से कपङे धोने सुखाने रँगने प्रेस
करने जरी पर टरक चढ़ाने आदि की पूरी व्यवसायिक यूनिक खोल ले तो???
अकसर यह बात हज़म नहीं होती । घर की हाथ वाली सिलाई मशीन और सुई धागे से
हजारों कपङे सिलतीं शरणार्थी सिन्धी पंजाबी मुसलिम स्त्रियाँ हमने अपने
बचपन में देखीं, किन्तु बाज़ार में दरजी हमेशा पुरुष ही देखा, जैसे ही एक
स्त्री ने विधिवत टेलरिमग मार्ट या वर्कशॉप बङे पैमाने पर करना शुरू किया
'वह समाज की बाग़ी लगने लगी और अखरने लगी ।
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ ऐसा नहीं कर सकतीं 'या कर ही नहीं रही है 'बेशक आज
बहुत सी स्त्रियाँ अपने सीमित स्तर पर सिमट कर रह गये हुनर को 'बङे स्तर
पर व्यवसायिक रूप देकर काम करने के साथ निर्णायक भूमिका निभा रहीं हैं
किन्तु पचास करोङ के लगभग महिलाओं की तुलना में उनकी गिनती नहीं के ही
बराबर है 'और आज भी वही रवैया जारी है कि 'पति या पिता की दुकान तक पर
स्त्री का काऊन्टर पर बैठना 'दुर्लभतम 'अवसर की श्रेणी में आता है ।जहाँ
दस साल का लङका कमाने के बारे में सोचने लगता है और बीस का होते होते घर
के व्यवसाय में हाथ बँटाने या अपना कारोबार खङा करने की सोचता है वहीं
'लङकी को परिवार की सेवा में माता और दादी की ही तरह खपाने की सोच हावी
है ।विवाह को जो लङकियाँ मायके के बंधनों ये मुक्ति की वजह मानतीं हैं वे
ही अकसर विवाह के बाद खाई में जाकर सदा सर्वदा को खप कर अस्तित्वविहीन
होकर बँधुआ बेगार मजदूरी में फँसी रहकर जीवन भर पछतातीं हैं ।
स्त्री को उच्च शिक्षा के सिवा कोई मार्ग ही नजर नहीं आता स्वावलंबी होने
का । और जो जो छोटे मोटे सेवा कार्यों से निम्नकोटि का जिन्हें समझकर
बेसहारा गरीब या कमजोर वर्ग की समझकर स्त्रियों को करने दिया जाकर 'चंद
रुपये मिलते हैं या 'रहने खाने पहनने भर की सहूलियत वह सब इतना पर्याप्त
कतई नहीं होता कि एक स्त्री अपने 'माँ बाप और बेसहारा भाई बहिन या संतान
का बोझ आराम से उठा सके ।
ये सब समझने की बात है 'कि कम पढ़ा लिखा पुरुष दरजी, हेयर ड्रेसर, किराना
दुकानदार, बेकरी, लॉण्ड्री पॉल्ट्री, फिशरी, मधुमक्खी पालन, रेशम
उत्पादन, खादी या थोक सामान सप्लाई की दुकान, रेडीमेड वस्त्रों की दुकान
या कपङों की थान या सोना चांदी हीरों का 'व्यापारी हो सकता है!!!!!!!!
किन्तु कम पढ़ी लिखी या सामान्य पढ़ी लिखी स्त्री का 'सरकारी या प्रायवेट
नौकरियाँ छोङकर अन्य कोई कार्य व्यवसायिक रूप से पूँजी या हुनर के दम
पर करना आज भी अजूबा है ।
ऐसा माहौल बनाकर रखा गया है कि 'स्त्री दुकानदार या स्त्री प्रोफेशनल्स
को "एलियन "की तरह देखा जाता है ।
इस सबसे बाहर निकलना तो आखिर स्त्री को ही होगा ।
किंतु शासन प्रशासन में भी बङी भेदभावी मनोवृत्ति के लोग बैठे है 'स्त्री
बङे नगर में बहुमंजिला इमारत की मजदूर तो हो सकती है ',किंतु
कॉन्ट्रेक्टर तब तक नहीं जब तक कि उच्च शिक्षित और बङी मजबूत बैकग्राऊण्ड
वाली फैमिली से ना हो ।ऐसी ही सोच के चलते 'स्त्रियों को रोज़गार देने की
जब नीतियाँ बनायीं जाती है तब उनको मजदूरी और मामूली आय के हुनर भर की
कमाई वाले कार्यों में खपाने की सोच लेकर योजनायें रखी जाती है ''ताकि वे
केवल अपने खुद के खर्च उठा सकें "जबकि आज हर तीसरे चौथे घर की स्त्री
घरेलू हिंसा की शिकार सिर्फ इसलिये बरसों तक होती रहती है कि वह अपना पेट
तो जैसे तैसे भर लेगी किंतु अपनी संतानों या बुजुर्गों सहित पूरे परिवार
का 'मकान कपङा भोजन दवाई पढ़ाई और आवागमन का व्यय कैसे उठाये?????
इसलिये क्या अब सही वक्त नहीं है कि एक स्त्री की "सामान्य शिक्षित या
अल्पशिक्षित या अनपढ़ होने पर भी "वह कम से कम पाँच लोगों का पूरा व्यय
उठा सके सामान्य घर भोजन पढ़ाई और आवागमन का ''इतनी तो आय़ के साधन संसाधन
और काम काज करने देने की सामाजिक समझ मानसिकता अनुकूल माहौल विकसित हो ही
जाना चाहिये!!!!!
©®सुधा राजे