Thursday 31 January 2019

कविता, ऐसे अनुसन्धान रचो

***मिली विरासत  श्रेष्ठ सभ्यता संस्कृति भारत की अनुपम
*****अब समाज के लिए नयी ,तकनीक नया विज्ञान रचो
**********मात्र मनोरंजन में कब तक ,डूब हुये रहोगे तुम
*****सकल विश्व को नवल प्राण दे  ,ऐसे  अनुसन्धान रचो
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उठो पेचकस, छैनी, कलम, हथौड़े, तूली ,तार  लिए
दूरबीन, कम्प्यूटर, नश्तर, कैंची सुइ,तलवार लिए
सूक्ष्मदर्शियों से भी आगे संरचना जगमग पालो
अखिल विश्व अब नहीं ,गगन गंगा से आगे पग डालो
मात्र देह सीमा में कब तक, ऊबे दमन सहोगे तुम
अखिल जगत को नवोत्थान   दे, चरैवेति अभियान रचो
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सकल विश्व को नवल प्राण दे, ऐसे अनुसन्धान रचो
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विश्व ग्राम हो चुका ध्वस्त हैं ,भेद पूर्व पश्चिम वाले
लिंग जाति भाषा मजहब के वर्ण भेद गोरे काले
निज का है संग्राम स्वयं के ही दौर्बल्य निराशा से
जननि जनक अभिभावक शिक्षक देश तके अभिलाषा से
क्षुद्र  नौकरी मात्र लक्ष्य को लेकर कहाँ बहोगे तुम
अविष्कार नयी कला ज्ञान दे  अमिट अटल  पहचान रचो
...............
सकल विश्व को नवल प्राण दे ऐसे अनुसन्धान रचो
...............
मादकता उन्मत्त मत्तता करना ही है तो ठानो
लक्ष्य सफलता पाना भी विरला ज़ुनून है पहचानो
अपने मन मस्तिष्क भाव पर हो स्वामित्व किसी का क्यों
रत्नागार विचार हृदय का चोरों को जा सौंपे ज्यों
विश्व राष्ट्र परिवार स्वयं की आहें लिए दहोगे तुम
मृत्यु जिन्हें अमरत्व दान दे, ऐसे वीर जवान रचो
......
......
हरियाली द्रुम खेत ग्राम ग्रामीण कृषक पशुधन जंगल
लोकबोलियाँ गीत कला संगीत अखाड़ों के दंगल
पूर्ण शक्ति भर यत्न करो सब बचें बढ़ें सम्मानित हों
ऊँचा रहे चरित्र, हृदय निष्पक्ष,दुष्ट अपमानित हों
भय निद्रा आहार वासना पशुवत् व्यर्थ गहोगे तुम
ध्वंस्त भस्म नित जन्म ठान दे  ऐसे आत्मोत्थान रचो
......
सकल विश्व को नवल प्राण दे, ऐसे  अनुसन्धान रचो
......
चारित्रिक दुर्बलता किंचित सधे कदम डगमगा सके
द्वेष ईर्ष्या अहंकार लोलुपता ना मन डिगा सके
परधन परदारा परनर पर लेशमात्र मनमोह न हो
कुल कुटुंब निज ग्राम राष्ट्र से रंच मात्र भी द्रोह न हो
चमक दमक नयी ठुमक ठान दे, नए विहान  संज्ञान रचो
......
सकल विश्व को नवल प्राण दे, ऐसे अनुसन्धान रचो








Sunday 27 January 2019

गजल, बस्ती से आतीं हैं सिसकतीं सर्द कराहें रात गए

जाने किस्से मिलने आतीं '
सर्द हवायें रात गये
बस्ती से आतीं हैं सिसकती
दर्द कराहें रात गये
दूर पहाङों के दामन में
छिपकर सूरज रोता है
वादी में जलतीं जब
दहशतग़र्द निग़ाहें रात गये
चाँद को लिख्खे चिट्ठी
ठंडी झील बरफ के
शोलों से
ख़ामोशी से कोहरे की
फैली जब बाँहे रात गये
परबत के नीचे तराई में
हरियाली की चादर पर
फूलों की कलियों की गूँजी
गुमसुम आहे रात गये
कितने आदमखोर मुसाफिर
रस्ते से गुजरे होंगे
मंज़िल तक जाने से डर गयीं
लंबी राहें रात गये
पेङ तबस्सुम नोंच के गये
नाजुक नन्ही बेलों के
आँसू धरती रोती शबनम
मौत की चाहें रात गये
प्यार वफ़ा के गाँव में
अमराई
पर लटकी लाश मिली
सुधा" मुहब्बत छोङ के चल
दी
पीपल छाँहे रात गये
©®¶©®¶SudhaRaje

Friday 25 January 2019

poem, ,,,The use of light, is lightning

The tree which does not bestow its fruits others rather them letting them rot........can not praise itself let alone praise itself by others.....
A lamp that lets dwindle away in a closed cell letting other stumble in the darkness.....will never commend itself let alone be commended by others.....
The art which doesn't bring life to creation and diminishes in self praise, inflated by meaningless flatter......will never do justice on to itself.
The might of a man will never be able to be admired by him if he failed to protect those weaker and in need.
The riches and means of a prosperous man are all for naught if they aren't put to use for fellow men in death, suffering and desolation.
The creation, prodigiousness and means in the world are meaningless if not used to ease the sufferings,  promote nourishment and be of service to life on earth.
(All rights reserved; compose and created  by ©®Sudha Raje

Monday 21 January 2019

कविता''कड़वे हैं अलफ़ाज

कड़वे हैं अल्फाज़ मगर है फर्ज़ और मक़सद सच्चे
"सुधा" मायने सुन्दर तो सख़्त बयानी मत देखो
जब तक लक्ष्य तुम्हारी नस नस का ज़ुनून ना बन जाए
बेचैनी रातों की नींदें दाना पानी मत देखो ,
जिनके भीतर आग नहीं है नया पृथक कुछ करने की
चलते फिरते मुरदे हैं बस, उम्रे-ज़वानी मत देखो
रस्ते का हर घाव तबस्सुम सा यादों में महकेगा
धूल किरकिरी ,ताने फिकरे आँख का पानी मत देखो
हैं कुछ जो ख़ामोशी से पूरा अंज़ाम बदलते हैं
शोर शराबा बहुत चीखती ग़लत ज़ुबानी मत देखो
समझ लिया है जिसने जग में सब कुछ ही क्षण भंगुर है
नश्वर है हर वस्तु गुज़र गई  कथा-कहानी मत देखो
©®सुधा राजे

Friday 11 January 2019

कविता, लहू माँगती फिर से धरती

Sudha Raje
लहू माँगती फिर से धरती
कौन कौन देगा बोलो
अपने अपने पुत्र सजाकर
भेजो
फिर ये मूँ  खोलो

भेजो कहकर बेटा जाकर
शीश शत्रु का ले आना
हो जाना कुरबान देश पर
पीठ दिखाकर मत आना
कटा शीश जब आये
सिरकटी काया तो तुम
मत रोना
घर में विधवा बहू देखकर
अपना धीरज मत खोना
कौन भरे प्रतिशोध लाल
का अब अपनी हिम्मत
तोलो
धरती फिर से लहू
माँगती कौन कौन
देगा बोलो
जाओ आज सीमा पर दुश्मन
खङा तुम्हे ललकार रहा
पीछे मुङकर मत देखो ये
उजङ चुका घरबार रहा
सत्ता पर बैठे जो कायर
उनकी गद्दी हिले डुले
ढेर करो हिम्मत दुश्मन की
अब जननी की कोख खिले
वीरों का वासन्त आ
चुका रिपु शोणित
होली खेलो
लहू माँगती है फिर
धरती अब कौन कौन
देगा बोलो
वीरबालको की थाली में
क्यों हो रूखी सी रोटी
अमर सुहागन
क्यों पहनेगी
फटी पुरानी सी धोती
वीरप्रसविनी क्यों रोयेगी
तन्हायी में
दर्दों से
वीरपिता की आँखें पूछे
सत्ता के नामर्दों से
पुरूष कहाँ पुरूषत्व गँवाया
माटी पूछे सुन तो लो
©®¶¶¶SUDHA RAJE
Sudha Raje
गरज रही दुश्मन की सेना
सीमा पर घुसपैठ बढ़े
घर गलियों में लाज लूटते
हैवानों से कौन लङै
आज
सिपाही की बेटी भी
गाँव गली में डरती क्यों
दुबक गये
क्यों कुरबानी सो
लाज लुटाये धरती क्यों
काटो शीश शत्रु
का बढ़कर
उठो अश्त्र शोणित
धोलो
लहू माँगती फिर धरती
अब कौन कौन देगा बोलो
जहर घोलने को पानी में
आतंकी आने वाले
रोको बन चट्टानें
सीने भर भर बारूदों थाले
तोङो
चीटों की कतार
सीमा पर
काली जला जला
हे नौजवान तुम छिपे कहाँ
घर बाहर आज काल मचला
भुजदंड उठा पाखंड
मिटा मिट्टी में रक्त रिपु
का घोलो
लहू माँगती है धरती
अब कौन कौन देगा बोलो
अय्याशी में डूबी संसद
लूटे जनधन अब जागो
भ्रष्ट विधायक ऐश करे
क्यों
चीखो अपना हक माँगो
डर कर गीले पीले होते
मंत्री मार भगाओ भी
खतरे में है देश साथियों
जागो जोश जगाओ भी
थर्रा जाये विश्व आक्रमण
करो
हिंद की जय बोलो
लहू माँगती है धरती
अब कौन कौन देगा बोलो
******-*************
माँग रही है वीर
प्रसविनी
हत्यारों का शीश
शत्रु गिराकर गया लाश
दो
जाओ गिरा दो बीस
©®¶\¶®©written by SUDHA
RAJR [bijnor)

कविता, जीवन का एक मकसद और खाली तरक़श

जीवन का एक मकसद होता है
आप अगर स्त्री हैं
आपको भी लगा होगा
कि एक मकसद सा कुछ था तो
जब आपको अहसास दिलाया जाता है
क्या तीर मार लिये????
तब
याद आता है
तीर तो मार ही लिये होते
लेकिन
जो तीरंदाज नही थे
उनके तरकश
भरने में
बीत जाने दिया
ये
एक सच
जिस दिन पता चलता है
कङकङ करके बहुत कुछ टूट जाता है
कोई जाग जाता है
कोई जानबूझकर
जी चुराता है
आज
सोने
से पहले
अपना खाली तरकश देखना
और
मुँह मत चुराना
तुम
अब भी
नये तीर बना सकती हो चला भी
©®¶©®SUDHA  RAJe

कविता, भेड़िये वाली आँखें

वो एक लङकी थी
खास लङकी

सुंदर और
तेज दिमाग लड़की

जिसके पास
एक अपनी ही नजर थी
हर चीज को देखने की

माँ के श्रद्धा
पिता के लिये सेवा
भाईयों  के लिये दुआयें

मेरे पास जब भी
आती
ढेर सारे सपने भर लाती

कभी टीचर कभी नर्स
कभी नन बनने की बाते करती
लेकिन

एक दिन उसका सिर
झुका हुआ था
पता चला उसकी

सहेली ने कुछ
ऐसा बताया
जो भयानक था

वो पापा जिसके
लिये वो सारी दुनिया से
जूझ जाती

वो पापा
जिसका सहारा प्यारा
बेटा बनना
चाहती

ये बात
सहेली ने
बरसों बाद बतायी
तब जब
वो पापा की
तारीफें कर रही थी

बच्ची प्यारी बच्ची
कहता पापा का
चेहरा उसे
खूनी भेङिये
सा लगा

और
उसने उस फिजूल
बेमेल
रिश्ते के लिये
हाँ कह दी

बहुत
बिलख कर
रोयी
मेरे सामने पढा
कुछ नही उस दिन
जैसे कोई मर गया
हो

उसकी
विदाई पर
रोते उसके पापा
को घृणा से देखा
और

बिना मिले
आगे बढ़ गयी माँ
का दिल  फट गया

लेकिन
उसकी आँखों में
उस रोज  आँसू नही
थे उसके सपने
जल गये थे

और उस आँच को
मैंने महसूस किया
जब वो
मेरे गले लगकर
भर्रा पङी

मेम मेम मेम
सब समझ रहे थे
गुरू शिष्या में जादा
प्यार है
©®SUDHARaje

कविता, बिटिया हरखू बाई की

Sudha Raje
geet
Sudha Raje
कैसे इतनी व्यथा सँभाले
बिटिया हरखूबाई की

अम्माँ मर गई परसों आ
गयी जिम्मेदारी भाई
की

कैसे इतनी व्यथा सँभाले
बिटिया हरखू बाई की

आठ बरस की उमर
अठासी के
बाबा
अंधी दादी

दो बहिनों की पर के
करदी बापू ने जबरन शादी

गोदी धर के भाई हिलक के
रोये याद में माई की

कैसे इतनी व्यथा सँभाले
बिटिया हरखू बाई की

चाचा पीके दारू करबै
हंगामा चाची रोबै

न्यारे हो गये ताऊ चचा सें
बापू बोलन नईं देबै

छोटी बहिना चार साल
की
उससे छोटी ढाई की

कैसे इतनी व्यथा सँभाले
बिटिया हरखूबाई की

भोर उठे अँगना बुहार कै
बाबा कहे बरौसी भर

पानी लातन नल से तके
परौसी देबै लालिच कर

समझ गयी औकात
लौंडिया जात ये पाई
पाई की

कैसे इतनी व्यथा सॅभाले
बिटिया हरखू बाई की

गोबर धऱ के घेर में
रोटी करती चूल्हे पै रोती

नन्ही बहिन उठा रई
बाशन
रगङ राख से वो धोती

बापू गये मजूरी कह गये
सिल दै खोब
रजाई की

कैसे इतनी व्यथा सँभाले
बिटिया हरखू बाई की

भैया के काजैं अम्माँ ने
कित्ती ताबीजें बाँधी

बाबा बंगाली की बूटी
मुल्लन की पुङियाँ राँधी

सुनते ही खुश हो गयी
मरतन ""बेटा ""बोली दाई
की

कैसे इतनी व्यथा सँभाले
बिटिया हरखू बाई की

जा रई थी इसकूल रोक दई
पाटिक्का रस्सी छूटे

दिन भर घिसे बुरूश
की डंडी
बहिनन सँग मूँजी कूटे

दारू पी पी बापू रोबै
कोली भरैं दुताई की

बाबा टटो टटो के माँगे
नरम चपाती दादी गुङ

झल्ला बापू चार सुनाबै
चाची चुपके केबै पढ़ लै पढ़

छोटी बहिन
पूछबै काँ गई
माई रोये हिलकाई की

कैसैं इत्ती विथा सँमारै
बिटिया हरखू बाई की
©®¶¶©®¶

.....................

सुधा राजे
दतिया म.प्र.
.................

कविता, वन्देमातरम् बोल

Sudha Raje©®
दुश्मन की ललकार मिटा दे
भुनगों की गुंजार मिटा दो।
तिनकों की दीवार मिटा दे ।
उठा उठा तूफान
बाजुओं
क़दमों से भूडोल ।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल ।
बोल बोल जयहिन्द -
हिन्द की सेना की जय बोल । वन्दे
मातरम् बोल ।
उठो तिरंगा झुक ना जाये
उठो ये गंगा रुक ना जाये
उठो कि बच्चे चिंहुँक ना जाये । भून भून
दो कीट पतिंगे । तोपों के मुँह खोल
वन्दे मातरम् बोल वन्देमातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल ।
बोल बोल जयहिन्द हिन्द
की सेना की जय बोल ।
©®Sudha Raje
है कश्मीर
हमारी क्यारी काटो जो करते
ग़द्दारी। शौर्य देख ले दुनियाँ सारी।
सीमा पर दुश्मन की लाशें बिछा बदल
भूगोल ।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
बोल बोल जयहिन्द
हिन्द की सेना की जय बोल ।
सबसे पहले देश का नारा
जय विज्ञान किसान हमारा।
हर सीने पर लिखे तिरंगा हर जवान
अनमोल।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
बोल बोल जयहिन्द!!!!!!!!!!!!
हिन्द की सेना की जय बोल वन्दे मातरम्
बोल ।
मानचित्र नयी सीमा खींचों दुश्मन के
लोहू से सींचों । नमक चुकाओ आँख न
मींचों मज़हब भाषा जात भूल
कर मिलो आज़ जी खोल ।
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
बोल बोल जयहिन्द!!!!!!!!
हिन्द की सेना की जय बोल!!!
छोङो छोङो अब रंगीनी । दुश्मन ने
कमज़ोरी चीन्ही। है नापाक़ इरादे
ख़ूनी। संगीनों की नोंक पे रख दो ।
सबकी साज़िश तोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम् बोल
वन्दे मातरम बोल
वन्दे मातरम बोल
बोल बोल जय हिन्द!!!
हिन्द की सेना की जय बोल वन्दे मातरम्
बोल
Jai hind!!!!
Written by Sudha Raje
©®
सुधा राजे
Dta-Bjnr
जयभारत
Sudha Raje
सादर सस्नेह साभार जयहिंद

कविता, रो पड़ी जैसे बिलखकर

Sudha Raje
रो पङी जैसे सिसक कर
गुनगुनाती ज़िंदगी
आज फिर रोयी बिलख कर
दूर जाती जिंदगी
मुङके देखा उस नजर से दूर तक वीरान सी
तीर सी रह गयी चुभोती
सनसनाती जिंदगी
बोझ सी लेकर चली इक साँस आयी इक गयी
जश्न दर्दो का छिपाये गम मनाती ज़िदगी
चुप रही कुछ भी न बोली
पी गयी कुछ कह गयी
आँसुओं के राग पे बस
झनझनाती ज़िदगी
हम सुधा रो भी न पाये
औऱ गाते भी तो क्या
देखते रह गये बिखऱकर
पार जाती ज़िदगी
©®¶¶©®SUDHA RAJE