Saturday 18 October 2014

सुधा राजे का लेख :- ""सुहाग की अवधारणा और भारतीय स्त्री।"

सुहाग की अवधारणा और भारतीय स्त्री '
★सुधा राजे ★का लेख ''कॉलम "स्त्री के लिये "
"""""""
एक नर और मादा जीव युवा होने पर दैहिक रासायनिक तत्वों की क्रिया
प्रतिक्रिया से परस्पर आकर्षित होकर जोङा बनाते सेक्स करते और बच्चे पैदा
करके 'पालते 'और मर जाते है परिवार में सहयोग सहजीवन के साथ, 'इतनी सी
कहानी है विवाह की ।किंतु भारतीय विवाह "दैहिक या प्रजनन की बजाय दैवीय
और परलोक तक की अवधारणाओं से जोङे जाकर सेक्स पार्टनर या बच्चों का
जन्मना मात्र नहीं है । ये न सतयुग त्रेता द्वापर है न ही सती का युग ।
फिर भी आज भी ऐसी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने विवाह 'जहाँ पिता भाई चाचा ने
कर दिया चलीं गयीं ',वहाँ पहले दूसरे दिन हफ्ते या साल बीतते बीतते जान
गयीं कि धोखा हुआ है और पति नामक प्राणी 'वैसा नहीं न ससुराल वाले जैसे
बताये गये 'फिर भी ',सोच लेतीं है, संस्कार ही ऐसे हैं कि अब जो हो गया
सो हो गया 'विवाह 'तो बस एक बार ही होता है दोबारा नहीं अब यही तकदीर है
।वे लौटने की बज़ाय निभाकर जगह बनाने और सब कुछ ठीक करने की कोशिश में
जुट जातीं हैं । परंतु अपवादों को छोङ दें तो बहुत कम मामलों में बदलती
है तकदीर ',ऐसी शादियाँ एक "रस्म "वचन और संस्कारों की लाश बनकर रह जाती
है ।
कहीं शिक्षा दीक्षा का धोखा कहीं हैसियत और घर खेत स्थायी संपत्ति की
झूठी बातों का धोखा, कहीं कमाई वेतनमान आय को लेकर बोले गये झूठ 'तो कहीं
आयु और कभी कभी जाति बिरादरी धर्म तक के धोखे, 'फिर भी, वही की वही
अवधारणा, '
"""अब तो जो जैसा होना था सो वैसा तकदीर के लिखे मुताबिक़ हो ही गया विवाह ""
अब क्या हो सकता है, अब जैसा भी है जो भी है "यही "वर है पति है संसार का
भाग्येश है,और यही है ""सुहाग""।
जिस सौभाग्य को पति के प्रेम गलबहियाँ सहजीवन दैहिक संबंध मानसिक समाधान
सहयोग समर्थन आस्था निष्ठा विश्वास 'रति प्रणय श्रंगार से जोङकर देखा
जाता है, वही ""सुहाग """?
इस तरह की धोखा खायी छली गयी ठगी गयी स्त्रियों के लिये ''केवल पति का
जीवित होना बनकर रह जाता है ।
न पति साथ सोता खाता पीता बोलता बैठता घूमने जाता है न ही बहुत बात चीत
किसी मुद्दे पर होती है 'फिर भी '""सुहागिन ""है और इतना उस कमनसीब
भारतीय स्त्री के लिये पर्याप्त होता है ।
वह पति का घर साफ करती है ।पति के माता पिता भाई बहिनों के प्रति सारे
दायित्व निभाती है और चाहे निःसंतान रहे या किसी बच्चे को गोद ले या
'किसी तकनीक से पति के अंशबीज से या नयी पुरानी तकनीक से 'क्षेत्रज
'बच्चे जन्म दे, परंतु वह '''''सुहागिन """बनी रहती है ',बिन पति की
प्यारी प्रणयिनी और शैया शायिनी हुये ही वह "सिंदूर बिंदी चूङी बिछुये
मंगलसूत्र पहने ""स्वयं को सुहागिन बनाये रखने के लिये तीज वट सावित्री
करवाचौथ आदि अनेक कठोर व्रत करती है ।जबकि पति न तो चूङी बिंदी सिंदूर
बिछुये लौंग साङी खरीद कर देता है न ही अपेक्षा होती है कि वह ठीक समय पर
दल अन्न तक ""व्रत खोलने को अपने हाथ से दे देगा।
एक आधुनिक दिखने वाली उच्चशिक्षित सक्षम स्त्री जिसकी बाहरी समाज में
अपनी स्वतंत्र पहचान है और लोग यकीन ही नहीं कर सकते कि वह स्त्री जो
अनेक मुद्दों पर बेहद मजबूत नज़र आती है उसकी अपनी भावनायें संस्कार
मान्यतायें और व्यक्तिगत जीवन इतना दुःखपूर्ण भी हो सकता है कि वह जिस
"सुहाग "के लिये वर्ष भर एक के बाद एक कठिन व्रतोपवास करती और घर सँवारती
बच्चे पालती 'कमाकर घर चलाती और पति की हर जरूरत का ध्यान रखती है वास्तव
में इतनी अकिंचन है कि 'चंद्रोदय के बाद पति के हाथ से दो घूँट जल और एक
ग्रास अन्न तक माँग नहीं सकती न ही वह स्वप्रेरणा से देने वाला है "चुपके
से पति को देख लिया आरती कर ली और तसवीर मंदिर में पूजकर 'सुहाग 'के अचल
अखंड अनंत अमर होने का वरदान माँग कर पति की जूठी थाली में से एक कौर खा
लिया 'एक घूँट पी लिया ', ।
आधुनिक नारीवाद के सब विचार अपनी जगह 'और 'सुहागवादी अवधारणा अपनी जगह '।
विचित्र है संस्कृति जिसमें वही स्त्री, शब्द अपशब्द पर झगङती नजर आती है
'यदि विवाह के प्रारंभिक वर्षों के 'फल स्वरूप संताने हो गयीं तो, या
नहीं हुयी संतान तो भी, 'वही स्त्री उसी पति से झगङती या मौन साधे अनबोल
रखती असंपृक्त असंबंधित असंलग्न पृथक होकर उसी पति के घर रहती या कई
मामलों में अलग घर नगर रहती भी '''सुहाग ''की कामना करती है प्रकट रूप
में पति से जूझती लङती या नाराज बोलचाल बंद किये नज़र आती स्त्री हर पल
मन ही मन 'पति की अच्छी स्हत रहे 'पति की अच्छी कमाई प्रतिष्ठा और हर शुभ
कार्य में विजय रहे, आयु लंबी शताधिक हो कीर्ति अखंड हो """""आदि तरह तरह
की कामनायें अपनी प्रार्थनाओं में करती है।
उसके जीवन में पुरुष तत्व का सर्वथा अभाव है और वह स्वयंसिद्धा स्वयं का
पुरुष होकर भी अपने संस्कार नहीं छोङ पाती ।
न तो कभी कोई पास पङौसी जान पाता है न कभी कोई, नाते रिश्तेदार सखी सहेली
बहिन माता या भाभी 'और देवरानी जेठानी, न ही स्वयं पति ही अकसर समझ पाता
है कि 'जिस स्त्री को वह एक डिब्बी सिंदूर तक खरीद कर नहीं देता, 'वह
अपनी कमाई से मंदिर के बाहर से बिंदी सिंदूर लेकर "सुहाग "धारण करती है
और कपङे अपने खुद बनाती या खरीदती है 'अपनी कमाई पति की घर गृहस्थी में
लगा देती है, फिर भी '"सुहागिन कहती कहलाती है खुद को वह जिसे 'न तो
कुँवारी के अधिकार प्राप्त कल्पित सपनों के 'न समाज विधवा की सहानुभूति
दया दे सकता है ',न वह सुहागिन के सौभाग्य की तरह हर बार सुख दुख में
अपने पीछे पति को खङा पाती है ।
ये स्वाभिमानी समवयंसिद्धा स्त्रियाँ ऐसा जीवन अंगारों पर चलकर विवाह
निभाती हुयी क्यों जीती है? वे चाहें तो उनके हर कष्ट का पल भर में समापन
और उनपर अत्याचार करने वाले पति और ससुराल वालों को तुरंत दंड मिल सकता
है ।वे नया परिवार बसा सकतीं हैं ।परंतु वे खयालों सपनों और कल्पना तक
में ऐसा करना नहीं चाहतीं ।क्यों? कौन सा भय है उनको? बदनामी या नेकनामी
का सवाल तो ऐसी स्त्रियों से पृथक है क्योंकि "पतिप्रिया "नगीं होने से
आसपास की सचमुच भाग्यवान पतिप्रियायें उसकी किंचित हँसी उङातीं ही हैं ।
सुहाग में वैराग का ये भारतीय 'जीवन केवल भारत में ही संभव है ।हम ऐसी
कुछ स्त्रियों को जानते है 'अपने हाथ पर रखे आँवले की तरह 'और आपके परिचय
के दायरे में भी हो सकता है ऐसी 'सुहागिनें "हो सकतीं है ।क्या वे यश के
लिये अपना यौवन बिता देती है तनहाई में, क्या पति के ज़ुल्म उपेक्षा अभाव
सहकर वे कोई नोबेल पपरस्कार जीतेगी? या उनको कहीं समाज बहुत सम्मान मान
देने वाला है? कुछ भी तो नहीं!!!!
बल्कि होता ये है कि बच्चे अगर हैं तो 'धीरे धीरे पहले पिता से नफरत करने
लगते हैं बाद में माँ की उपेक्षा और अंत में वह 'पुनः एक नाउम्मीदी का
शिकार होतीं है जब जीवन बीत जाता है और यादों में रह जाती है सूनी रातें
उदास दिन कर्कश शब्द तीखे ताने भीगे तकिये और हाहाकार करती दुखती काया '।
क्यों करतीं है ऐसा न करें न!!!!!
मूर्खता है ये!!
आत्महनन है ये
अंधविश्वास और संस्कारों की जकङन है ये,
ऐसा "पवित्रता "सतीत्व और एकपुरुष वादी 'ऑर्थोडॉक्स विचारों की वजह से होता है ।
आज रॉकेट युग है 'सती 'युग नहीं ।
आप नहीं समझा सकते उनको । वे आपके साथ हर टॉपिक पर बहस कर लेगीं संभव हुआ
तो चाँद पर भी चलीं जायॆंगी, रॉकेट उङा लेगीं किंतु ''सुहागवादी
""अवधारणा से बाहर नहीं निकलना चाहतीं ।
आस्था या निष्ठा ने उनको दिया क्या?
कोई भी पूछ सकता है 'किंतु क्या ये सब कुछ पाने के लिये होता है???
भारतीय विवाह की नींव में ''कम या अधिक इसी ""सुहागवादी ''अवधारणा का ईंट
गारा चूना पत्थर सीमेन्ट लगा हुआ है ।
ये पीढ़ी दर पीढ़ी "व्यवहार से ही एक स्त्री दूसरी को सिखा डालती है ।
घरेलू हिंसा औऱ स्त्री शोषण के पीछे भी
यही ""सुहागवादी "अवधारणा जकङी रहती है ।जिससे धीरे धीरे अत्याधुनिक नई
पीढ़ी भारमुक्त हो रही है।
न तो कोई थोपता है न विवश करता है न ही आशा अपेक्षा से कोई स्त्री जानबूझ
कर ऐसे जीवन को चुनती है ',।ये देन है हालातों की फल है परवरिश और अध्ययन
का और चाहो भी तो इन कङियों को 'तोङना आसान नहीं '
एक विवाह की नींव कमज़ोर या पुख्ता इस पर नहीं कि पुरुष क्या कमाता या
लङकी पर कितने गहने कपङे पाती है, 'वचन जिनको न स्त्री याद रख पाती है न
पुरुष 'याद रहती है तो ""सुहाग की अवधारणा ।
ये सुहाग पति का शरीर नहीं 'पति का घर नहीं 'स्त्री का विवाह होना न होना
तक कई मामलों में नहीं 'बस एक विचार एक अहसास एक 'अमूर्त सोच है ।बूढ़ी
पुरानी औरतें जल्दी जल्दी चूङी बिंदी बिछुये बदलने को मना करतीं है
।कहतीं है जगतमाई ने सबको नाप तौल कर दिया है सुहाग सो घोल पीस कर पहनो
'मतलब जब तक चले तब तक पहनो नया तब ही लेना जब पुराने की अवस्था न रहे
'बच्चे जन्म या परिवार में सगोत्र की मृत्यु पर ही नयी चूङियाँ बदलने का
विधान बताती है वरना 'चूङी तब तक पहनो जब तक चले ।
""""आधुनिक उपयोगितावाद बाज़ारवाद ने 'फैशन का रूप कितना ही दे दिया हो
फिर भी 'सुहागवाद 'इन चमकतीं चीजों के भीतर कहीं गहरे बैठा है "अपर्णा
"बनकर '।
इसे समझने के लिये स्त्री होना पङता है 'कदाचित ही कोई पुरुष इसे समझ सके
',निभाना तो स्त्री को ही पङता है, लाख कानून बन जाये और हजार आधुनिकीकरण
हो जाये 'किंतु सुहागवाद कहता है ''फटे को सिला नहीं रूठे को मनाया नहीं
मैले को धोया नहीं तो 'गृहिणी स्त्री का जन्म बेकार ही गया ।
कहाँ कहाँ ये च्यवन की सुकन्यायें तुलसी की रत्नावलियाँ और यशोधरायें
जसोदायें 'है उनके सिवा कदाचित ही कोई जान सके और जाने भी क्यों उनका
जीवन उन्हे जीने दो ये वे चितायें हैं जो ज़िंदा जलती है हर रोज और शांत
होने पर कोई शोर नहीं होता कहीं 'न फूल चढ़ते है ।
©®सुधा राजे


Thursday 16 October 2014

सुधा राजे का लेख :- " पुनर्दास भव"।

टाई '
एक व्यर्थ चीज है ।
न तो बदन ढँकती है ।
न ही मुँह पोंछ सकते हैं न हाथ पाँव न
ही कुछ बाँध सकते हैं न ही लाज ढँक
सकती है 'न ही सरदी गरमी बरसात के
संरक्षण से ही इसका कुछ लेना देना ।
हालांकि प्रोफेशन की विवशता और
स्कूल की अनिवार्यतावश हमें
भी पहननी पङती रही ',
किंतु हर बार जब भारतीय दुपट्टे अँगोछे
'पिछौरे 'शॉल 'गुलूबंद 'से
तुलना की तो टाई '
सिवा एक """"अंग्रेज मानसिक
दासता '''''की निशानी के कुछ
भी नहीं लगी ।
इतना ही नहीं ये टाई जिसकी 'नॉट
'इस तरह की लगती है
जो जरा सा ही पिछला सिरा खीचों तो 'पहनने
'वाले की ज़ान ले
लो 'फाँसी का लटकता नमूना ।
और क्राईम के अनेक मामलों में
यही पाया भी गया कि 'टाई से
गला घोंटकर मार डाला, या टाई से
हाथ पाँव बाँध कर डाल दिया 'या टाई
से लटका कर छोङ गये ',
क्योंकि एक आदर्श टाई 'व्यक्ति की कद
के लंबाई की ही होती है, '
मँहगी इतनी कि एक टाई की कीमत में
एक 'ग्रामीण की पूरी पोशाक
या बिस्तर आ जाये!!!!!
सिलाई का ढंग कटाई
का सलीक़ा इतना बेहूदा कि 'टाई
निकालने के बाद थान के थान कतरन
बचती है ',
इसके विपरीत एक ढाई मीटर
का दुपट्टा या अँगोछा 'हज़ारों काम
का '
पहन लो 'कपङे बदल लो 'सामान बाँध
लो 'बच्चा पीठ पर बाँध
लो 'गाङी टो करने को रस्सी ' शिशु
का झूला '
जरूरत पर चादर ओढ़ कर सो जाओ और
मजबूरी में कछोटा पहन कर लाज ढंक
लो 'सिर पर बाँधो तो धूप सरदी बचे
'कमर में कस लो तो 'लङने मेहनत करने में
पेट न हिलने दे ।
हथकङी बना दो तो चोर बाँध
लो मरना मारना हो तो ऐंठ कर
कोङा बना दो 'ढोर की रस्सी और
'सुसाईड करनी हो तो भी हर वक्त
हाजिर '
छाया देनी हो तो चार कोने तानकर
बच्चा सुला दो 'परदा तो है ही ।मुँह
छुपाना हो तो देखते भी रहो दिखने न
दो '
खिङकी तोङनी हो तो गीला करके
गिरहबाँध ऐंठ कर तोङ दो '
पुराना हो जाये तो रूमाल पोंछे
बना लो ।
कीमत '
?एक टाई के बदले एक दरजन अँगोछे
दुपट्टे '
कब
मानव होकर हम अनुपयोगी आडंबरों से
मुक्त होंगे?
©®सुधा राजे
लेखमाला क्रमशः ''पुनर्दासभव "


सुधा राजे का लेख :- " चिंता और चिंतन।"

अतृप्त वासना और धनेच्छा
किसी भी परिवार, व्यक्ति,
दंपत्ति और समाज को घुन की तरह
खा जाती है ।
व्यक्ति 'दबाता रहता है
दबाता रहता है दबते दबते एक बिन्दु
चरम गर्त का आकर ठहर जाता है दमन,
'वहाँ से 'जिन इच्छाओं
को दबाया जा रहा है वे भी भौतिक
पदार्थ की तरह, विकृत होकर खंडित
और पिसकर अन्य पदार्थ में बदलने
लगती हैं ।
कलह के मूल कारण यदि खोजें
तो "वासना ''और धनेच्छा ''
कहीं न कहीं रहती ही है,
यूँ नहीं मनीषियों ने कहाँ है कि "मैले
पदार्थ को धोना मैले पदार्थ से संभव
नहीं 'स्वच्छ पदार्थ से ही मैला पदार्थ
धुलता है ।
तो वे सब भावनायें जो जो "आहत "हैं
उनके मूल में जाकर देखें कि, शिक़ायत किस
किस बात की है? और तब जब मन में
क्रोध शिकायत या दुख उत्पन्न हुआ तब
"कारण "कोई
नयी पुरानी इच्छा 'वञ्चना या अभाव
'ही रहा होगा ।
एक प्रेयसी अँगूठी सस्ती होने पर इस
तरह रूठी कि बोलचाल बंद
हो गयी "प्रेम है दावा है किंतु
बातचीत बंद "
पति नाराज
क्योंकि थकी हारी पत्नी करवट बदल
कर सो गयी और पति की इच्छायें
अधूरी रह गयीं, 'प्रारंभ में दोस्ती,
प्रेम, दांपत्य या, सौहार्द्र के
किसी भी नाते में 'संकोच रहता है, दूसरे
को खुश करने और अपना प्रभाव बढ़ाकर
दिल जीतने का, अंतर्निहित प्रेरक
तत्त्व रहता है, किंतु लंबी नातेदारी में
अंततः संकोच कब तक, और जब ये बातें
सामने खुल रर कही सुनी कटाक्ष में
'प्रक्षेपित की जाने लगती हैं तब '
आक्रोश य़ा क्षोभ पैदा होता है और,
कहीं विनाश तो कहीं सृजन ',
किंतु 'न तो हर कोई कालिदास
मीरा तुलसीदास ध्रुव और च्यवन बन
पाता है न ही 'यही समझ पाता है
कि "उसके नातों में घुली कङवाहट प्रेम
से घृणा में बदलते जाने की मूल वजह
''इच्छा लोभ वासना मोह और
अपेक्षा है, '
वरना वह 'व्यक्ति न बुरा है न
ही घृणा या दंड के लायक अपितु
यदि अपनी वासना और धनलोभ पर
नियंत्रण रखा जा सके तो, भरभराकर
गिर पङे हर
नफरत की दीवार ',
©®सुधा राजे
अपने ब्लॉग से ''wILD SONG ''''''''
Goodnight FRNZ
शुभरात्रि
©®सुधा राजे।



सुधा राजे का लेख :- " पुनर्दास भव"।

अतृप्त वासना और धनेच्छा
किसी भी परिवार, व्यक्ति,
दंपत्ति और समाज को घुन की तरह
खा जाती है ।
व्यक्ति 'दबाता रहता है
दबाता रहता है दबते दबते एक बिन्दु
चरम गर्त का आकर ठहर जाता है दमन,
'वहाँ से 'जिन इच्छाओं
को दबाया जा रहा है वे भी भौतिक
पदार्थ की तरह, विकृत होकर खंडित
और पिसकर अन्य पदार्थ में बदलने
लगती हैं ।
कलह के मूल कारण यदि खोजें
तो "वासना ''और धनेच्छा ''
कहीं न कहीं रहती ही है,
यूँ नहीं मनीषियों ने कहाँ है कि "मैले
पदार्थ को धोना मैले पदार्थ से संभव
नहीं 'स्वच्छ पदार्थ से ही मैला पदार्थ
धुलता है ।
तो वे सब भावनायें जो जो "आहत "हैं
उनके मूल में जाकर देखें कि, शिक़ायत किस
किस बात की है? और तब जब मन में
क्रोध शिकायत या दुख उत्पन्न हुआ तब
"कारण "कोई
नयी पुरानी इच्छा 'वञ्चना या अभाव
'ही रहा होगा ।
एक प्रेयसी अँगूठी सस्ती होने पर इस
तरह रूठी कि बोलचाल बंद
हो गयी "प्रेम है दावा है किंतु
बातचीत बंद "
पति नाराज
क्योंकि थकी हारी पत्नी करवट बदल
कर सो गयी और पति की इच्छायें
अधूरी रह गयीं, 'प्रारंभ में दोस्ती,
प्रेम, दांपत्य या, सौहार्द्र के
किसी भी नाते में 'संकोच रहता है, दूसरे
को खुश करने और अपना प्रभाव बढ़ाकर
दिल जीतने का, अंतर्निहित प्रेरक
तत्त्व रहता है, किंतु लंबी नातेदारी में
अंततः संकोच कब तक, और जब ये बातें
सामने खुल रर कही सुनी कटाक्ष में
'प्रक्षेपित की जाने लगती हैं तब '
आक्रोश य़ा क्षोभ पैदा होता है और,
कहीं विनाश तो कहीं सृजन ',
किंतु 'न तो हर कोई कालिदास
मीरा तुलसीदास ध्रुव और च्यवन बन
पाता है न ही 'यही समझ पाता है
कि "उसके नातों में घुली कङवाहट प्रेम
से घृणा में बदलते जाने की मूल वजह
''इच्छा लोभ वासना मोह और
अपेक्षा है, '
वरना वह 'व्यक्ति न बुरा है न
ही घृणा या दंड के लायक अपितु
यदि अपनी वासना और धनलोभ पर
नियंत्रण रखा जा सके तो, भरभराकर
गिर पङे हर
नफरत की दीवार ',
©®सुधा राजे
अपने ब्लॉग से ''wILD SONG ''''''''
Goodnight FRNZ
शुभरात्रि
©®सुधा राजे।



Tuesday 14 October 2014

सुधा राजे का लेख :- बच्चे " अथ बाल-पाठशालायन"

बच्चे और स्कूल ',एक
नयी श्रंखला 'लेखमाला के अंश
""""""""""""
""""सफेद जूते क्यों?
क्यों सफेद यूनिफॉर्म?
यदि काले जूते ही पूरे छह दिन स्कूल
पहने जायें तो हर साल तीन
जोङी सफेद जूते और मोजे ना खरीदने
पङें माता पिता को ।
क्योंकि, 'ये सफेद जूते महीने में केवल
दो या तीन बार पहने जाते है
',सेकेण्ड सटरडे की छुट्टी होती है ',
और किसी शनिवार को ''राष्ट्रीय
छुट्टी या प्रादेशिक
छुट्टी या स्थानीय अवकाश पङ
गया तो 'रह बस '।
काले जूतों को ही हर दिन
की यूनिफॉर्म बना दें न!!!
बजट भी खराब न होगा और व्यर्थ
पङे पङे छोटे हो हो कर फिंकते
जूतों की बरबादी रुकेगी ।
इसी तरह हर शनिवार सफेद
यूनिफॉर्म भी एक
"चोंचला ढकोसला शो दिखावा है
"बस ।
अतिरिक्त आर्थिक बोझ और क्या, बे
वजह 'नील टिनोपाल ब्लीच 'लगाते
इस्तरी करते 'माँयें हलकान 'और,
महीने में केवल एक या दो या हद्द से
हद्द तीन बार पहनने को ',बोझ ।
ऊपर से शनिवार को ही गेम्स क्लासेस
'ताकि सफेद कपङों की जमकर
सफेदी को बिगाङा जाये ।
कारण 'है 'क्रिश्चियन धार्मिक
प्रथा जब 'सॅटरडे 'पूजा का चर्च
का दिन हुआ करता था ।पूजा के लिये
चर्च सफेद कपङों में
जाया जाता था और वे कपङे विशेष
तौर पर साफ करके घरों में अलग रख
दिये जाते थे ।
आज स्वतंत्र भारत में गरीब मध्यम
वर्गीय परिवारों की आधी कमाई ऐसे
फालतू के ढकोसलों में
जाया हो जाती है ।
बजाय इसके बच्चों को हर शनिवार
''स्पोर्टवीयर पहन कर खेलने
को आधादिन दें तो बच्चे भी खुश और
अभिभावक भी ।क्रमशः जारी
©®सुधा राजे बच्चे और स्कूल ',एक
नयी श्रंखला 'लेखमाला के अंश
"""""""""


Saturday 11 October 2014

सुधा राजे का शब्दचित्र -"" छलनी - छलनी चाँद"""

मुझे अच्छा लगता है ज़मीन से चाँद
को देखना ',
तब से जब से कोई नहीं था उस चाँद और
मेरी टकटकी लगी दो आँखों के बीच '
चाँदी की कटोरी में खीर और
चाँदी की थाली में पेङे नारियल पूङे
खङपुरी बताशे दूध और परमल के साथ
चौमुख दीप बाती से सजी थाली से चाँद
देखने की बेला से पहले से ही चंद्रमा के
अमृत से शीतल खीर सदा से ही चुन चुन
कर काजू बादाम चम्मच में भरकर
खाना ',तब से जब से कोई
नहीं था मेरी खीर की कटोरी और
चम्मच के मेरे मुँह तक बिना झिझके चलते
रहने के बीच ',
कभी अधीरता नहीं आई न
कभी चंद्रमा की प्रतीक्षा लंबी लगी ',कदाचित
विचित्र ही हूँ मैं और चित्र के सिवा कुछ
नहीं मेरे लिये ये सारी सृष्टि ',फिर मेरे
और चंद्रमा के निहारने के बीच एक
चेहरा आ
गया 'तुम्हारा 'अजनबी अपरिचित
सर्वथा अलग ',मेरी हर बात से, चाँद
तुम्हारा हो गया और
निहारना भी 'मेरा न रहा, न
रही खीर पर पहली कटोरी का अमृत
मेरा वह भी तुम्हारा हो गया और सारे
बादाम काजू भी चुनकर स्वमेव
स्वचालित हाथों ने अपनी प्याली से
निकाल कर दूसरी कटोरी में रखते
जाना सीख लिया ',कल्पनाओं के
पारदर्शी सफेद चित्र 'लाल
गुलाबी पीले इंद्रधनुषी होते होते रह
गये 'पीला चाँद पूरा होते होते
तुम्हारा हो गया और मेरे हिस्से में आ
गया अनंत तारे 'निहारने का हक 'और
'कदमों की चाप पर
दिनचर्या को चलाने की अभ्यस्त आँखें मन
के भीतर से गंध शब्द रंग स्पर्श आभास
की सब परिकल्पनायें 'आकार लेते लेते रह
गयीं 'चाँद ज़मीन पर नहीं आ सकता 'मैं
पहाङ को सामने से नहीं हटा सकती 'छत
पर चढ़कर चाँद देखना मुझे पसंद नहीं '
हो तो हो क्या इसीलिये मेरे हिस्से
का चंद्रमा सदा ही दो घंटे चार
घङी देर से ही निकलता रहा है ',मुझे
मालूम है चांद कभी धरती पर
नहीं आयेगा वह एक उपग्रह है और
वहाँ जाना मेरे वश में नहीं ',मैं चांद
को निहारने से पहले एक
जलता दिया एक छलनी सदा लिये
रही हाथ में और तारों को निहारने से
पहले 'धुँधली डबडबायी बूँदे आँखों और
तारों की गिनती के बीच आतीं रहीं 'तुम
'इसी तरह मेरे और चांद तारों के बीच
आते रहो, हँसते, हुये 'इसीलिये तो चाहे
परिकल्पित ही सही 'चंद्रशेखर अमृतेश
और सुधाकर की कल्पना करके विध्नेश के
निराकार रूप को 'तुम्हारे पीछे
खङा करके अपनी साँसों का बँटवारा कर
लेती हूँ हर साल हर वर्ष, बस
उतनी ही साँस जब तू है पास 'ये मंत्र न
सही न सही विधिवत प्रार्थना न
सही तुम्हारा इन सब बातों में यकीन
और भले ही मैं चाहूँ कि आने
वाली पीढ़ी की कोई लङकी 'जब तक
चाहे तब तक चाँद निहार सके,
बिना किसी छलनी दिये और
धूपबत्ती कपूर के 'न जल छोङे न अन्न,
किंतु मैं कैसे छोङ सकती हूँ ये सब तुम न
चाहो तब भी 'ये
मेरा अपना ही तो वचन है
अपनी ही तो प्रतिज्ञा और
अपना ही तो संकल्प ',न सही तुम
परमात्मा न सही तुम परमेश्वर ढेर
सारी शिक़ायते तुम्हें मुझसे है और
मेरी बस एक 'काश कि तुम मुझे समझ पाते
'न मुझमें कोई सुधार आने वाला है न तुम
कभी मुझे समझ सकोगे ',मेरा परमेश्वर
निराकार ही रहेगा 'और
रहेगा अनादि अनंत विराट्
ही मेरा दाता फिर भी न आसक्ति न न
मोह न क्रोध न लोभ ' न जाने किस
अजीब सी भावना से भरी में बिना कोई
विशेष श्रंगार सजाये
बिना किसी प्रकार का आडंबर धरे
'अनंत ईश्वर से हर बार
यही कहती रहूँगी 'मुझे वे सब साँसें
नहीं देना, ताकि में पहले यह
दुनियाँ छोङ सकूँ तुम्हारे सामने
ही 'हो तो अच्छा नहीं तो कहीं भी 'वहाँ जहाँ ये
पता चलता रहे तुम सुखी हो खुश
हो स्वस्थ हो और मेरे बिना भी तुम्हें
कोई तकलीफ नहीं । जीवन
जैसा चाहा था वैसा नहीं रहा, हम
भी जैसा तुमने चाहा वैसे नहीं रहे ',न तुम
वह हो जैसा मैंने अनुमान
लगाया था ',तुम्हारे पास ध्वनियाँ है
शब्द हैं और हैं अधिकार सारे ',मेरे पास
प्रार्थनायें हैं दुआयें हैं, मौन है और हैं
कर्त्तव्य अनंत ',कुछ हो न हो मेरे बाद
भी ये चंद्रमा तो निकलेगा ही ',याद
रह सके तो कहना चाहती हूँ देखना और
सोचना कि अब 'तुम्हें चांद
ज़मीन से देखने की जरूरत नहीं 'तुम छत
पर जाकर चांद देख सकते
हो ',बिना किसी, दीपक
छलनी धूपबत्ती और कलश करवा कटार के
',जिससे नजर हर बार उतारी वह राई
नमक चोकर भी अब नहीं धुँधायेगा न
गुलाबी पाँव गीले होगें ठंड में रजाई से
निकलकर ',बस हो सकता है
मेरी कल्पना में कहीं आकाश से ओंस टपक
कर तुम्हे भिगोने की कोशिश करे ',न ये
दावा है न शिकवा 'इसलिये इसे
भी कदाचित तुम तब जानो पढ़ो जब
',हम न हो और चाँद
अकेला ही पूरा का पूरा तुम्हारी खिङकी पर
हो जब तुम्हें उठकर न जाना पङे हरी दूब
पर और यूँ ही 'कदाचित तुम कभी न जान
सको 'कि ये सब है तो है क्या 'मैं न जाने
क्यों हर साल सोचती हूँ दिन जरा धीरे
धीर ढले चाँद
जरा आहिस्ता आहिस्ता निकले 'कैसा है
ये धैर्य न जिसमें तृषा न थकान न
बुभुक्षा न कोई शोर ',मन
हमेशा की तरह भीगा और आँखें
हमेशा की तरह सूखी ',जकङन
संस्कारों की कह सकते हो तुम और मैं? मैं
क्या कहूँ? मुझे तो हर वो बहाना 'खोजते
रहने की आदत पङ चुकी है ताकि मैं 'इस
असंपृक्त चित्र सरीखे संसार से खुद
को किसी बहाने जोङ सकूँ तुम और
तुम्हारा सारा परिवेश, जब नहीं बाँध
पाता तो घुल जाती हूँ में
हवा चाँदनी गंध शब्द रूप रस स्पर्श
ध्वनि और विचार में 'सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
होकर 'मैं कभी नहीं कह
सकती तुम्हारी तरह कि मुझे तुमसे प्रेम
है 'न कभी नकार सकती हूँ कि मुझे तुमसे
प्रेम नहीं है 'यह क्या है जो मैं
ही नहीं जान सकी तो तुम्हें
क्या समझाऊँ ',तुम्हारे पास
सारा संसार है ',और मेरे पास 'तुम संसार
में होने का एक बहाना ',काश कोई दुआ
करता कि मेरी हर दुआ जो तुम्हारे लिये
हो वह पूरी हो जाये 'ताकि मैं संसार से
कटने से पहले देख लूँ कि तुम्हें वह सब कुछ
संसार से मिल गया जो जो तुम्हें चाहिये,
न सही 'अब 'कभी भी चाहे मेरे जाने के
ही बाद 'तुम एक बार तो यकीन कर
सको कि 'ईश्वर और तुम्हारे बीच एक
चाँद बराबर फासला देखने वाली इन
तार्किक आँखों के पीछे एक
सदियों पुराना मन भी है
जो देखता रहा कि 'ईश्वर जब
भी "मूर्तिमान होता तो 'तुम
उसकी प्रतिमा विग्रह होते 'किंतु न
मेरी आस्था कदाचित इतनी बलवान
थी कि में निराकार को सशरीर
पा लेती 'न
मेरी कामना इतनी बङी कि मैं साकार
के लिये शरीर हो पाती ',ज्योति पुंज
को मुट्ठी में धरे में आज भी सोचती हूँ मुझे
वह सब होना था जो तुम चाहते थे,
'नहीं हूँ क्योंकि मैं मनुष्य हूँ ईश्वर
नहीं 'मेरी आस्था जब तुममें
परमात्मा देखती है तो ये प्रश्न क्यों!!
और ये प्रश्न है तो तुम
परमात्मा की मूर्ति भर
हो परमात्मा कहाँ है ',मेरी निष्ठा मुझे
धिक्कारती है और चेतना ',इन
मान्यताओं को उखाङ कर फेंक
देना चाहती है ',किंतु मैं संकल्प वचन और
मन कर्म से 'जो भी हूँ
जैसी भी कभी कदाचित ही तुम्हें
पता चले कि ',चांद निहारने
की कल्पना में तब से तुम रहे हो जब तुम
कहाँ हो पता ही नहीं था 'चाँद
को छलनी दिखाने की आस्था में भी तुम
रहे हो जब कि तुम्हें कभी ये कोई
नहीं बताने वाला कि तुम
किसी का संसार हो 'संसार वहीं से शुरू
वहीं से समाप्त हो जाता है जहाँ से तुम
मुस्कुराते और रूठ जाते हो 'मेरे मौन और
तुम्हारे शब्द के बीच की धारा पर
तैरकर 'रोज ही तो होती है करवा चौथ
कोई इसरार नहीं जल्दी घर आने और
बगीचे की दूब पर चलने का '
चंद्रमा का क्या है घटता बढ़ता रोज़
ही तो समय बदल कर निकलता है '
हाँ मेरे लिये तब केवल तब ही ये
चंद्रमा निकलता है जब 'तुम उसके सामने
आ खङे होते हो '
हर रोज भले ही नहीं होती तो बस एक
छलनी 'दिया और थाली ',तुम्हें
पता ही कब चलता है जब अर्ध्य के जल में
गिरतीं हैं कुछ बूँदें आँखों से भी 'और
माथा झुकने के साथ झुक जाती हैं
हिमश्रंखलायें
ताकि तुम उठा सको झुके हुये पारिजात
द्रुम और महक सके कम से कम एक शाम हर
वर्ष 'इसी बहाने
©®सुधा राजे।

सुधा राजे का शब्दचित्र -"" छलनी - छलनी चाँद"""

मुझे अच्छा लगता है ज़मीन से चाँद
को देखना ',
तब से जब से कोई नहीं था उस चाँद और
मेरी टकटकी लगी दो आँखों के बीच '
चाँदी की कटोरी में खीर और
चाँदी की थाली में पेङे नारियल पूङे
खङपुरी बताशे दूध और परमल के साथ
चौमुख दीप बाती से सजी थाली से चाँद
देखने की बेला से पहले से ही चंद्रमा के
अमृत से शीतल खीर सदा से ही चुन चुन
कर काजू बादाम चम्मच में भरकर
खाना ',तब से जब से कोई
नहीं था मेरी खीर की कटोरी और
चम्मच के मेरे मुँह तक बिना झिझके चलते
रहने के बीच ',
कभी अधीरता नहीं आई न
कभी चंद्रमा की प्रतीक्षा लंबी लगी ',कदाचित
विचित्र ही हूँ मैं और चित्र के सिवा कुछ
नहीं मेरे लिये ये सारी सृष्टि ',फिर मेरे
और चंद्रमा के निहारने के बीच एक
चेहरा आ
गया 'तुम्हारा 'अजनबी अपरिचित
सर्वथा अलग ',मेरी हर बात से, चाँद
तुम्हारा हो गया और
निहारना भी 'मेरा न रहा, न
रही खीर पर पहली कटोरी का अमृत
मेरा वह भी तुम्हारा हो गया और सारे
बादाम काजू भी चुनकर स्वमेव
स्वचालित हाथों ने अपनी प्याली से
निकाल कर दूसरी कटोरी में रखते
जाना सीख लिया ',कल्पनाओं के
पारदर्शी सफेद चित्र 'लाल
गुलाबी पीले इंद्रधनुषी होते होते रह
गये 'पीला चाँद पूरा होते होते
तुम्हारा हो गया और मेरे हिस्से में आ
गया अनंत तारे 'निहारने का हक 'और
'कदमों की चाप पर
दिनचर्या को चलाने की अभ्यस्त आँखें मन
के भीतर से गंध शब्द रंग स्पर्श आभास
की सब परिकल्पनायें 'आकार लेते लेते रह
गयीं 'चाँद ज़मीन पर नहीं आ सकता 'मैं
पहाङ को सामने से नहीं हटा सकती 'छत
पर चढ़कर चाँद देखना मुझे पसंद नहीं '
हो तो हो क्या इसीलिये मेरे हिस्से
का चंद्रमा सदा ही दो घंटे चार
घङी देर से ही निकलता रहा है ',मुझे
मालूम है चांद कभी धरती पर
नहीं आयेगा वह एक उपग्रह है और
वहाँ जाना मेरे वश में नहीं ',मैं चांद
को निहारने से पहले एक
जलता दिया एक छलनी सदा लिये
रही हाथ में और तारों को निहारने से
पहले 'धुँधली डबडबायी बूँदे आँखों और
तारों की गिनती के बीच आतीं रहीं 'तुम
'इसी तरह मेरे और चांद तारों के बीच
आते रहो, हँसते, हुये 'इसीलिये तो चाहे
परिकल्पित ही सही 'चंद्रशेखर अमृतेश
और सुधाकर की कल्पना करके विध्नेश के
निराकार रूप को 'तुम्हारे पीछे
खङा करके अपनी साँसों का बँटवारा कर
लेती हूँ हर साल हर वर्ष, बस
उतनी ही साँस जब तू है पास 'ये मंत्र न
सही न सही विधिवत प्रार्थना न
सही तुम्हारा इन सब बातों में यकीन
और भले ही मैं चाहूँ कि आने
वाली पीढ़ी की कोई लङकी 'जब तक
चाहे तब तक चाँद निहार सके,
बिना किसी छलनी दिये और
धूपबत्ती कपूर के 'न जल छोङे न अन्न,
किंतु मैं कैसे छोङ सकती हूँ ये सब तुम न
चाहो तब भी 'ये
मेरा अपना ही तो वचन है
अपनी ही तो प्रतिज्ञा और
अपना ही तो संकल्प ',न सही तुम
परमात्मा न सही तुम परमेश्वर ढेर
सारी शिक़ायते तुम्हें मुझसे है और
मेरी बस एक 'काश कि तुम मुझे समझ पाते
'न मुझमें कोई सुधार आने वाला है न तुम
कभी मुझे समझ सकोगे ',मेरा परमेश्वर
निराकार ही रहेगा 'और
रहेगा अनादि अनंत विराट्
ही मेरा दाता फिर भी न आसक्ति न न
मोह न क्रोध न लोभ ' न जाने किस
अजीब सी भावना से भरी में बिना कोई
विशेष श्रंगार सजाये
बिना किसी प्रकार का आडंबर धरे
'अनंत ईश्वर से हर बार
यही कहती रहूँगी 'मुझे वे सब साँसें
नहीं देना, ताकि में पहले यह
दुनियाँ छोङ सकूँ तुम्हारे सामने
ही 'हो तो अच्छा नहीं तो कहीं भी 'वहाँ जहाँ ये
पता चलता रहे तुम सुखी हो खुश
हो स्वस्थ हो और मेरे बिना भी तुम्हें
कोई तकलीफ नहीं । जीवन
जैसा चाहा था वैसा नहीं रहा, हम
भी जैसा तुमने चाहा वैसे नहीं रहे ',न तुम
वह हो जैसा मैंने अनुमान
लगाया था ',तुम्हारे पास ध्वनियाँ है
शब्द हैं और हैं अधिकार सारे ',मेरे पास
प्रार्थनायें हैं दुआयें हैं, मौन है और हैं
कर्त्तव्य अनंत ',कुछ हो न हो मेरे बाद
भी ये चंद्रमा तो निकलेगा ही ',याद
रह सके तो कहना चाहती हूँ देखना और
सोचना कि अब 'तुम्हें चांद
ज़मीन से देखने की जरूरत नहीं 'तुम छत
पर जाकर चांद देख सकते
हो ',बिना किसी, दीपक
छलनी धूपबत्ती और कलश करवा कटार के
',जिससे नजर हर बार उतारी वह राई
नमक चोकर भी अब नहीं धुँधायेगा न
गुलाबी पाँव गीले होगें ठंड में रजाई से
निकलकर ',बस हो सकता है
मेरी कल्पना में कहीं आकाश से ओंस टपक
कर तुम्हे भिगोने की कोशिश करे ',न ये
दावा है न शिकवा 'इसलिये इसे
भी कदाचित तुम तब जानो पढ़ो जब
',हम न हो और चाँद
अकेला ही पूरा का पूरा तुम्हारी खिङकी पर
हो जब तुम्हें उठकर न जाना पङे हरी दूब
पर और यूँ ही 'कदाचित तुम कभी न जान
सको 'कि ये सब है तो है क्या 'मैं न जाने
क्यों हर साल सोचती हूँ दिन जरा धीरे
धीर ढले चाँद
जरा आहिस्ता आहिस्ता निकले 'कैसा है
ये धैर्य न जिसमें तृषा न थकान न
बुभुक्षा न कोई शोर ',मन
हमेशा की तरह भीगा और आँखें
हमेशा की तरह सूखी ',जकङन
संस्कारों की कह सकते हो तुम और मैं? मैं
क्या कहूँ? मुझे तो हर वो बहाना 'खोजते
रहने की आदत पङ चुकी है ताकि मैं 'इस
असंपृक्त चित्र सरीखे संसार से खुद
को किसी बहाने जोङ सकूँ तुम और
तुम्हारा सारा परिवेश, जब नहीं बाँध
पाता तो घुल जाती हूँ में
हवा चाँदनी गंध शब्द रूप रस स्पर्श
ध्वनि और विचार में 'सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
होकर 'मैं कभी नहीं कह
सकती तुम्हारी तरह कि मुझे तुमसे प्रेम
है 'न कभी नकार सकती हूँ कि मुझे तुमसे
प्रेम नहीं है 'यह क्या है जो मैं
ही नहीं जान सकी तो तुम्हें
क्या समझाऊँ ',तुम्हारे पास
सारा संसार है ',और मेरे पास 'तुम संसार
में होने का एक बहाना ',काश कोई दुआ
करता कि मेरी हर दुआ जो तुम्हारे लिये
हो वह पूरी हो जाये 'ताकि मैं संसार से
कटने से पहले देख लूँ कि तुम्हें वह सब कुछ
संसार से मिल गया जो जो तुम्हें चाहिये,
न सही 'अब 'कभी भी चाहे मेरे जाने के
ही बाद 'तुम एक बार तो यकीन कर
सको कि 'ईश्वर और तुम्हारे बीच एक
चाँद बराबर फासला देखने वाली इन
तार्किक आँखों के पीछे एक
सदियों पुराना मन भी है
जो देखता रहा कि 'ईश्वर जब
भी "मूर्तिमान होता तो 'तुम
उसकी प्रतिमा विग्रह होते 'किंतु न
मेरी आस्था कदाचित इतनी बलवान
थी कि में निराकार को सशरीर
पा लेती 'न
मेरी कामना इतनी बङी कि मैं साकार
के लिये शरीर हो पाती ',ज्योति पुंज
को मुट्ठी में धरे में आज भी सोचती हूँ मुझे
वह सब होना था जो तुम चाहते थे,
'नहीं हूँ क्योंकि मैं मनुष्य हूँ ईश्वर
नहीं 'मेरी आस्था जब तुममें
परमात्मा देखती है तो ये प्रश्न क्यों!!
और ये प्रश्न है तो तुम
परमात्मा की मूर्ति भर
हो परमात्मा कहाँ है ',मेरी निष्ठा मुझे
धिक्कारती है और चेतना ',इन
मान्यताओं को उखाङ कर फेंक
देना चाहती है ',किंतु मैं संकल्प वचन और
मन कर्म से 'जो भी हूँ
जैसी भी कभी कदाचित ही तुम्हें
पता चले कि ',चांद निहारने
की कल्पना में तब से तुम रहे हो जब तुम
कहाँ हो पता ही नहीं था 'चाँद
को छलनी दिखाने की आस्था में भी तुम
रहे हो जब कि तुम्हें कभी ये कोई
नहीं बताने वाला कि तुम
किसी का संसार हो 'संसार वहीं से शुरू
वहीं से समाप्त हो जाता है जहाँ से तुम
मुस्कुराते और रूठ जाते हो 'मेरे मौन और
तुम्हारे शब्द के बीच की धारा पर
तैरकर 'रोज ही तो होती है करवा चौथ
कोई इसरार नहीं जल्दी घर आने और
बगीचे की दूब पर चलने का '
चंद्रमा का क्या है घटता बढ़ता रोज़
ही तो समय बदल कर निकलता है '
हाँ मेरे लिये तब केवल तब ही ये
चंद्रमा निकलता है जब 'तुम उसके सामने
आ खङे होते हो '
हर रोज भले ही नहीं होती तो बस एक
छलनी 'दिया और थाली ',तुम्हें
पता ही कब चलता है जब अर्ध्य के जल में
गिरतीं हैं कुछ बूँदें आँखों से भी 'और
माथा झुकने के साथ झुक जाती हैं
हिमश्रंखलायें
ताकि तुम उठा सको झुके हुये पारिजात
द्रुम और महक सके कम से कम एक शाम हर
वर्ष 'इसी बहाने
©®सुधा राजे।


सुधा राजे का लेख - ""बात चरित्र की।""

बात चरित्र की """"

सुधा राजे का लेख
"""""""""""कॉलम "स्त्री ""
★स्त्री पूजकों का देश कहे जाने वाले भारत में ही सबसे अधिक गालियाँ
"स्त्रियों पर है "यहाँ तो लुगया ,लुगाई, जनाना,जनखा ही गाली है ।भद्र
गालियाँ है 'साले ससुरे और मेरी माँ, मेरी दादी, तेरा तो मैं बाप लगता
हूँ ',और तो और बेटा कहने में भी 'व्यंग्य में गाली ही होती है। तेरी माँ
बहिन बेटी तो बात बात में नन्हें मुन्ने कहे समझे जाने वाले बच्चे तक
बकते रहते हैं ।
इसी देश में चाहे घर की बेटी बहू बहिन माँ चाची पङौसन भाभी मौसी ननद सास
ताई बुआ काकी हो झगङा होने पर ''गालियों में सबसे अधिक 'राँड, रंडी,
कुलटा, हरामज़ादी और बदचलन आदि सूचक शब्द ही गाली में आते हैं ।
सवाल चरित्र का जब जब उठता है तो ऐसे किसी भी 'पुरुष 'को जिसने स्त्री
कभी न छुयी भोगी हो "महापुरुष "महासंयमी और ब्रह्मचारी आदि कह कर
महिमामंडित किया जाता है । अनेक पौराणिक पात्र केवल इसलिये महान कहे गये
कि वे 'स्त्री के साथ जीवन भर दैहिक संबंध नहीं रखने की प्रतिज्ञा निभाते
रहे ',अब चाहे जैसे भी हो '। जब बात स्त्री की आती है तो "ये त्यागी या
ब्रह्मचारिणी होना या आजीवन पुरुष से दैहिक संबंध न रखना कोई बङा महान या
महिमामंडनीय कार्य आचरण नहीं है।
सती सावित्री और सीता अनुसुईया अरुन्धती दमयंती तारा सुलोचना पार्वती की
महिमा केवल इस बात में है कि "हर हाल में पति की दासीवत पूरी निष्ठा
आस्था समर्पण अंधभक्ति से सेवा और आज्ञापालन '
ये सब पात्र 'महिमामंडित 'किये जाने के पीछे मानसिकता यही कि "स्त्री
'वही सर्वोत्तम होती है जो बचपन से ही पिता के घर होने पर भी स्वयं को
पति की संपत्ति मानकर वर की 'प्राप्ति के लिये कठोर व्रत उपवास नियम संयम
आराधना पूजा और पतिभजन करती रहे 'विवाह जिससे भी किसी भी शर्त वचन प्रण
प्रतिज्ञा घटना या दुर्घटनावश कर दिया जाये "उसी "मानव को परमात्मा मानकर
'उपासना करती रहे ।चाहे वह दैहिक रूप से नपुंसक हो गंभीर लाईलाज़
संक्रामक रोगी हो विकलांग हो दरिद्र कंगाल धोखे से बलात्कार करके शीलहरण
करके पति बन बैठा हो 'अपहरण करके स्त्री को हर लाया हो और पत्नी बनने पर
विवश किया हो या फिर युद्ध संधि और जय पराजय वश स्त्री को विवाह बंधन में
बाँध दिया गया हो ',
विवाह हो गया तो हो गया । अब कोई पलायन मार्ग नहीं सुधार या वापसी नहीं ।
स्त्री के वैराग्य और संन्यास और मोक्षकामी होकर भक्ति आराधना पर
'संस्कार विरोध करते ही दिखते हैं । स्त्री को हर हाल में विवाह करने की
ही हिदायत 'धर्म और रीति रिवाज में है । एक पुरुष निर्णय ले सकता है कि
वह आजीवन अविवाहित रहेगा ''तो वह महान 'एक स्त्री निर्णय नहीं लेने दी जा
।सकती कि वह आजीवन अविवाहित रहेगी । और ऐसी स्त्रियाँ जो अविवाहित रहती
या किसी कारण वश विवाह नहीं करती ""एक अज़ीब सी हेय दृष्टि से देखी जातीं
हैं "।
चरित्र?
है क्या? क्या केवल "सहवास न करना मात्र? या केवल अपने विवाहित सहभागी
मात्र से ही सेक्ससंबंध रखना भर?
चरित्र का संबंध मन और मस्तिष्क हालात और विवशताओं की सब बातों के कार्य
कारण सहित समग्र से क्यों नहीं?
क्या एक वेश्या चकयरित्रवान नहीं हो सकती?
ग़ौर से समझें कि वह किसी भद्र परिवार की मासूम लङकी थी जिसे अपहरण करके
बेच दिया गया और मार पीट ज़ुल्म जौर से बदन बेचने की मंडी में नीलाम होने
पर विवश किया गया ।वह धीरे धीरे माहौल में ढल गयी और रोज़ बिना ना नुकर
के बिकने लगी ।
वह चरित्र हीन कैसे है?
चरित्रहीन कोई है तो वे सब लोग जो उसे चुपाकर लाये, वे जिन्होने उसे बेचा
खरीदा औक मजबूर करके वेश्या बनाया, वे सब लोग जो यह जानते हैं कि वेश्या
है, यह इसकी मजबूरी है उसको पैसों के बदले भोगते खरीदते और नोंचते
भँभोङते रहे!!!!!
कौन चरित्रवान है?
यह समाज, एक घरेलू स्त्री को मामूली सी बात पर रंडी और वेश्या कह देता है????
क्या ऐसे शब्द बकने वाले लोग ''चरित्रहीन नहीं?
जब किसी स्त्री को पिता भाई पति पुत्र का संरक्षण न हो तो समाज का चौथा
पाँचवा आदमी उसको "भोगने "के लिये तरह तरह के इशारे निमंत्रण और छेङछाङ
स्पर्श संकेत से पाना चाहता है ',किंतु जब वह, किसी मजबूरी में अपने शरीर
को ही लोगों का मनोरंजन करके पैसा कमाने परिवार और पेट पालने का माध्यम
बना ले "नाचने गाने और लोगों का मनोरंजन करके पैसे कमाने लगे तो? वह गाली
है? रंडी!!!!बदचलन???
वे सब लोग क्यों नहीं जो एक बेसहारा स्त्री को भोजन वस्त्र घर दवाई तो
नहीं दे सकते किंतु इन सबको देने के बदले ''रुपये दे सकते है अगर वह कपङे
उतार दे और नाचे बदन बेचे या नुमाईश करे तो!!!!!!!!!वह समाज बदचलन क्यों
नहीं जहाँ लङकी को विवश होने पर रोटी कपङा मकान तो नहीं किंतु रंडी
वेश्या गाली बनने का न्यौता हर ओर से मिलता है??
,,,प्रेम संबंधों का भी यही हाल है सोच कर देखें । किसी लङकी की प्रेम
अफेयर या दैहिक रिलेशन जो भी हो, होता तो किसी न किसी "पुरुष "से ही है ।
फिर संबंध टूटने पर लङकी को "बदचलन और लङके को अकसर प्रेम में धोखा खाया
मजबूर या प्लेबॉय की तरह की सराहना मिलती है कि 'वाह कितनी सारी लङकियाँ
इस हीरो पर मरतीं हैं '!!!
ये दोहरे मानदंड रच बस चुके हैं विचारों में सोच में और संस्कारों में
कि, एक माँ बाप तक बेटे से बालपन में बहू और पोता और गर्लफ्रैण्ड की बात
करने लगते है "हास परिहास "में बहुत फ्रैंक समझे जाने वाले परिवारों में
तो लङकपन में ही "लङकी पटाने और तमाम इसी तरह की बाते कर लीं जातीं हैं'।
वहीं बङे से बङे आधुनिक समझे जाते परिवार में भी लङकी के लिये सोच बातचीत
वही ढाक के तीन पात, 'शादी ससुराल और अब बहुत हुआ तो, कैरियर 'ताकि
ससुराल अच्छी मिले या ससुराल अच्छी नहीं मिली तो 'कोई संकट "रोजी रोटी का
न रहे ।
सजने सँवरने की शुरुआत में ही लङकी को अकसर परिवारों में टोका रोका डाँटा
डपटा जाता रहा है ',ग्रामीण परिवेश में तो सीधे सीधे ही घर की बूढ़ी
पुरानियाँ कह ही देती ""इतना सिंगार पटोरा क्यों कर रही है, किस खसम को
दिखाने जा रही है, जे सब बिआह के लिये रहने दे "
ज़माना बदला लोग बदले अब कुमारियाँ लिप्स्टिक नेल पेंट और तमाम मेकअप भी
करने लगीं हैं ',किंतु सोच अब भी जस की तस है ।
लङका सेंट लगाये तो "कोई है क्या बरखपरदार? ""
और
लङकी 'जरा अधिक ध्यान से सजे सँवरे तो ""ध्यान रखना मुझे कोई ऐसी वैसी
बात न सुनने को मिले ''

चरित्रवान होना "लङकों की शर्त क्यों नहीं?
बलात्कार औऱ छेङछाङ के डर के कारण एक पल भूल भी जायें तो बात आती है
"अविवाहित गर्भ की "
प्रेम संबंधों में लङके अकसर हदें पार करना चाहते हैं और लङकियाँ "विवाह
"होने तक दैहिक संबंध से डरतीं हैं ।
आज ये लंयम भी टूटते जा रहे हैं । क्योंकि तमाम तरह की गर्भनिरोधक
दवाईयाँ हर जगह उपलब्ध हैं और गर्भपात कोई बङी घटना नहीं रह गया ।
किंतु "चरित्रहीनता "का कलंक तब भी लङकी ही ढोयेगी यह आज भी तय है ।
लङका प्रेम कर सकता है? अगर हाँ तो क्या किसी स्वर्ग की अप्सरा या
ज़न्नत से उतर कर आयी हूर से करेगा???
ज़ाहिर है किसी लङकी से ही करेगा यदि "गे "है तो और बात है वहाँ भी देखे
कि "नपुंसक होना भी समाज में गाली है जबकि नपुंसक होना न होना "प्रकृति
पर निर्भर है "
तो वे "प्रेमिकायें आयें कहाँ से??
किसी पिता की बेटी किसी भाई की बहिन किसी खानदान की तो मान मर्यादा चादर
मूँछ पगङी होगीं ही!!!
हँसने और रोने दोनों की बात है कि आज का युवा भी "गर्ल फ्रैंड तो चाहता
है स्कूल से यूनिवर्सिटी और दफ्तर तक, 'किंतु जैसे ही विवाह की बात आती
है, 'उसको वन पीस अक्षत कौमार्यर्वती पवित्र अनछुयी 'सुकन्या ही
चाहिये!!!!
ग़ज़ब की बात है कि अपनी गर्लफ्रैण्ड से विवाह "नहीं "करने की सोच रखकर
अफेयर चलाये जा रहे लङके लगभग हर चौथा पाँचवा लङका 'विवाह किसी दूसरी ही
अनछुयी कौमार्यवती ""दहेजदायिनी ""सजातीय लङकी से ही करना चाहता है और
अधिकांश मामलों में करता भी है ।सवाल है तो फिर वे सब रिजेक्टेड ठुकरायी
हुयी "अपवित्र टच्ड "बदचलन समझी जाने वाली लङकियाँ "कहाँ जायें?या कहाँ
जातीं होगीं?आलम तो ये है कि चरित्र पर इतना बावेला मचाने वाले इसी समाज
में ऐसे भई हज़ारों विवाह हर वर्ष होते हैं जहाँ "पिता भाई ने प्रेमी को
पीटकर लङकी को विवश करके सजातीय घर वर खोजकर विवाह दूसरी जगह कर दिया
।बात छिपाने की लाखों कोशिशों के बावज़ूद 'जैसे ही पत्नी या बहू के विवाह
पूर्व किसी अफेयर के बारे में पता चला 'ससुराल को यातनागृह और दांपत्य को
नर्क बना दिया जाता है । अकसर पुरुष स्वीकार ही नहीं कर पाते कि उसकी
पत्नी "किसी की प्रेमिका रह चुकी है ''!!!
इस बात पर पत्नी को रंडी वेश्या कुलटा बदचलन तक की उपाधियाँ दे दी जातीं
है 'किंतु ',उसी चरित्रवान पतिपरमेश्वर को "शायद ही कभी इषस बात की
ग्लानि या अहसास तक होता हो "कि बचपन से प्रौढ़ होने तक कितनी स्त्रियों
को उसने "पटाने की कोशिश की, 'कितनों को छेङा, 'कितनियों को जानबूझकर गलत
इरादे से छुआ ',और कब कब वह खुद "प्रेम या फ्लर्टिंग करके मुकर गया!!!!!
यही नहीं उसकी अपनी निजी आदतें कितनी "पवित्र है?? नशा 'लङकियाँ, पोर्न,
और टॉयलेट या बेड के दुर्गुणों की बात को चरित्र से क्यों नहीं जोङा जाना
चाहिये?
आज भी है कि पति को पराई स्त्री पर डोरे डालता देखकर भी स्त्री रिश्ता
निभाती है 'परस्त्री से संबंध होने की सच्चाई पता चलने पर भी स्त्री निभा
लेती है । कोई भी "बदचलनी "करके आया पति या बेटा या भाई अंततः 'माफ कर ही
दिया जाता है ।
किंतु 'अधिकतर मामलों में अपवादों को छोङ दें तो 'स्त्री की सारी निष्ठा
सेवा और सच्चाई जलकर पल भर में समाप्त हो जाती है । बदचलन चरित्रहीन 'ये
तो उसे तब भी जब तब कह कर डरा ही दिया जाता है ही जबकि वह रोम रोम से
एकपुरुष निष्ठ हो
और कभी ये समाज नहीं सोचता कि ""बदचलन चरित्रहीन पुरुषों की धोखा खाई
हुयी ये कुलटायें जायें तो कहाँ जाये?????
क्यों न सोच बदली जाये!!!
आखिर "इश्क़ और रोग पर किसी का जोर चलता नहीं ।और रहा सवाल सामाजिक नैतिक
मूल्यों का तो इनको कठोर होना चाहिये बेशक ',किंतु पुरुषों पर भी ये
कठोरता घर घर प्रतिव्यक्ति लागू होनी चाहिये न!!!!!
ताकि कोई पिता बेटे की प्रेमिका के बारे में मजाक करके ठहाके लगाने से
पहले सोचे "कि उसकी भी बेटी किसी और के बेटे की प्रेमिका हो सकती है और
वह पिता भी इसी तरह से मजाक उङा रहा होगा!!!
वस्तुतः चरित्र केवल 'दैहिक पवित्रता "सेक्स न करने के अर्थों में ही
नहीं "व्यापक रूप से सोच ईमान कर्त्व्यनिष्ठा सत्याग्रह परहित परपीङा और
सामाजिक वैधानिक सांस्कृतिक ताने बाने के अनुरूप "मन कर्म वचन विचार और
अभिव्यक्ति की सच्चाई और ईमानदारी और "ऐब रहितता "भी होनी चाहिये ।
©®सुधा राजे


Thursday 2 October 2014

फुफ्फू के टोंचने :- ""बङे आए गाँधी वाले ।""

गांधी की बात करते हो??
कितनी बार अपना घर
बिस्तर
कमरा
कपङे
टॉयलेट
शौचालय
गलियारा
चबूतरा बरामदा
आँगन साफ करते हो?????
या
तो नौकर
या तो
बीबी
बहू बेटी
माँ!!!!!!!!!
बङे आये गाँधी पर बकबक करने
हुँह!!
©®सुधा राजे