सुधा राजे का लेख :- ""सुहाग की अवधारणा और भारतीय स्त्री।"
सुहाग की अवधारणा और भारतीय स्त्री '
★सुधा राजे ★का लेख ''कॉलम "स्त्री के लिये "
"""""""
एक नर और मादा जीव युवा होने पर दैहिक रासायनिक तत्वों की क्रिया
प्रतिक्रिया से परस्पर आकर्षित होकर जोङा बनाते सेक्स करते और बच्चे पैदा
करके 'पालते 'और मर जाते है परिवार में सहयोग सहजीवन के साथ, 'इतनी सी
कहानी है विवाह की ।किंतु भारतीय विवाह "दैहिक या प्रजनन की बजाय दैवीय
और परलोक तक की अवधारणाओं से जोङे जाकर सेक्स पार्टनर या बच्चों का
जन्मना मात्र नहीं है । ये न सतयुग त्रेता द्वापर है न ही सती का युग ।
फिर भी आज भी ऐसी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने विवाह 'जहाँ पिता भाई चाचा ने
कर दिया चलीं गयीं ',वहाँ पहले दूसरे दिन हफ्ते या साल बीतते बीतते जान
गयीं कि धोखा हुआ है और पति नामक प्राणी 'वैसा नहीं न ससुराल वाले जैसे
बताये गये 'फिर भी ',सोच लेतीं है, संस्कार ही ऐसे हैं कि अब जो हो गया
सो हो गया 'विवाह 'तो बस एक बार ही होता है दोबारा नहीं अब यही तकदीर है
।वे लौटने की बज़ाय निभाकर जगह बनाने और सब कुछ ठीक करने की कोशिश में
जुट जातीं हैं । परंतु अपवादों को छोङ दें तो बहुत कम मामलों में बदलती
है तकदीर ',ऐसी शादियाँ एक "रस्म "वचन और संस्कारों की लाश बनकर रह जाती
है ।
कहीं शिक्षा दीक्षा का धोखा कहीं हैसियत और घर खेत स्थायी संपत्ति की
झूठी बातों का धोखा, कहीं कमाई वेतनमान आय को लेकर बोले गये झूठ 'तो कहीं
आयु और कभी कभी जाति बिरादरी धर्म तक के धोखे, 'फिर भी, वही की वही
अवधारणा, '
"""अब तो जो जैसा होना था सो वैसा तकदीर के लिखे मुताबिक़ हो ही गया विवाह ""
अब क्या हो सकता है, अब जैसा भी है जो भी है "यही "वर है पति है संसार का
भाग्येश है,और यही है ""सुहाग""।
जिस सौभाग्य को पति के प्रेम गलबहियाँ सहजीवन दैहिक संबंध मानसिक समाधान
सहयोग समर्थन आस्था निष्ठा विश्वास 'रति प्रणय श्रंगार से जोङकर देखा
जाता है, वही ""सुहाग """?
इस तरह की धोखा खायी छली गयी ठगी गयी स्त्रियों के लिये ''केवल पति का
जीवित होना बनकर रह जाता है ।
न पति साथ सोता खाता पीता बोलता बैठता घूमने जाता है न ही बहुत बात चीत
किसी मुद्दे पर होती है 'फिर भी '""सुहागिन ""है और इतना उस कमनसीब
भारतीय स्त्री के लिये पर्याप्त होता है ।
वह पति का घर साफ करती है ।पति के माता पिता भाई बहिनों के प्रति सारे
दायित्व निभाती है और चाहे निःसंतान रहे या किसी बच्चे को गोद ले या
'किसी तकनीक से पति के अंशबीज से या नयी पुरानी तकनीक से 'क्षेत्रज
'बच्चे जन्म दे, परंतु वह '''''सुहागिन """बनी रहती है ',बिन पति की
प्यारी प्रणयिनी और शैया शायिनी हुये ही वह "सिंदूर बिंदी चूङी बिछुये
मंगलसूत्र पहने ""स्वयं को सुहागिन बनाये रखने के लिये तीज वट सावित्री
करवाचौथ आदि अनेक कठोर व्रत करती है ।जबकि पति न तो चूङी बिंदी सिंदूर
बिछुये लौंग साङी खरीद कर देता है न ही अपेक्षा होती है कि वह ठीक समय पर
दल अन्न तक ""व्रत खोलने को अपने हाथ से दे देगा।
एक आधुनिक दिखने वाली उच्चशिक्षित सक्षम स्त्री जिसकी बाहरी समाज में
अपनी स्वतंत्र पहचान है और लोग यकीन ही नहीं कर सकते कि वह स्त्री जो
अनेक मुद्दों पर बेहद मजबूत नज़र आती है उसकी अपनी भावनायें संस्कार
मान्यतायें और व्यक्तिगत जीवन इतना दुःखपूर्ण भी हो सकता है कि वह जिस
"सुहाग "के लिये वर्ष भर एक के बाद एक कठिन व्रतोपवास करती और घर सँवारती
बच्चे पालती 'कमाकर घर चलाती और पति की हर जरूरत का ध्यान रखती है वास्तव
में इतनी अकिंचन है कि 'चंद्रोदय के बाद पति के हाथ से दो घूँट जल और एक
ग्रास अन्न तक माँग नहीं सकती न ही वह स्वप्रेरणा से देने वाला है "चुपके
से पति को देख लिया आरती कर ली और तसवीर मंदिर में पूजकर 'सुहाग 'के अचल
अखंड अनंत अमर होने का वरदान माँग कर पति की जूठी थाली में से एक कौर खा
लिया 'एक घूँट पी लिया ', ।
आधुनिक नारीवाद के सब विचार अपनी जगह 'और 'सुहागवादी अवधारणा अपनी जगह '।
विचित्र है संस्कृति जिसमें वही स्त्री, शब्द अपशब्द पर झगङती नजर आती है
'यदि विवाह के प्रारंभिक वर्षों के 'फल स्वरूप संताने हो गयीं तो, या
नहीं हुयी संतान तो भी, 'वही स्त्री उसी पति से झगङती या मौन साधे अनबोल
रखती असंपृक्त असंबंधित असंलग्न पृथक होकर उसी पति के घर रहती या कई
मामलों में अलग घर नगर रहती भी '''सुहाग ''की कामना करती है प्रकट रूप
में पति से जूझती लङती या नाराज बोलचाल बंद किये नज़र आती स्त्री हर पल
मन ही मन 'पति की अच्छी स्हत रहे 'पति की अच्छी कमाई प्रतिष्ठा और हर शुभ
कार्य में विजय रहे, आयु लंबी शताधिक हो कीर्ति अखंड हो """""आदि तरह तरह
की कामनायें अपनी प्रार्थनाओं में करती है।
उसके जीवन में पुरुष तत्व का सर्वथा अभाव है और वह स्वयंसिद्धा स्वयं का
पुरुष होकर भी अपने संस्कार नहीं छोङ पाती ।
न तो कभी कोई पास पङौसी जान पाता है न कभी कोई, नाते रिश्तेदार सखी सहेली
बहिन माता या भाभी 'और देवरानी जेठानी, न ही स्वयं पति ही अकसर समझ पाता
है कि 'जिस स्त्री को वह एक डिब्बी सिंदूर तक खरीद कर नहीं देता, 'वह
अपनी कमाई से मंदिर के बाहर से बिंदी सिंदूर लेकर "सुहाग "धारण करती है
और कपङे अपने खुद बनाती या खरीदती है 'अपनी कमाई पति की घर गृहस्थी में
लगा देती है, फिर भी '"सुहागिन कहती कहलाती है खुद को वह जिसे 'न तो
कुँवारी के अधिकार प्राप्त कल्पित सपनों के 'न समाज विधवा की सहानुभूति
दया दे सकता है ',न वह सुहागिन के सौभाग्य की तरह हर बार सुख दुख में
अपने पीछे पति को खङा पाती है ।
ये स्वाभिमानी समवयंसिद्धा स्त्रियाँ ऐसा जीवन अंगारों पर चलकर विवाह
निभाती हुयी क्यों जीती है? वे चाहें तो उनके हर कष्ट का पल भर में समापन
और उनपर अत्याचार करने वाले पति और ससुराल वालों को तुरंत दंड मिल सकता
है ।वे नया परिवार बसा सकतीं हैं ।परंतु वे खयालों सपनों और कल्पना तक
में ऐसा करना नहीं चाहतीं ।क्यों? कौन सा भय है उनको? बदनामी या नेकनामी
का सवाल तो ऐसी स्त्रियों से पृथक है क्योंकि "पतिप्रिया "नगीं होने से
आसपास की सचमुच भाग्यवान पतिप्रियायें उसकी किंचित हँसी उङातीं ही हैं ।
सुहाग में वैराग का ये भारतीय 'जीवन केवल भारत में ही संभव है ।हम ऐसी
कुछ स्त्रियों को जानते है 'अपने हाथ पर रखे आँवले की तरह 'और आपके परिचय
के दायरे में भी हो सकता है ऐसी 'सुहागिनें "हो सकतीं है ।क्या वे यश के
लिये अपना यौवन बिता देती है तनहाई में, क्या पति के ज़ुल्म उपेक्षा अभाव
सहकर वे कोई नोबेल पपरस्कार जीतेगी? या उनको कहीं समाज बहुत सम्मान मान
देने वाला है? कुछ भी तो नहीं!!!!
बल्कि होता ये है कि बच्चे अगर हैं तो 'धीरे धीरे पहले पिता से नफरत करने
लगते हैं बाद में माँ की उपेक्षा और अंत में वह 'पुनः एक नाउम्मीदी का
शिकार होतीं है जब जीवन बीत जाता है और यादों में रह जाती है सूनी रातें
उदास दिन कर्कश शब्द तीखे ताने भीगे तकिये और हाहाकार करती दुखती काया '।
क्यों करतीं है ऐसा न करें न!!!!!
मूर्खता है ये!!
आत्महनन है ये
अंधविश्वास और संस्कारों की जकङन है ये,
ऐसा "पवित्रता "सतीत्व और एकपुरुष वादी 'ऑर्थोडॉक्स विचारों की वजह से होता है ।
आज रॉकेट युग है 'सती 'युग नहीं ।
आप नहीं समझा सकते उनको । वे आपके साथ हर टॉपिक पर बहस कर लेगीं संभव हुआ
तो चाँद पर भी चलीं जायॆंगी, रॉकेट उङा लेगीं किंतु ''सुहागवादी
""अवधारणा से बाहर नहीं निकलना चाहतीं ।
आस्था या निष्ठा ने उनको दिया क्या?
कोई भी पूछ सकता है 'किंतु क्या ये सब कुछ पाने के लिये होता है???
भारतीय विवाह की नींव में ''कम या अधिक इसी ""सुहागवादी ''अवधारणा का ईंट
गारा चूना पत्थर सीमेन्ट लगा हुआ है ।
ये पीढ़ी दर पीढ़ी "व्यवहार से ही एक स्त्री दूसरी को सिखा डालती है ।
घरेलू हिंसा औऱ स्त्री शोषण के पीछे भी
यही ""सुहागवादी "अवधारणा जकङी रहती है ।जिससे धीरे धीरे अत्याधुनिक नई
पीढ़ी भारमुक्त हो रही है।
न तो कोई थोपता है न विवश करता है न ही आशा अपेक्षा से कोई स्त्री जानबूझ
कर ऐसे जीवन को चुनती है ',।ये देन है हालातों की फल है परवरिश और अध्ययन
का और चाहो भी तो इन कङियों को 'तोङना आसान नहीं '
एक विवाह की नींव कमज़ोर या पुख्ता इस पर नहीं कि पुरुष क्या कमाता या
लङकी पर कितने गहने कपङे पाती है, 'वचन जिनको न स्त्री याद रख पाती है न
पुरुष 'याद रहती है तो ""सुहाग की अवधारणा ।
ये सुहाग पति का शरीर नहीं 'पति का घर नहीं 'स्त्री का विवाह होना न होना
तक कई मामलों में नहीं 'बस एक विचार एक अहसास एक 'अमूर्त सोच है ।बूढ़ी
पुरानी औरतें जल्दी जल्दी चूङी बिंदी बिछुये बदलने को मना करतीं है
।कहतीं है जगतमाई ने सबको नाप तौल कर दिया है सुहाग सो घोल पीस कर पहनो
'मतलब जब तक चले तब तक पहनो नया तब ही लेना जब पुराने की अवस्था न रहे
'बच्चे जन्म या परिवार में सगोत्र की मृत्यु पर ही नयी चूङियाँ बदलने का
विधान बताती है वरना 'चूङी तब तक पहनो जब तक चले ।
""""आधुनिक उपयोगितावाद बाज़ारवाद ने 'फैशन का रूप कितना ही दे दिया हो
फिर भी 'सुहागवाद 'इन चमकतीं चीजों के भीतर कहीं गहरे बैठा है "अपर्णा
"बनकर '।
इसे समझने के लिये स्त्री होना पङता है 'कदाचित ही कोई पुरुष इसे समझ सके
',निभाना तो स्त्री को ही पङता है, लाख कानून बन जाये और हजार आधुनिकीकरण
हो जाये 'किंतु सुहागवाद कहता है ''फटे को सिला नहीं रूठे को मनाया नहीं
मैले को धोया नहीं तो 'गृहिणी स्त्री का जन्म बेकार ही गया ।
कहाँ कहाँ ये च्यवन की सुकन्यायें तुलसी की रत्नावलियाँ और यशोधरायें
जसोदायें 'है उनके सिवा कदाचित ही कोई जान सके और जाने भी क्यों उनका
जीवन उन्हे जीने दो ये वे चितायें हैं जो ज़िंदा जलती है हर रोज और शांत
होने पर कोई शोर नहीं होता कहीं 'न फूल चढ़ते है ।
©®सुधा राजे
★सुधा राजे ★का लेख ''कॉलम "स्त्री के लिये "
"""""""
एक नर और मादा जीव युवा होने पर दैहिक रासायनिक तत्वों की क्रिया
प्रतिक्रिया से परस्पर आकर्षित होकर जोङा बनाते सेक्स करते और बच्चे पैदा
करके 'पालते 'और मर जाते है परिवार में सहयोग सहजीवन के साथ, 'इतनी सी
कहानी है विवाह की ।किंतु भारतीय विवाह "दैहिक या प्रजनन की बजाय दैवीय
और परलोक तक की अवधारणाओं से जोङे जाकर सेक्स पार्टनर या बच्चों का
जन्मना मात्र नहीं है । ये न सतयुग त्रेता द्वापर है न ही सती का युग ।
फिर भी आज भी ऐसी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने विवाह 'जहाँ पिता भाई चाचा ने
कर दिया चलीं गयीं ',वहाँ पहले दूसरे दिन हफ्ते या साल बीतते बीतते जान
गयीं कि धोखा हुआ है और पति नामक प्राणी 'वैसा नहीं न ससुराल वाले जैसे
बताये गये 'फिर भी ',सोच लेतीं है, संस्कार ही ऐसे हैं कि अब जो हो गया
सो हो गया 'विवाह 'तो बस एक बार ही होता है दोबारा नहीं अब यही तकदीर है
।वे लौटने की बज़ाय निभाकर जगह बनाने और सब कुछ ठीक करने की कोशिश में
जुट जातीं हैं । परंतु अपवादों को छोङ दें तो बहुत कम मामलों में बदलती
है तकदीर ',ऐसी शादियाँ एक "रस्म "वचन और संस्कारों की लाश बनकर रह जाती
है ।
कहीं शिक्षा दीक्षा का धोखा कहीं हैसियत और घर खेत स्थायी संपत्ति की
झूठी बातों का धोखा, कहीं कमाई वेतनमान आय को लेकर बोले गये झूठ 'तो कहीं
आयु और कभी कभी जाति बिरादरी धर्म तक के धोखे, 'फिर भी, वही की वही
अवधारणा, '
"""अब तो जो जैसा होना था सो वैसा तकदीर के लिखे मुताबिक़ हो ही गया विवाह ""
अब क्या हो सकता है, अब जैसा भी है जो भी है "यही "वर है पति है संसार का
भाग्येश है,और यही है ""सुहाग""।
जिस सौभाग्य को पति के प्रेम गलबहियाँ सहजीवन दैहिक संबंध मानसिक समाधान
सहयोग समर्थन आस्था निष्ठा विश्वास 'रति प्रणय श्रंगार से जोङकर देखा
जाता है, वही ""सुहाग """?
इस तरह की धोखा खायी छली गयी ठगी गयी स्त्रियों के लिये ''केवल पति का
जीवित होना बनकर रह जाता है ।
न पति साथ सोता खाता पीता बोलता बैठता घूमने जाता है न ही बहुत बात चीत
किसी मुद्दे पर होती है 'फिर भी '""सुहागिन ""है और इतना उस कमनसीब
भारतीय स्त्री के लिये पर्याप्त होता है ।
वह पति का घर साफ करती है ।पति के माता पिता भाई बहिनों के प्रति सारे
दायित्व निभाती है और चाहे निःसंतान रहे या किसी बच्चे को गोद ले या
'किसी तकनीक से पति के अंशबीज से या नयी पुरानी तकनीक से 'क्षेत्रज
'बच्चे जन्म दे, परंतु वह '''''सुहागिन """बनी रहती है ',बिन पति की
प्यारी प्रणयिनी और शैया शायिनी हुये ही वह "सिंदूर बिंदी चूङी बिछुये
मंगलसूत्र पहने ""स्वयं को सुहागिन बनाये रखने के लिये तीज वट सावित्री
करवाचौथ आदि अनेक कठोर व्रत करती है ।जबकि पति न तो चूङी बिंदी सिंदूर
बिछुये लौंग साङी खरीद कर देता है न ही अपेक्षा होती है कि वह ठीक समय पर
दल अन्न तक ""व्रत खोलने को अपने हाथ से दे देगा।
एक आधुनिक दिखने वाली उच्चशिक्षित सक्षम स्त्री जिसकी बाहरी समाज में
अपनी स्वतंत्र पहचान है और लोग यकीन ही नहीं कर सकते कि वह स्त्री जो
अनेक मुद्दों पर बेहद मजबूत नज़र आती है उसकी अपनी भावनायें संस्कार
मान्यतायें और व्यक्तिगत जीवन इतना दुःखपूर्ण भी हो सकता है कि वह जिस
"सुहाग "के लिये वर्ष भर एक के बाद एक कठिन व्रतोपवास करती और घर सँवारती
बच्चे पालती 'कमाकर घर चलाती और पति की हर जरूरत का ध्यान रखती है वास्तव
में इतनी अकिंचन है कि 'चंद्रोदय के बाद पति के हाथ से दो घूँट जल और एक
ग्रास अन्न तक माँग नहीं सकती न ही वह स्वप्रेरणा से देने वाला है "चुपके
से पति को देख लिया आरती कर ली और तसवीर मंदिर में पूजकर 'सुहाग 'के अचल
अखंड अनंत अमर होने का वरदान माँग कर पति की जूठी थाली में से एक कौर खा
लिया 'एक घूँट पी लिया ', ।
आधुनिक नारीवाद के सब विचार अपनी जगह 'और 'सुहागवादी अवधारणा अपनी जगह '।
विचित्र है संस्कृति जिसमें वही स्त्री, शब्द अपशब्द पर झगङती नजर आती है
'यदि विवाह के प्रारंभिक वर्षों के 'फल स्वरूप संताने हो गयीं तो, या
नहीं हुयी संतान तो भी, 'वही स्त्री उसी पति से झगङती या मौन साधे अनबोल
रखती असंपृक्त असंबंधित असंलग्न पृथक होकर उसी पति के घर रहती या कई
मामलों में अलग घर नगर रहती भी '''सुहाग ''की कामना करती है प्रकट रूप
में पति से जूझती लङती या नाराज बोलचाल बंद किये नज़र आती स्त्री हर पल
मन ही मन 'पति की अच्छी स्हत रहे 'पति की अच्छी कमाई प्रतिष्ठा और हर शुभ
कार्य में विजय रहे, आयु लंबी शताधिक हो कीर्ति अखंड हो """""आदि तरह तरह
की कामनायें अपनी प्रार्थनाओं में करती है।
उसके जीवन में पुरुष तत्व का सर्वथा अभाव है और वह स्वयंसिद्धा स्वयं का
पुरुष होकर भी अपने संस्कार नहीं छोङ पाती ।
न तो कभी कोई पास पङौसी जान पाता है न कभी कोई, नाते रिश्तेदार सखी सहेली
बहिन माता या भाभी 'और देवरानी जेठानी, न ही स्वयं पति ही अकसर समझ पाता
है कि 'जिस स्त्री को वह एक डिब्बी सिंदूर तक खरीद कर नहीं देता, 'वह
अपनी कमाई से मंदिर के बाहर से बिंदी सिंदूर लेकर "सुहाग "धारण करती है
और कपङे अपने खुद बनाती या खरीदती है 'अपनी कमाई पति की घर गृहस्थी में
लगा देती है, फिर भी '"सुहागिन कहती कहलाती है खुद को वह जिसे 'न तो
कुँवारी के अधिकार प्राप्त कल्पित सपनों के 'न समाज विधवा की सहानुभूति
दया दे सकता है ',न वह सुहागिन के सौभाग्य की तरह हर बार सुख दुख में
अपने पीछे पति को खङा पाती है ।
ये स्वाभिमानी समवयंसिद्धा स्त्रियाँ ऐसा जीवन अंगारों पर चलकर विवाह
निभाती हुयी क्यों जीती है? वे चाहें तो उनके हर कष्ट का पल भर में समापन
और उनपर अत्याचार करने वाले पति और ससुराल वालों को तुरंत दंड मिल सकता
है ।वे नया परिवार बसा सकतीं हैं ।परंतु वे खयालों सपनों और कल्पना तक
में ऐसा करना नहीं चाहतीं ।क्यों? कौन सा भय है उनको? बदनामी या नेकनामी
का सवाल तो ऐसी स्त्रियों से पृथक है क्योंकि "पतिप्रिया "नगीं होने से
आसपास की सचमुच भाग्यवान पतिप्रियायें उसकी किंचित हँसी उङातीं ही हैं ।
सुहाग में वैराग का ये भारतीय 'जीवन केवल भारत में ही संभव है ।हम ऐसी
कुछ स्त्रियों को जानते है 'अपने हाथ पर रखे आँवले की तरह 'और आपके परिचय
के दायरे में भी हो सकता है ऐसी 'सुहागिनें "हो सकतीं है ।क्या वे यश के
लिये अपना यौवन बिता देती है तनहाई में, क्या पति के ज़ुल्म उपेक्षा अभाव
सहकर वे कोई नोबेल पपरस्कार जीतेगी? या उनको कहीं समाज बहुत सम्मान मान
देने वाला है? कुछ भी तो नहीं!!!!
बल्कि होता ये है कि बच्चे अगर हैं तो 'धीरे धीरे पहले पिता से नफरत करने
लगते हैं बाद में माँ की उपेक्षा और अंत में वह 'पुनः एक नाउम्मीदी का
शिकार होतीं है जब जीवन बीत जाता है और यादों में रह जाती है सूनी रातें
उदास दिन कर्कश शब्द तीखे ताने भीगे तकिये और हाहाकार करती दुखती काया '।
क्यों करतीं है ऐसा न करें न!!!!!
मूर्खता है ये!!
आत्महनन है ये
अंधविश्वास और संस्कारों की जकङन है ये,
ऐसा "पवित्रता "सतीत्व और एकपुरुष वादी 'ऑर्थोडॉक्स विचारों की वजह से होता है ।
आज रॉकेट युग है 'सती 'युग नहीं ।
आप नहीं समझा सकते उनको । वे आपके साथ हर टॉपिक पर बहस कर लेगीं संभव हुआ
तो चाँद पर भी चलीं जायॆंगी, रॉकेट उङा लेगीं किंतु ''सुहागवादी
""अवधारणा से बाहर नहीं निकलना चाहतीं ।
आस्था या निष्ठा ने उनको दिया क्या?
कोई भी पूछ सकता है 'किंतु क्या ये सब कुछ पाने के लिये होता है???
भारतीय विवाह की नींव में ''कम या अधिक इसी ""सुहागवादी ''अवधारणा का ईंट
गारा चूना पत्थर सीमेन्ट लगा हुआ है ।
ये पीढ़ी दर पीढ़ी "व्यवहार से ही एक स्त्री दूसरी को सिखा डालती है ।
घरेलू हिंसा औऱ स्त्री शोषण के पीछे भी
यही ""सुहागवादी "अवधारणा जकङी रहती है ।जिससे धीरे धीरे अत्याधुनिक नई
पीढ़ी भारमुक्त हो रही है।
न तो कोई थोपता है न विवश करता है न ही आशा अपेक्षा से कोई स्त्री जानबूझ
कर ऐसे जीवन को चुनती है ',।ये देन है हालातों की फल है परवरिश और अध्ययन
का और चाहो भी तो इन कङियों को 'तोङना आसान नहीं '
एक विवाह की नींव कमज़ोर या पुख्ता इस पर नहीं कि पुरुष क्या कमाता या
लङकी पर कितने गहने कपङे पाती है, 'वचन जिनको न स्त्री याद रख पाती है न
पुरुष 'याद रहती है तो ""सुहाग की अवधारणा ।
ये सुहाग पति का शरीर नहीं 'पति का घर नहीं 'स्त्री का विवाह होना न होना
तक कई मामलों में नहीं 'बस एक विचार एक अहसास एक 'अमूर्त सोच है ।बूढ़ी
पुरानी औरतें जल्दी जल्दी चूङी बिंदी बिछुये बदलने को मना करतीं है
।कहतीं है जगतमाई ने सबको नाप तौल कर दिया है सुहाग सो घोल पीस कर पहनो
'मतलब जब तक चले तब तक पहनो नया तब ही लेना जब पुराने की अवस्था न रहे
'बच्चे जन्म या परिवार में सगोत्र की मृत्यु पर ही नयी चूङियाँ बदलने का
विधान बताती है वरना 'चूङी तब तक पहनो जब तक चले ।
""""आधुनिक उपयोगितावाद बाज़ारवाद ने 'फैशन का रूप कितना ही दे दिया हो
फिर भी 'सुहागवाद 'इन चमकतीं चीजों के भीतर कहीं गहरे बैठा है "अपर्णा
"बनकर '।
इसे समझने के लिये स्त्री होना पङता है 'कदाचित ही कोई पुरुष इसे समझ सके
',निभाना तो स्त्री को ही पङता है, लाख कानून बन जाये और हजार आधुनिकीकरण
हो जाये 'किंतु सुहागवाद कहता है ''फटे को सिला नहीं रूठे को मनाया नहीं
मैले को धोया नहीं तो 'गृहिणी स्त्री का जन्म बेकार ही गया ।
कहाँ कहाँ ये च्यवन की सुकन्यायें तुलसी की रत्नावलियाँ और यशोधरायें
जसोदायें 'है उनके सिवा कदाचित ही कोई जान सके और जाने भी क्यों उनका
जीवन उन्हे जीने दो ये वे चितायें हैं जो ज़िंदा जलती है हर रोज और शांत
होने पर कोई शोर नहीं होता कहीं 'न फूल चढ़ते है ।
©®सुधा राजे
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