Tuesday 30 April 2019

लेख: :सखा कृष्ण

कृष्ण आराध्य से अधिक वांछित पुरुष मित्र रहे हैं ,लगभग हर स्त्री पुरुष को एक कृष्ण सखा की आवश्यकता रही है ,जो  मन का हर भेद समझे हर राज जाने परंतु कभी किसी एक मित्र तक का भेद दूसरे पर प्रकट न करे ,न कभी तन छुये न वासना का रंचमात्र भी आये हाव भाव बनाव चाव लगाव में फिर भी कोली भर सकें हूकते मन की पीर पर जिसके काँधे घुटने और गोद तक में सिर धर कर रो सकें ,जो चिढ़ाये खिजाये भी और समझाये बुझाये भी ,जो परायी समझे  कि सीमा रेखा का पालन करे ,अपना हो इतना कि कोई विषय वस्तु ऐसी न हो कि उससे बतियायी न जा सके ,,,,,,
कृष्ण के रसिक रूप पर रीतिकाल के कवियों ने जमकर अपनी दरबारी हवसई भस थोपी परंतु कथासार तो यही है कि किशोरबालक कृष्ण जो एक बार बृज छोड़कर गये तो फिर राजकाज सुराज में ऐसे उलझे कि फिर मथुरा से हस्तिनापुर होते हुये द्वारिका जा बसे ,,,,
उस काल में विदेशी आक्रमण गौजयराष्ट्र के माध्यम से समुद्र पार से होने को रोका समुद्र पर नगरी बसाई ,,,,,
परॉंतु प्रशांत भूषण जैसे ,,,,,,,निहायत ओछी मानसिकता वालों को कृष्ण का बाल सखा कलाकार चपल बाल सेनानी रूप बालवीर रूप नहीं समझ आया न समाज सुधारक बालक दिखा ,,,ऐसों को  कान्हा और सड़कछाप सीटी मारते नंगई करते तेजाब फेंकते पीछा करते बलात्कार अपहरण वीडियो बनाने वाले और पढ़ना लिखना बाहर  घर छत कहीं रह पाना कठिन कर डालने वाले ,,,,,,वासना के अंधे नरपशु छिछोरों में कोई अंतर ही समझ नहीं आया ,,,,,!!!!!!!!
आयेगा भी कैसे अब कितने बचे हैं सचमुच के सखा कान्हावत नर ,जो नरत्व से परे हटकर मनुज रूप सखा हो सकें व्यक्ति रूप होकर परायी स्त्री या पराये पुरुष की सीमा भी मर्यादा में रख ले और लखन हनुमान की भाँति कृष्ण की भाँति पीडा़ सुख दुख भी समझ समझा बाँट लें ,,,,,,,
क्या प्रेम का यही रूप बचा है आज के लोगों के मस्तिष्क में ??? पीछा करो गालियाँ बको तेजाब फेंको जबरन वीडियो फोटो लेलो भद्दे अश्लील गंदे गीत गाओ फूहड़ इशारे करो रास्ता रोको ,नोचों खीचो रुलाओ ?????क्या ऐसा कोई उदाहरण कानाहा का है ?मीरा को कृष्ण चाहिये ,रुक्मणि को भी सुभद्रा को कुबजा को यशोदा को सत्यभामा को राधा को द्रौपदी को कुन्ती और गांधारी तक को कृष्ण चाहिये ,,,,,,
कृष्ण एक एक कृष्ण सबको चाहिये मुझे भी ,,,,,,,तुम नहीं समझोगे प्रशांतभूषण ,,,,क्योंकि तुम भीतर से रिक्त हो जो भरा है भीतर से वही पुकारता है मानता समझता है ,,,,,,,,©®सुधा राजे

Sunday 28 April 2019

कविता, गद्य चित्र: :लकड़ी पहाड़ और प्रकृति

तुमने देखी पहाङ पर खिलखिलाती लङकी ',
तुमने पहचानी मैदान में गुनगुनाती लङकी
तुम्हें भायी छत पर थिरकती लङकी '
तुमने एक रिश्ता बना लिया लङकी की "शराबी आँखों से, गुलाबी गालों से, हिरनी सी चाल से, और बलखाते बाल से,
कभी
कहीं
एक लङकी पहाङ पर टीले के पीछे, चट्टानों को हराकर पानी बना रही थी तुम नहीं देख पाये जब मैदानों में कोई लङकी लंबी फसलों को एक एक करके उगा रही थी और न तुम समझ सके जब छत पर से एक लङकी ने छलाँग लगा दी आकाश गंगा में तैरने को ',
आँखे बाल गाल और चाल की रंगत मादकता और सौन्दर्य के सुर थिरक कर विशाल पेङ बनकर "स्त्री "होते रहे मैदान पहाङ नदी आकाशगंगा और छतें सब मिलकर ढोते रहे "तुम्हें "और तुम कभी नहीं जान सके कि लङकियाँ पेङ बनकर "पैर जमाये खङी रही लोग फल फूल ईँधन और खाद लेते रहे "पेङ वहीं रहे "कैद "में जमीन की लङकियाँ चिङियाँ होकर आकाश नापती रहीं पेङ वहीं रहे और जब जब एक पेङ गिरा धरती पहाङ मैदान नदी और छतें "और वीरान सब कुछ और कमज़ोर हो गये "लङकियाँ "तारे बनकर आकाश में टिमटिमाती रहीं औरतें लालटेन बनकर घरों में ',और पेट बदन दिमाग की भूख के बाद जो बचा वह सारा कलुष कल के लिये खाद बनता रहा ',अब तक न लङकियों ने "पहाङ मैदान नदी पेङ आकाश को हराना छोङा है न जिन्दा रहने का बहाना छोङा है ',तुमने कभी महसूस किया कि जब धूप थी तो एक लङकी पेङ थी और जब भूख थी तो एक लङकी फल जब तुम पेङ काटते हो लकङियाँ बनकर लङकियाँ भी कटतीं है ये चिता पर जायेंगी या चली चूल्हे पर या बनेगी छप्पर कौन जाने
©®सुधा राजे

Friday 26 April 2019

दोहे: सुधा दोहावली

सुधा साँझ है मूक सी
तारे खा गये रात
बैरी है जो मीत थे ।
मीत करै ना बात।
सुधा चरौ बिरवार नै ।
हरौ भरौ सब खेत।
अब केवल बिरवार है।
खेतन ठाङी रेत।
सुधा जिन्हैं सौंपे मुकुट ।
बैई छील रये भाल
भाला जिनके हाथ दओ।
बैंच ऐंच रये माल।
सुधा कपट कैसो भरौ।
जा नृपनय में ठेठ।
सावन में उजङे सुआ।
चैतन उजङे पेट।
सुधा पाल कैं ब्याल खौं
विष दंतन खौं तोर।
तोर मोर फैलाऊत तै।
दे पुखरा में बोर।
सुधा काठ की देगची
बरू चढ़बै सौ बार।
जो नईयां निज देश को
बौ सत्तुर कौ यार।
सुधा कहौ घर घर जगैं
तरुण करुण रस छोङ।
रति रस छाँङो वारुणी।
वीर रौद्र पथ मोङ।
सुधा नीच सें कीच सें
मुंडा धर फिर बोल ।
काय नहीं रहे चौकसे।
तुपक धरैं कै ढोल??
©®Sudha Raje
बुंदेली
Jai Hind

Thursday 25 April 2019

गीत: मेरी बेटी ये नगर3

तेरे उस घर की मैं तामीर किया करती हूँ ',
जर्रे ज़र्रे को बेनज़ीर किया करती हूँ ',
तुझको दुनियाँ की बलाओं से बचायेगा वही ',
इल्म हासिल तू करे, क्या है ग़लत और सही ',
रौशनी दिल में रहे पीछे ज़माना होगा ''
मेरी बेटी तुझे घर छोङ के जाना होगा ',
ये तो तय है कि तेरा घर वो ठिकाना होगा ',
©®सुधा राजे

गीत...हमने तो हर बार मृत्यु से जीवन का वरदान लिया

मर जाने जैसा ही अनुभव है सपनों का मर जाना
दहन चिता जैसा ही तो है  "रिश्तों तक से डर जाना
मरे डरे टूटे रहकर भी नहीं झुकेंगे ठान लिया
हमने तो हर बार मृत्यु से जीवन का वरदान लिया
©®सुधा राजे

Wednesday 24 April 2019

गीत: मेरी बेटी ये नगर~2~

जब वो खाली सी निगाहों के सवाहिल से परे ',
खोजते होंगे मुक्म्मिल से किनारों को डरे
जब वो अश्क़ों के समन्दर में नज़र धुँधली सी ',
बुन रही होगी वो ख़्वाबों की सुबह उजली सी ',
तब तेरे सुर्ख लबों पै ये तराना होगा ',
मेरी बेटी तुझे घर छोङ के जाना होगा ',
ये तो तय है कि तेरा घर वो  ठिकाना होगा ',
©®सुधा राजे

गीत: मेरी बेटी ये नगर छोड़ के जाना होगा, तेरा अपना वो नया घर जो बनाना होगा

मैं सँवारूँगी, सजाऊँगी, निखारूँगी तुझे,
दिल के गोशे से हर इक सिम्त निहारूँगी तुझे ',
तू बङी होके सितारों के सफ़र पर होगी
पाँव मजबूत रहें अपनी डगर पर होगी ',
मेरे हर ख़्वाब को ताबीर में लाना होगा ',
मेरी बेटी तुझे घर छोङ के जाना होगा ',
ये तो तय है कि तेरा घर वो ठिकाना होगा ।
©®सुधा राजे

Tuesday 23 April 2019

दोहो: सुधा के दोहे

मैं मँगनारिन हरि घरै
माँगत रही सदैव ',
सुधा  हरिहिँ माँगत हरयेँ
भये हर दैव अदैव
©®सुधा राजे
का दैहौ का दै भये
का माँगू का नाँय ',
जो मँगतिन दाता करै
सुधा 'देओ ''कऊँ ''जाएँ 
©®सुधा राजे

Sunday 21 April 2019

सत्यकथा: आह और आँसू

आह और शाप
...........
सत्यकथा(सुधा राजे)
वह हमारा एक रिश्ते का संबंधी भाई था, भले ही जन्मभूमि और माता एक नहीं थी ,आयु में डेढ़ दशक बड़ा, और जन्म से भैया कहकर राखी बाँधते रहे हम,
एकाएक कुछ समय से महसूस हुआ कि"""स्पर्श अजीब होने लगे, और बातचीत के विषय भी"""
एक दिन आलीशान बंगले के बाहरी लाॅन में पढ़ने की पुरानी आदत आधी रात के बाद पढ़ने की, देखा वह भी  आया हुआ है और परिवार के अन्य पुरुषों के निकट ही मसहरी लगवा दी गयी है सेवकों द्वारा,  पढ़ते पढ़ते हम आराम करने के लिये दूसरे पलंग पर जा लेटे,
नींद तो नहीं ही आ रही थी सुबह11वीं की परीक्षायें थीं
तभी सीने पर हाथ रख दिया उस व्यक्ति ने,
नींद का बहाना था साफ समझ आ गया,
हम उठे और छत पर चले गये
मां दूसरे नगर रहतीं थी
बापू शिकार पर गये थे दल बल के साथ कई दिन बाद लौटने वाले थे
बंगले में सेवक प्रहरी और गुस्सैल भाई लोग थे
हम चुप चाप पृथक पृथक रहने लगे,
बरसों बरस राखी तो भी आता बँधवाने बेमन से बाँध देते
उस बार हम आई ए एस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे
हमारे कक्ष तक किसी का भी प्रवेश निषिद्ध था
पहुँचना सरल नहीं था
नगार थानेे पौर  कमरे आँगन ड्योढ़ी दालान गैलरी भीतरी सीढ़ियां पार करके ही पहुँचा जा सकता था
हम
पढ़कर विश्राम कर रहे थे
परिवार में उत्सव था
बहुत गीत संगीत चल रहा था
मन कवि भावुक उदास कब प्रसन्न कब पता नहीं,
कोई चुभती बात पर भरे मन से कुछ लिख रहे थे
वह व्यक्ति आया
हाल चाल पूछा
हमने औपचारिकता निभाई,  वह अचानक चेहरे को छूने लगा""स्पर्श" बहुत बहुत गंदा लगा
और हम विद्युत की तरह उठे पूरी ताकत से धकेल कर कक्ष बंद कर लिया,
एक पल के समझ नहीं आया""भैया? ????और ये सब सोच! !!!!
,
इन हाथों पर तो हम राखी बांधते हैं, इस माथे पर तो हम तिलक करते हैं ???पांव छूता है ये व्यक्ति हमारे,  आयु में पिता के समकक्ष है! !!
ओह
हम सँभल कर ध़ड़धड़ाते हुये सीढ़ियां उतरते हुये नीचे उतरते चले गये
बाहर तक
फाटक पर वह व्यक्ति निकल ही रहा था कि हमने धीमी किंतु बहुत बहुत बहुत कठोर आवाज में कहा
सुन! !!
.
,
उसने भिखारी की तरह हाथ जोड़ दिये
,कांपने लगा
,
हमने कहा शक्ल मत दिखा अब कभी इस देहरी पर गंदे कदम मत रखना,
,
वह चला गय
घर में नृत्यगान उत्सव था
हम ने कठोर मन से सांस ली विघ्न न हो
वरना लाशें गिर सकतीं थीं तत्काल
परंतु मन से दर्द की कराह निकली
ओह ये हाथ राखी से सजाये हमने ये हमारे लिये क्या भावना रखता था
हे जगदंबे रक्षा करो
हम आगे पढ़ने!""प्रयाराज""चले गये
एक वर्ष बाद आई ए एस की परीक्षा देकर
,परिवार में एक हादसे के कारण लौटे तो,
देखा वह व्यक्ति, बापू के साथ बैठक में बैठा है,
ओह तो ये समझता है कि
किसी को पता नहीं
छवि बना ली जाये!
,
हमने
जैसा कि परिवार की युगों पुरानी परंपरा है हर किवाड़ हर सिरहाने हथियार रहता है
किवाड़ के पीछे हाथ डाला
भारी कुल्हाड़ा रखा था
पूरी शक्ति से उठाया और चीख कर दौड़ा दिया
वह
भागता चला गया
बापू ने बहुत पूछा क्या हुआ
हमने कह दिया बस्स ये जानवर यहां नहीं दिखना चाहिये
बापू ने इससे पहले कभी हमें इस तरह बे अदबी करते नहीं देखा था
वह व्यक्ति दूर प्रांत चला गया
बहुत बाद में आया तो बहाने बना डाले कि बहिन को गलत फहमी हो गयी हम तो आँसू पोंछना चाहते थे, धोखे से कोहनी लग गयी,
हमने किसी से कुछ नहीं कहा न पूछा
बरसों बीत गये
एक दिन समाचार मिला
सड़क दुर्घटना में अनजान कसबे में वह व्यक्ति मर गया चिंथड़े होकर,  सड़क से खरोंच कर अवशेष लाये गये,  चिता जली""रक्षाबंधन के दिन""शव में कीड़े पड़ गये थे कि अरथी उठाने वालों पर गिर रहे थे।....
.....
.....
..
उस के बच्चे इंजी .डाॅक्टर हो गये
सबसे सहानुभूति और स्नेह रहा
बस हमने क्षमा भी कर दिया था
उसकी कोई बहिन नहीं थी
दूर का ही सही
रक्त संबंधी भी था
बहुत चर्चा नहीं की कि परिवार में कुटुंब में रक्तपात न हो
मानवपशु समझकर कि
जाको राखे जगदंबा की64 कला
सो का कर सके कोई बला
किंतु यह कदाचित ईश्वर प्रकृति और न्याय को मंजूर नहीं था,
उसके बच्चे निर्दोष थे सो बन गये
संवर गये
वह करोड़ों रुपये बैग में भरकर नयी संपत्ति खरीदने दूसरे प्रांत दूसरे नगर गया था साथ में पत्नी का भाई भी था वह भी मारा गया,  तब उसकी पत्नी का व्यवहार बहुत कड़वा था जिसने बहुत ही घटिया सोच दिखाई थी,
हमने35 वर्ष बाद
ये अंजाम देखा
...
...
ये सब सच है ©®सुधा राजे

Saturday 20 April 2019

ग़ज़ल:न तो तूने ही कहा था

sudha Raje
ना तो तूने ही कहा था ।
ना तो मैंने ही कहा ।
फिर मुहब्बत कैसे हो गयी ।
कैसा तुझसे राबिता ।
लफ़्ज़ तक लब पै नहीं आय़ा
कभी उल्फ़त का था ।
फिर मुहब्बत कैसे हो गयी
कैसा तुझसे राबिता ।
-****
आय़ा खुशियाँ बाँटने
था दर्द
देकर चल दिया।
हल्दियाँ थी या लहू
था हाथ पै
जो मल दिया ।
मैं तो रोयी थी बिछुङकर

तू था रोया क्यों बता ।
फिर मुहब्बत कैसे
हो गयी कैसा तुझसे
राबिता ।
©®
****
पेशबीनी foresightहम समझते
थे जिसे ,तक़दीर थी।
पेशबंदी cautionहद से
ज़्यादा ,पैक़र-ए-ज़ंजीर
थी।
पेशकश
proposalतेरी सही थी या
फिर मुहब्बत कैसे
हो गयी कैसा तुझसे
राबिता ।
वो ज़िगर सोज़ी heart
brokenहमारी,हमने कैसे
की ग़ुज़र।
चर्ख़े-अतलस paradiseसे
निकल
देज़ूर-ए-आतश the fire in dark
night हुब love हज़र stone
तुझको जब ना भूल पाये
खुद से हो गये लापता
फिर मुहब्बत कैसे हो गयी
कैसा तुझसे राबिता ।
तू कहाँ है मैं कहाँ हूँ
दरमियाँ सदियों के ग़म ।
है यकीं तुझपे मगर ख़ुद पै नहीं
अल्ला रहम ।"
शाहे-ख़ावर तुम हो औऱ्
टूटा सितारा मैं ""सुधा""

फिर मुहब्बत कैसे हो गयी ।
कैसा तुझसे राबिता ।
©®¶©®
Sudha Raje
Dta/
सुधा राजे
सुधा राजे ।
Sudha Raje
Apr 10 ·

Friday 19 April 2019

लघु कथा: बाबा भगत जी

गुड्डो के ससुर की मौत पर सारा मुहल्ला तरह तरह से याद कर करके शोक प्रकट कर रहा था। बेटियां आई डिडकारतीं हाय हाय करती बुआएँ भी और सबसे अधिक आस पड़ौस की बूढ़ी औरतें तरह तरह से बखान कर करके रो रहीं थीं।
गुड्डो भी रो रही थी , सबको अचंभा लग रहा था , हर दिन घर भीतर से लड़ने झगड़ने आवाजें आतीं रहतीं थी और गुड्डो ठहरी बदनाम बहू कि न काम काज करती है न दहेज लाई न रूप रंग है न बेटे जनमे ना ही कोई मेहनत मशक्कत का काम करती है रोटी पानी सानी में भी हर तरह से विफल बहू।
गुड्डो से ऐसी ही लाश के सामने पूछ बैठा जेठानी का लड़का धरमिन्दर, चाची तुम क्यों रो रही हो, व्यंग्य ही तो था, गुड्डो समझ गयी
और रोते हुये दहाड़ कर बोली अब क्यों मरा ये खूसट अब तो इसे जीना चाहिए था ये तो मुक्त हो गया मेरी पूरी जिंदगी बरबाद कर गया, मेरी बच्चियों को बचपन नहीं जीने दिया, मेरा दांपत्य जला गया, मैं न बहू न मां न बीबी का सुख ले सकी न समाज में कहीं बैठ उठ पायी,  न ही कहीं मायके सासरे के दावत भोज सभा में हँस गा बजा नाच सकी,  हर समय हाय रोटी हाय रोटी हाय पैसा, ये क्यों किया वो क्यों किया तरह तरह के आरोप, गालियां मार पीट कलह और रात के3 बजे से हंगामा, देर रात तक हाड़ तोड़ मेहनत के बाद बासी बची रूखी खाने पर भी चोरी चकारी छिनाले सब तरह के आरोप, हर तरह का हमला, नीच पने की हर हद पार कर चुका बुड्ढा जब बिस्तर पर पड़ा तो भी बक बक बक करता रहा, गू मूत हमने किये, चुगली तो  भी कुछ नहीं करती की
करता रहा, कभी एक फूटी कौड़ी हाथ पर ना रखी ना कभी दुआ आशीष दिये, पोती बहू सबको बेटे से अलग करके रखा और समाज में हर तरह से बेचारा भोला भगत बना रहा भीतर राक्षस था नौकरी बरबाद व्यापार बरबाद हर तरह की विरासत की चीज वस्तु बेच कर खा गया,  हर तरह से बाहरी औरतों का गुलाम सखा रसिया भीतर क्रूर भयंकर हिंसक नरपशु, साजिशों पर साजिशे करने वाला चटोरा सनकी पागल,
क्यों मर गया अब
ये देख हाथ कटे फट, रूखे बाल फटी बिंवाईयां
अब क्या लायक रही मेरी जिंदगी! !
न एक दिन दुलहन रह सकी मेहदी लगाये न दो दिन जच्चा बनी रह कर लेट सकी24 घंटे पहले पूरी सेंक कर गयी बच्चा जनने के36 घंटे बाद ही रोटी थेपने पर लगा दिया।
नरक का कीड़ा कहीं का
क्यों मर गया रे तू
अब इस बरबाद जिंदगी का करना ही मुझे क्या है।
,
सब तरह तरह से चर्चा कर रहे थे देखा,  बड़ी दुष्टन है, लाश पर भी नहीं बख्शा बुड्ढे को,
धरमिन्दर को याद आया चाची का फटा सिर बहता लहू और बाहर आकर हाय हाय करके अपने जांघ पर बहू के दांतों के निशान दिखाकर गंदी गंदी बातें बकता बाबा भगत
,
©®सुधा राजे

ग़जल:मैं बे वफ़ा नहीं था दोस्त, बस ग़रीब था

Sudha Raje
मैं बेवफ़ा नहीं था दोस्त
बस ग़रीब
था।
वो मामला हुनर
का नहीं था नसीब
था ।
ख़ुबसूरती से जिसने निभाई
थी दुश्मनी ।
वो ही क़रीब सबसे मग़र
हाँ रक़ीब
था ।
था वो शहर
का चढ़ता सितारा बुलंद
ज़ां
ज़र बर्क था वज़ूद मगर
बदनसीब
था ।
माँगा ज़हर जो तंग आके
कशम-क़श से
जब।
दे दी दुआयें पर दवा न
दी तबीब
था।
था जिसपे
भरोसा कि समंदर में आ
गये ।
क़श्ती बदल ली उसने
किनारा क़रीब था।
धरती शज़र
को खा रही चंदा को आसमां।
उङती हवा पै अज़्म वो मंज़र
अज़ीब
था।
यूँ शक्ल से
लगता था बादशाह
वो मग़र:
था नंगे बदन दर्द से काँधे
सलीब
था।
नालिश कराई भाई ने घर
मेरा गिराकर ।
हिस्से में शक़ था फर्क़
का बस इक
ज़रीब था।
गूँजे थे जिसके मीठे तराने
बहार में ।
रोता हुआ वो मैं
था ना कि अंदलीब
था।
कैसे सुधा बतायें ज़माने
को क्या सहा।
दीमक
सा चाटता वो अलम
ज़ां हबीब था।
©®¶
Sudha Raje
Apr 12 at
1:14pm 2007

Thursday 11 April 2019

लोकगीत~::हुरियारो

Sudha Raje
सैरे ठनगन तोय भुला दऊँगो
मैं ऐसो हुरियारो गोरी
मैं ऐसो हुरियारो गोरी
मैं ऐसो मतवारो गोरी
मैं मतवारो गोरी
तोय प्रेम की भंग
पिला दऊँगो मैं
ऐसो रसवारो गोरी
तोरी अँखियाँ बङी नशीली रे
मोय चढ़ गयी आज हठीली रे
तेरी छैल छबीली सूरतिया
अलबेली नार नवेली रे
तोय फागण थार बनाय दऊँगी मैं
ऐसी रँगवारी छोरी
मैं ऐसी रँगवारी छोरी
मैं ऐसी रंगवारी छोरी
मैं नैना कजरारी गोरी
मैं कजरारी गोरी
तोय घोर के रंग बनाय
दऊँगी
चूनर पचरँग
वारी मोरी
©®¶©®
Sudha Raje
Dta/
तोय मैँ छेङूगौ गली गली
तोय मैं टेरूँगो कली लली
तोपे गुलाल मैँ डारूँगो
और लुक छिप तोय निहारूँगो
सीटी पै नाच नचा दऊँगौ
मैं ऐसो गवनारो गोरी
तोय थाने बंद करा दऊँगी
लोगिनियन सौँ पिटवा दऊँगी
तू जेल की चक्की पीसेगो
खीसे सें रूपिया हीँचैगो
मेरी गुईयाँ थानेदारिन है
और भौजी पटवारी मोरी
©®¶©®¶
Sudha Raje
Dta/
Mar
20 ·

Tuesday 9 April 2019

गीत; अरे बावले क्यों रोता है

This is for whom are gave up  hope to  live

घोर घोर घनघोर तिमिर के बाद उदय होता है सूरज
दारुण दुख के बाद व्यक्ति का उदय मरण  में से होता है ,
अरे बावले क्यों रोता है,
दुख में परम  सृजन होता है
:::::::::::::::::::::::::::::::::

1**चलो चलो चल पड़ो न रुकना लक्ष्य जरा बस तनिक दूर है 
भय अवसाद निराशा दुख पर तुझे   विजय पाना जरूर है

पथ के सारे घाव यात्रियों के उपहास भुलाता चल
दौड़ ना सके तो अंगुल-अंगुल भर पद खिसकाता चल

पीर प्रसव की सोच सृष्टि का जन्म रुदन में से होता है
अरे बावले क्यों रोता है!
दुख में परम  सृजन होता  है

::::::::::::::::::::::::::::::::::
2** निन्दा व्यंग्य विनोद मात्र से आशा तोड़  पलायन मत कर
संघर्षों के बाद ही विजय मिलती है तू   हिम्मत तो  कर

गर्भवरण से देहमरण तक रो हँस गा बहलाता चल
किंचित भर मुस्कान बचे ना तो भी गा बतियाता चल

नए वृक्ष का जन्म जीर्ण के पतन मरण में से होता है
अरे बावले क्यों रोता है!
दुख में परम सृजन होता है!
::::::::::::::::::::::::::::::::::::

3**क्या कहते हैं लोग न सोचो, मत सोचो निंदक अशिष्ट है
एकाकी रह सके भीड़ में वो विरला सबसे विशिष्ट है

कोई नहीं तेरा तो क्या , तू सबको मीत बनाता चल
अहित भी करें सब तेरा तू गह देवत्व भुलाता चल

अनल विहग का जन्म स्वयं की भस्म दहन में से होता है
अरे बावले क्यों रोता है !!!
दु:ख में परम सृजन होता है! !
:::::::::::::::::::::::

4**हार कहाँ ये बस प्रयास था  करो अभी अभ्यास प्रबल
ये प्रयत्न कुछ कम था फिर से बढ़े विजय की तृषा अटल

करो वार पर वार वार पर वार प्रहार बढ़ाता चल
चूर चूर लथ पथ हो श्रम से बाण प्रगाढ़ चढ़ाता  चल

ध्वनिभेदी शर बहुत गहन अभ्यास परम में से होता है
अरे बावले क्यों रोता है !!
दु:ख में परम सृजन होता है! !
©®सुधा राजे
:::::::::::::::::::::::::::::::::::


(लक्ष्य, ,,,,निराशा डिप्रेशन आत्मघात नशे पलायन से बचाना)

दोहे: सुधा दोहावलि


गुम्मा चूने रेत से कब बनते घर-बार
सुधा त्याग निजता करे ।
तौ पाबै परिवार।
©®
सुधा राजे

कविता; :आखिरी इक बात

आखिरी इक बात जो मैं कह न
पायी आज़ तक ।
थी मुहब्बत सीने में चुपके
निभायी आज तक ।
दर्द ही ज़ीने का मेरे
था सहारा जी लिया ।
गीत वो छलके दो आँसू पी न
पायी आज तक।
रास्ते मंजिल औ साहिल सब अलग
होते गये ।
इसलिये दुनियाँ से भी नज़रें
चुरायीं आज तक।
आँसुओं का एक
ही दरिया रहा सैलाब पर ।
था किनारा सामने
कश्ती डुबाय़ी आज तक।
तू मेरा होता न होता मैं
किसी की भी नहीं।
तेरे आगे इसलिये पलकें
झुकायीं आजतक।
उम्र का हर दौर ग़म
पीती गयी जीती गयी ।
मार खा रोयी नहीं औऱ् चोट
खायी आज़ तक
थामकर उँगली किसी की चलने से से
क़तरा गये
हर कदम वो हाथ आँखें याद आयी
आज तक
दर्द का हर गीत
अपना सा लगा पाले रही
जब तेरी चिट्ठी जलाई सो न
पायी
आज तक ।
एक बस तेरे ज़िकर से ओढ़
लीं ख़ामोशियाँ
जब किसी ने हाल पूछा मुस्क़ुरायी
आज तक ।
ये हुआ अच्छा कि हो गये
अज़नबी अपने "सुधा "।
अब मैं खुद को खोजती हूँ मिल न
पायी आज तक
©®¶
Sudha Raje
Dta★
Sunday at
10:09am ·

उपन्यास: एक अधूरी गाथा, "सुमेधा"

9/4/13/
शराफत **कहानी**भागॆ**17**
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सुमेधा ने खुद को वक़्त और हालात के हवाले ना करके ज़ीने का फ़ैसला किया   । तो हालात मुस्कराये ओह तो इतना भरोसा खुद पर अब तो चक्रव्यूह रचना ही पङेगा ।

सुमेधा ने गुलाब बाग में पूरे एक हफ्ते बाद कदम रखा था   । आप्रवासी भारतीय मेहमान वहाँ मौजूद थे ।ये मुलाकात मामी सा ने फिक्स करायी थी सुमेधा की जिद पर।
बेंत की कुर्सियाँ गोल टेबल के चारों तरफ पङी थीं  ।  शाम की चाय की औपचारिकता के बीच बात सुमेधा ने शुरू की ।

आपको मेरे पिता माँ के बारे में पता है??
जी!  हालाँकि मेरे परिजनों को ऐतराज़ था मगर मुझे नहीँ । आपकी माँ पिता दोनो राजपूत थे यही काफी है     ।
लेकिन हम जातिवादी नहीं है ।

उससे क्या मैं भी नहीं हूं परिवार तो है    मेरे पिता के सामंत के पुत्र हैं राजपरिवार से नहीं ।

मेरी माँ भी किसान परिवार से थी चलेगा ।

मैं चाहती हूँ जीरो डावरी मैरिज ।

देखिये दहेज के मैं भी सख्त खिलाफ हूँ लेकिन रस्में नहीं तोङ सकता ।

तो ये शादी नहीं हो सकती कुँवर जी ।

लेकिन आपको कमी किस बात की है बाई सा राज?? ।
पिता क्लास वन ऑफिसर हैं । मामा का आलीशान कारोबार है !!!??

बात उसूल की है कुँवर जी   ।

कैसा उसूल,? विवाह के बाद वही घर आपका होगा!! आप की हर चीज के अलावा जो हमारा है वह भी आपका होगा??? कमी हो या माँगा गया हो तब तो कोई परेशानी है ।

आप यूँ समझ लीजिये जो हमें पाँच कपङों में जो हमने पहने हो ले जाये बस वही हमसे विवाह कर सकता है  
हमें बङों से बात करनी पङेगी ।

तो आप अपने निजी फैसले बङों से पूछकर लेते है?? ।

न नहीं पर ये निजी फैसला नहीं है ।

तब तो शायद इनकार की दूसरी वजह है कुँवर जी हमें केवल खुद फैसले लेने वाले लोग पसंद हैं ।

मंदिर की घंटियाँ बजने से दोनों उठ गये । भगवतीबाई के साथ सुमेधा तो ऊपर चली गयी लेकिन मेहमान बेचैन टहलता रहा बङी देर ।

दूसरी सुबह मेहमान रवाना होने की खबर मिली तो सुमेधा खुशी से उछल पङी । ग्रामोफोन पर माईकल जैक्सन बजाकर उसने अंधाधुंध डांस शुरू कर दिया । दोपहर को रसोङा में जाकर कुछ गरम बूँदी छाँटने का मैनू बनवाया     । जो उसे और मामा सा को भी पसंद था ।
उसने स्पेशली गुलाबी साङी पहनी और ताश की महफिल में पहुँच गयी। कुछ आर्मी वालों की पत्नियाँ भी थी । आज सारे ट्रम्प सुमेधा को मिल रहे थे और सबके पत्ते भद्द में जा रहे थे । नीहारिका के बच्चे ठिनके

मासी सा!!!! चीटिंग???
मामी ने भी शो करा ही लिया ।
ग़ज़ब बाईसा!!!?!!  तीन इक्के!?!

सुमेधा खिलखिला पङी   । भगवतीबाई ने बलायें लीं । रघुनाथ जी नजर न लगे ।

परंतु हालात हँसे नज़र तो लग चुकी थी ।

शाम को इंद्रपाल का फोन आया जिसे सुनने के लिये जनानी बैठक तक आना पङता था । वहाँ लंबा तार लिये पीतल का फोन लकङी की ट्रे में लिये दरबान आता । महल के सारे फोन मामा जी की रिशेप्सनिस्ट जयंती अटैण्ड करती ।
इद्रपाल बेहद घबराया हुआ था ।

दीदी!!!!  मुझे बचा लो दीदी । पुलिस मेरे पीछे है   । पापा तो उलटा मुझे पुलिस से मिलके खोजते फिर रहे हैं । मेरे सारे दोस्त पकङे गये । मैं मर जाऊँगा दीदी??!! 

व्हाट!!!  पुलिस??? फरार?, क्या किया तुमने इंद्रे!!!!

दीदी मैंने किसी को नहीँ मारा । मुझे कुछ पता नहीं । मैं नशे में था । सबेरे घर जाना चाहता था वहाँ पुलिस का पहरा था   ।

रात को हम लोग जिसके कमरे पर शराब पी रहे थे वो लङका मर गया  । लेकिन मैं तो वहाँ से क्रिस्टी के घर चला आया था ।

अब तुम कहाँ हो,,?  सुमेधा गुर्रायी

पहले बङी माँ की कसम खाओ किसी को नहीं कहोगी??

इंद्रुपाल!!!!!!!!!!

सुमेधा इतनी जोर से चीखी कि रिशेप्निस्ट कैबिन में आ गयी   ।

बाई सा राज कोई परेशानी हुकुम???

नही आप जाईये

कौन मदद करेगा???
सुमेधा चिंता से सोच रही थी   । कि शेखर की नीली आँखें गाजरी लाल होंठ सफेद गुलाबी चेहरा नजर में झूल गया   ।

जैसे कह रहा हो पुकार तो सही । मैं न आऊँ तो कहना   ।

वह राहत से साँस लेकर
इंद्रपाल का दिया पता याद करने लगी
फिर सोचा
शेखर पर इतना भरोसा क्यों??,???
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Sudha Raje
शेष फिर