सत्यकथा: आह और आँसू
आह और शाप
...........
सत्यकथा(सुधा राजे)
वह हमारा एक रिश्ते का संबंधी भाई था, भले ही जन्मभूमि और माता एक नहीं थी ,आयु में डेढ़ दशक बड़ा, और जन्म से भैया कहकर राखी बाँधते रहे हम,
एकाएक कुछ समय से महसूस हुआ कि"""स्पर्श अजीब होने लगे, और बातचीत के विषय भी"""
एक दिन आलीशान बंगले के बाहरी लाॅन में पढ़ने की पुरानी आदत आधी रात के बाद पढ़ने की, देखा वह भी आया हुआ है और परिवार के अन्य पुरुषों के निकट ही मसहरी लगवा दी गयी है सेवकों द्वारा, पढ़ते पढ़ते हम आराम करने के लिये दूसरे पलंग पर जा लेटे,
नींद तो नहीं ही आ रही थी सुबह11वीं की परीक्षायें थीं
तभी सीने पर हाथ रख दिया उस व्यक्ति ने,
नींद का बहाना था साफ समझ आ गया,
हम उठे और छत पर चले गये
मां दूसरे नगर रहतीं थी
बापू शिकार पर गये थे दल बल के साथ कई दिन बाद लौटने वाले थे
बंगले में सेवक प्रहरी और गुस्सैल भाई लोग थे
हम चुप चाप पृथक पृथक रहने लगे,
बरसों बरस राखी तो भी आता बँधवाने बेमन से बाँध देते
उस बार हम आई ए एस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे
हमारे कक्ष तक किसी का भी प्रवेश निषिद्ध था
पहुँचना सरल नहीं था
नगार थानेे पौर कमरे आँगन ड्योढ़ी दालान गैलरी भीतरी सीढ़ियां पार करके ही पहुँचा जा सकता था
हम
पढ़कर विश्राम कर रहे थे
परिवार में उत्सव था
बहुत गीत संगीत चल रहा था
मन कवि भावुक उदास कब प्रसन्न कब पता नहीं,
कोई चुभती बात पर भरे मन से कुछ लिख रहे थे
वह व्यक्ति आया
हाल चाल पूछा
हमने औपचारिकता निभाई, वह अचानक चेहरे को छूने लगा""स्पर्श" बहुत बहुत गंदा लगा
और हम विद्युत की तरह उठे पूरी ताकत से धकेल कर कक्ष बंद कर लिया,
एक पल के समझ नहीं आया""भैया? ????और ये सब सोच! !!!!
,
इन हाथों पर तो हम राखी बांधते हैं, इस माथे पर तो हम तिलक करते हैं ???पांव छूता है ये व्यक्ति हमारे, आयु में पिता के समकक्ष है! !!
ओह
हम सँभल कर ध़ड़धड़ाते हुये सीढ़ियां उतरते हुये नीचे उतरते चले गये
बाहर तक
फाटक पर वह व्यक्ति निकल ही रहा था कि हमने धीमी किंतु बहुत बहुत बहुत कठोर आवाज में कहा
सुन! !!
.
,
उसने भिखारी की तरह हाथ जोड़ दिये
,कांपने लगा
,
हमने कहा शक्ल मत दिखा अब कभी इस देहरी पर गंदे कदम मत रखना,
,
वह चला गय
घर में नृत्यगान उत्सव था
हम ने कठोर मन से सांस ली विघ्न न हो
वरना लाशें गिर सकतीं थीं तत्काल
परंतु मन से दर्द की कराह निकली
ओह ये हाथ राखी से सजाये हमने ये हमारे लिये क्या भावना रखता था
हे जगदंबे रक्षा करो
हम आगे पढ़ने!""प्रयाराज""चले गये
एक वर्ष बाद आई ए एस की परीक्षा देकर
,परिवार में एक हादसे के कारण लौटे तो,
देखा वह व्यक्ति, बापू के साथ बैठक में बैठा है,
ओह तो ये समझता है कि
किसी को पता नहीं
छवि बना ली जाये!
,
हमने
जैसा कि परिवार की युगों पुरानी परंपरा है हर किवाड़ हर सिरहाने हथियार रहता है
किवाड़ के पीछे हाथ डाला
भारी कुल्हाड़ा रखा था
पूरी शक्ति से उठाया और चीख कर दौड़ा दिया
वह
भागता चला गया
बापू ने बहुत पूछा क्या हुआ
हमने कह दिया बस्स ये जानवर यहां नहीं दिखना चाहिये
बापू ने इससे पहले कभी हमें इस तरह बे अदबी करते नहीं देखा था
वह व्यक्ति दूर प्रांत चला गया
बहुत बाद में आया तो बहाने बना डाले कि बहिन को गलत फहमी हो गयी हम तो आँसू पोंछना चाहते थे, धोखे से कोहनी लग गयी,
हमने किसी से कुछ नहीं कहा न पूछा
बरसों बीत गये
एक दिन समाचार मिला
सड़क दुर्घटना में अनजान कसबे में वह व्यक्ति मर गया चिंथड़े होकर, सड़क से खरोंच कर अवशेष लाये गये, चिता जली""रक्षाबंधन के दिन""शव में कीड़े पड़ गये थे कि अरथी उठाने वालों पर गिर रहे थे।....
.....
.....
..
उस के बच्चे इंजी .डाॅक्टर हो गये
सबसे सहानुभूति और स्नेह रहा
बस हमने क्षमा भी कर दिया था
उसकी कोई बहिन नहीं थी
दूर का ही सही
रक्त संबंधी भी था
बहुत चर्चा नहीं की कि परिवार में कुटुंब में रक्तपात न हो
मानवपशु समझकर कि
जाको राखे जगदंबा की64 कला
सो का कर सके कोई बला
किंतु यह कदाचित ईश्वर प्रकृति और न्याय को मंजूर नहीं था,
उसके बच्चे निर्दोष थे सो बन गये
संवर गये
वह करोड़ों रुपये बैग में भरकर नयी संपत्ति खरीदने दूसरे प्रांत दूसरे नगर गया था साथ में पत्नी का भाई भी था वह भी मारा गया, तब उसकी पत्नी का व्यवहार बहुत कड़वा था जिसने बहुत ही घटिया सोच दिखाई थी,
हमने35 वर्ष बाद
ये अंजाम देखा
...
...
ये सब सच है ©®सुधा राजे
Comments
Post a Comment