कविता: :माँ कहां जाए
सब की बात नहीं परन्तु बात है तो है
और है उन पिता, बाऊजी, बापू, दाता, पापा, डैड, और जनक की,
जो केवल
"सौन्दर्य दहेज और निर्विरोध दासता"
की योग्यता के आधार पर सैकड़ों को ठुकरा कर एक को ले आते हैं
कपड़ों की गठरी में बाँध कर
ढेर सारे गहने सामान रुपये फल अन्न राशन बर्तन और जबरन दबाव डालकर वसूली गयी वस्तुओं धन और उपहारों के साथ
जबरन इच्छा अनिच्छा की परवाह किये बिना ही
विवश करते हैं
बार बार दैहिक उपभोक्ता बनकर
गर्भधारण के लिये
पकाती
बनाती
छीलती
काटती
दावती
उसाती
बीनती
फटकती
बुनती
सिलती
काढ़ती
पाथती
थेपती
माँजती
फींचती
धोती
बुहारती
पोंछती
लीपती
पोतती
पिटती कुटती गाली ताने अपमान सहती रोती सिसकती रहती
गर्भ लिये
बिना पूरा पोषण ग्रहण करे
दर्द से करवट बदलती
दिन से रात तक
रात से दिन तक
सब की सुनती मन ही मन सिसकती
फिर
आशा लगाती
अब की बार" बेटा "ही होगा, सब दलिद्दर निकल जायेगा"सब का प्रेम मान सम्मान मिलने लगेगा"
विवश करके भेजी जाती
जांच कराने
लड़की है
गर्भ गिराने की यातना जानते हो?
कैंची से गर्भ के भीतर तक हाथ डालकर निकाल दिये जाते हैं अधजमे दही से मांस के रक्त के लोथड़े
कई सप्ताह
बहता रहता है लहू
पोटली पोटली भर
कपड़े बाँधे
दिन दिन भर
सरदी बरसात गर्मी में
बिना विराम के
लगी सहती सुनती रहती
दर्द के साथ
काम कौन करेगा?
तेरा बाप, तेरा मां का###
कान दिल दिमाग जलते रहते हैं
लहू जाँघों से बहकर
एड़ियों तक सरकता रहता है
पीड़ा पेट के निचले हिस्से से निकल कर
जिस्म के रोम रोम तक फिर आत्मा की कोर तक जा धँसती है
एक गांव में ही नहीं नगरों की बस्तियों में भी
हत्यारी दाईयों को बुलाया जाता है
एक सिटेंगल नाम की लकड़ी फँसा दी जाती है
अवांछित गर्भ मिटाने को
कई दिन गर्भाशय में फँसी लकड़ी गर्भाशय का मुँह खोलकर सारा
लहू जमते जमते बाहर निकाल डालती है
पीड़ा की सीमा पर जाकर सिसकती
चीखें पीकर
रसोई चलती है
बरतन चमकते है
कपड़े धुलते हैं
जहरीली गोलियां खिला दीं जाती है
गर्भ गिरने से पहले
पूरी देह जलने पिघलने तड़पने लगती है
रक्त ही रक्त हर बार हर तरफ
रक्तस्नात माता
सुनती रहती है ताने
रंग रूप के, धब्बे दाग झांईयां झुर्रियां निशान हर बार बढ़ते जाते हैं
यौवन बीतते बीतते
वह समझ जाती है
देह की मशीन का मतलब
दो तीन मार दिये गये
दो तीन जन्म दे दिये गये
बच्चों के बीच
रोटी कपड़ा बरतन साफ सफाई
के बदले
नहीं मिलती कोई मजदूरी
कपड़े, खाना
आधे बिस्तर पर अक्सर स्वयं दूसरे का बिस्तर बनकर रहना
इतनी ही हकदारी पर
ताने डांडपट जलील करना
सिर झुकाकर
आते मायके वाले
धीरे धीरे आना बंद कर देते हैं
पोतड़ों से निकले बच्चे
यूनिफाॅर्म पहननने लगते है
लंच किताबें फीस
चुकाते पिता का रुतबा कायम रहता है
मां बन्धुआ मजदूर है
बाबा दादी बुआ चाचा पापा कोई भी मां को कुछ भी कहीं भी किसी के भी सामने कह सकता है
मां
व्रत उपवास करती है
सिंदूर बिंदी चूड़ी बिछुआ सुहाग के डर से पहनती है
काटने लगते है जिस्म को हर तरह से गहने
पहन कब पाती है
धरे रहती है
वक्त जरूरत के लिये
पापा जब चाहे गिरवी रख देते है
विवाह कारज उपहार में दे देते हैं
बड़े होते बच्चों की जरूरतों में बिक जाते हैं गहने
बच गये तो बेटी या बहू को सौंप दिये जाते हैं
माता कहार की तरह
पालकी में दुलहन ढोने वाले तरबतर पसीने से नहाये मजदूर सी
रुपया पैसा गहना राशन
बचाती ठोकरें खाती
ढोती रहती है संपत्ति का भार
बस यही है पिता का मां के हिस्से आया प्यार
हर कागज पर पापा का नाम
हर जगह
पापा की बीबी पापा ही के बेटे बेटी पापा का ही घर खेत जमीन
मां
के हिस्से केवल महानता के किस्से
पापा शाम के शराब, दिन में सिगरेट
समय समय पर होटल की दावत लेते रहते हैं
मां कोरी धोती पहनकर पापा के लिये व्रत पूजा करना चाहती है तो
साड़ियों की फरमाईश कहकर जलील करते रहते हैं
मां सहम जाती है
कि मुहल्ले की पचास औरतों के बीच परिवार की प्रतिष्ठा रखनी है
बखानती है पति के दुलार प्यार चाव के किस्से
मायके से आये उपहारों की झूठी कहानी
छिपाती रहतीं हैं
नीले घाव, टांके, खराशें
जूतों डंडों लातों घूसों थप्पड़ों गालियों की हर पोर पर बैठी निशानी
बच्चों को प्यारे लगते हैं पापा
मां रोकती है टोकती है पैसा नहीं देती
पापा लाते है उपहार
सामान और पूरे करते है मनोरंजन के अरमान
मां खाद बन जाती है
बच्चे बढ़ते रहते हैं
पापा गर्व से हर बार दो गज पहाड़ चढ़ते रहते हैं
मां के हिस्से
कोठरी का वही कोना रह जाता है
जहां हर बार लहू का दाग बहता रहा जीवन को बच्चों के नाम पर सह जाता है ©®™सुधा राजे
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