गद्य कविता: ::रोना कब तक,
रो रही हो !!!
रो लो
किस लिए ?
पिता ने मायके नहीं रहने दिया ?
भाई भाभी बुलाते पूछते नहीं ?
पति मारता पीटता गाली देता है ?
ससुराल वाले सब कम दहेज मिलने के ताने देते अपमानित करते नीचा दिखाते हैं ?
या
पुराने प्रेमी ने बाप की पसंद वाली लड़की से शादी कर ली और तुम अब यादों के पहाड़ से नीचे गिर पड़ी हो ?
मान सम्मान नाम सब पर धब्बा लेकर ब्लैकमेल हो रही हो कि तुम्हारे संदेश तसवीरें सुबूत सब उस बेवफा के पास हैं और डर लगता है ?
या
इसलिये कि तुम बहुत काबिल योग्य सहनशील त्यागी बलिदानी चरित्रवान परोपकारी रही और मायका बोझ समझ कर पूछता नहीं
सासरेवाले ठोकर मार कर बार बार लतियाते हैं तुम जाओगी कहाँ औलाद का क्या होगा ?
मजबूर हो कमजोर हो डरी हो ?
या समाज से बदनामी से कचहरी थाना पुलिस पड़ौस और समाज के "क्या कहने "से आतंकित हो ?
जबकि
सब सहती रहती हो ?
रोओ ,
रोने से अगर तुम्हें "घर "मिल सके तो रोओ ,
रोओ अगर रोने से तुम्हारा सम्मान बढ़ सके तो रोओ ,
रोओ अगर रोने से संतान पढ़ सके बढ़ सके सफलता के पहाड़ चढ़ सके तो रोओ
रोओ अगर रोने से यश कीर्ति प्रसिद्धि नाम पहचान और सुख शांति मिल सके तो रोओ
रोओ चीख कर या सुबक कर सिसक कर या तड़प कर रात को छिपकर या दिन में सबको दिखाकर हिलक हिलक कर या मुँह भींच कर रोओ ।
रो ही लो जमकर अगर रोने से तुम्हारे शरीर पर पड़े नीले काले कत्थई निशान मिट सकें
और
लोगों का इरादा बदल जाए तुम्हारी कोख में लड़की है तो नहीं मिटाने का ,
बेटियाँ जो बच गयीं मरने से उनके लिए तुम्हें नहीं सताने लतियाने गरियाने का ,
रो लो
अगर रोने से तुम्हारे लिये खुल सके मुक्ति का द्वार यातना अपमान पराश्रयता से ,
,रो लो अगर रोने से मिल सके सिर उठाकर जी सकने का हक ,
अगर रोने से तुम्हें लोग घूरना छेड़ना टहोकना ,बुरी नजर डालना बंद कर दें तो खूब रोओ ,
रोओ यदि रोने से कानून अदालत संसद राजनीति से तुम्हें न्याय मिल सके ।
,
अगर रोने से तुम्हारा पिता भाई पति पुत्र पड़ौसी नातेदार समाज के ठेकेदार तुम्हें ,
न्याय हक अधिकार साधन दिला सकें तो रोओ,
,
,
,
नहीं मिलेगा,
,
कुछ नहीं मिलेगा ,
,
,
क्योंकि तुम्हें मालूम ही नहीं तुम रो क्यों रही हो !!!,
,
तुम रोने पर विवश हो क्योंकि ,
तुमने प्रेम चुना ,स्वालंबन नहीं
तुमने सेवा चुनी शक्ति नहीं
तुमने लोगों की परवाह चुनी अपना सम्मान नहीं
तुमने परंपराएँ चुनी ,सुधार नहीं
तुमने कामना वासना सहज दान चुना अपना स्वाभिमान नहीं ,
घर
जो तुम्हें स्वयं बनाना था ,
तुम्हारे लिए तुमने नहीं दूसरों ने चुना ,
वर जो तुम्हें तब चुनना था जब तुम अपना समस्त भार
स्वयं उठा पाने में सक्षम हो जातीं तुमने तब चुनने दिया दूसरों को
जब तुम अपना कुछ भी स्वयं के हुनर दम खम से नहीं खरीद सकतीं थीं ,
तुमने जब नाते चुने तु "याचक थीं दाता नहीं "
तुमने जब खुशी चुनी वह तुमसे नहीं दूसरे से मिलने न मिलने पर निर्भर थी ,
तुम
ने स्वयं को कब चुना ?
रोओ ,
अगर रोने से तुम्हारा बीता समय
भोगी यातनाएँ पलट सकें ,
,
नहीं तो उठो स्त्री
अयोध्या हो या लंका
इंद्रप्रस्थ हो या जंगल
तुम्हारा वास्तव में केवल तुम ही
सम्मान कर सकती हो
कोई किसी को बैठकर नहीं खिलाता
बेटे वारिस बन जाते हैं बेटियाँ दहेज ले जातीं हैं
बेटे पहले "आजीविका "तलाशते हैं बेटियों को कमाऊ
प्रेमी पति की तलाश रहती है
हथेली फैलाओगी तो नही उठा सकोगी सिर
क्यों इतनी निरीह !!
न परोपकार है न परहित
यह है आत्मोत्पीड़न
स्वयं का सम्मान करो
उठो 'मिल ही जाएगा कोई न कोई वन
कोई कुटिया कोई कोना ,
क्यों रोना !!!!!!!स्वयं का भार स्वयं उठाने की सबसे पहले करो तैयारी
क्या अंतर पड़ता है
ठेकेदार पुरुष कोई धनिक है
या भिखारी
जिस दिन तुम्हारे बदन पर अपने खरीदे कपड़े गहने पेट में अपना लाया भोजन होगा ,
उस दिन
ये अपमान तुमसे दूर सौ योजन होगा ,
निर्णय सुनना नहीं करना सीखो
स्वाभिमान से एक बार स्वयं को
स्थान देने का अभियान तो करो ,
अभ्यास इन उंगलियों पर मेहदीं का नहीं
श्रम और शक्ति का रहे
देखें फिर कौन तुम्हें अबला कहे ।
©®सुधा राजे
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