सुधा राजे का लेख :- बदलते वैश्विक परिवेश और शक्ति ।

सुधा राजे का लेख :- बदलते वैश्विक परिवेश और शक्ति संतुलन।

राजनीति और जीवन में किसी अपरिवर्तनीय नियम से नहीं चला जा सकता,
साम्यवाद समाजवाद 'सोवियत संघ रूस के साथ उदय हुआ था और सोवियत संघ रूस
की "लौहआवरण "नीति के भीतर बाल्टिक राज्यों और पौलेण्ड बल्गारिया
रोमानिया चेक गणराज्य कोरिया और चीन तक फैलता गया ',क्योंकि इन राज्यों
में "तानाशाहों ने मजदूरों पर भीषण ज़ुल्म किये थे और समाज दो साफ साफ
वर्गों में बँटा था "अमीर पूँजीपति शोषक निरंकुश तानाशाह अत्याचारी
अमानवीय लोग "और दूसरी तरफ गरीब संसाधन विहीन अधिकार विहीन न्यूनतन जीवन
संसाधनों तक को तरसते मजदूर और कारीगर '
इस असंतोष को हवा मिली मार्क्सवादी चिंतकों के लेखन से जिसको लेनिन जैसे
'समाज सुधारकों ने हिंसक तरीकों से भङकाकर "रक्तपात और बेहद क्रूर हिंसा
के जरिये पूँजीपतियों की हत्यायें करके 'साम्यवादियों की सत्ता क़ायम की
"
यह एक सामयिक उबाल रहा 'माओवाद के रूप में इसका चरम विस्फोट सामने आया और
"व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों का खात्मा इसको टिकाये रखने
वाले दो मूल स्तंभ बने ।
साम्यवाद के "क्रांतिकारी सत्ताधारी बनकर तानाशाह हो गये और "कला हुनर
संगीत नृत्य नौलिक लेखन कोमल भावनाओं स्त्री परिवार संपत्ति घर खेत मकान
पर नागरिक अधिकार निलंबित होते गये ',
मानव
बिलबिला उठा ',केवल आर्थिक तौर पर समग्रदेश के रूप में ताकतवर बनना काफी
नहीं होता '
प्राणीमात्र की पहली इकाई परिवार घर मकान बच्चे पति पत्नी और मित्र
कुटुंब होते हैं
इस प्राकृतिक "पजेशन "की भावना को कोई साम्यवादी विचारक नहीं मिटा सका और
एक दिन रूस बिखर गया ',क्योंकि मनुष्य सब एक से नहीं होते न एक सी होती
है उनकी योग्यतायें सोच कमियाँ और बिना बौद्धिक दैहिक मानसिक योग्यता और
कमी को समझे सबको एक सा "आठ घंटे कठोर दैहिक श्रम के बदले सिर्फ गिनती के
हिसाब से रोटी कपङा मकान वह भी न्यूनतम आवश्यकता के हिसाब से देना, न तो
प्रतियोगिता के पुरुस्कार और होङ से योग्य होकर आऊटस्टैण्डिग
क्रियेटिविटी को खादपानी बनता है न ही व्यक्ति फिर विशेष श्रम मनन चिंतन
का कोई हुनर दिखाने को प्रेरित होता है, 'जब चाहे कम करो या अधिक मिलेगी
पाँच रोटियाँ बीस गज जमीन बीस मीटर कपङा ही तो कोई अतिरिक्त योग्य होने
पर भी श्रम विशेष क्यों करे!!
यही 'प्राकृतिक अंतर साम्यवाद को खत्म करता गया "
क्योंकि प्रचार सब समान का करने पर सत्ताधारी मौज मजे आराम और शक्ति का
आनंद लेते रहे जबकि ',आम मजदूर किसान कभी अपनी हालत से ऊपर नहीं उठ सके
',
पूँजीवाद जिसे कहकर झिङका गया वह प्रजातंत्र लोकतंत्र के रूप में जनगणमन
का तंत्र है यह विश्वास एक वैकल्पिक व्यवस्था मजबूत भरोसा बनती गयी कि
'भले ही मानव गरीब या मजदूर जनम से हो परंतु उसके ऊपर उठकर फिर एक दिन
हालात सुधारने के पूरे अवसर हैं क्योंकि यदि वह अतिरिक्त श्रम करे और
योग्यता से करे तो पुरस्कार है बेहतर जीवन और सम्मान 'यही चीज
प्राणीमात्र का प्राकृतिक गुण है ।
आज एक एक करके लोग 'व्यक्तिवाद और साम्यवाद के मध्यमार्ग लोकतंत्र पर
भरोसा करने लगे हैं ।
क्योंकि, साम्यवादी सत्ताओं ने रक्तपात हिंसा भय से सत्ता तो स्थापित कर
ली किंतु राष्ट्रवाद और व्यक्ति के निजी अधिकारों का बुरी तरह हनन किया
मनुष्य विवश जब भी होगा गुलामी से बगावत करेगा और सबकी भलाई से ऊपर हावी
रहने वाली प्राकृतिक सोच है मेरा पेट मेरी संपत्ति मेरा घर मेरा परिवार
मेरा देश "
यह मैं और हम दोनों का तालमेल संभव होता आया है लोकतंत्र में 'क्योंकि
संपत्ति का संग्रह किये बिना बङे बङे कल कारखाने और उद्योग लगाना संभव ही
नहीं 'तब जब बङी मिलें कारखाने फैक्ट्रीज और उद्योग स्थापित होते है तो
मजदूरों किसानों गरीबों को रोजगार मिलता है आजीविका की गारंटी मिलती है
और मिलती है आगे बढ़कर उन्नति कर पाने की आशा जबकि अगर वही संग्रहीत
संपत्ति से स्थापित कारखाना तोङकर समान इकाईयों में सारा धन बराबर बराबर
सब मजदूरों में बाँट दिया जाये तो वे सब अत्यल्प समय में ही सब खा पीकर
खत्म कर लेगें और फिर भूखों मरने की स्थिति में आ जायेगे ।
यही हुआ भी साम्यवादी सोच का 'क्योंकि व्यक्ति प्राकृतिक रूप से समूह के
लिये नहीं स्वयं अपनी ही भलाई के लिये साझे हित की नींव पर समूह रूप में
इकट्ठा होता है ।
लोकतंत्र ऐसे ही व्यक्तिगत हितों अधिकारों की रक्षा के लिये समूह रूप में
एकजपट हुये समाज का नाम है ।
यहाँ व्यक्तिगत आज़ादी भी है हक़ भी मौलिक अधिकार मानवाधिकार भी और निजी
पति पत्नी संपत्ति परिवार के संरक्षण के अधिकार भी साथ ही योग्यता की होङ
और प्रतियोगिता के पुरस्कार भी ।भारत कभी केवल दो वर्गों का देश नहीं रहा
।यहाँ विविधता है तो कई स्तरों पर है ।रंगभेद तो कभी था ही नहीं यह तो
गोरों के शासन के बाद गोरा होना सुंदर मान लिया गया किंतु इससे न तो
भारतीयों की चमङी का रंग बदला न ही सांवलापन '। ठीक इसी तरह जाति लिंगभेद
और मजहबी भेद भी कभी चरम स्तर तक विभाजित ही नहीं रह सके क्योंकि मध्यम
वर्ग भी कई स्तर पर रहा और शासक भी कभी निरंकुश नहीं रह सका उस पर
ज्ञानियों का सम्मान रहा हावी और ज्ञान पर वीरता राष्ट्रवाद को तरज़ीह दी
गयी ।
श्रम को सदा सम्मान मिला और विविधता को एकता के समान पारस्परिक
अन्योन्याश्रित व्यवस्थित विभाजन सहित माना जाता रहा ।योग्य को किसी भी
निचले स्तर से किसी भी उच्चस्तर तक उठने के पूरे पूरे अवसर रहे ।
यहाँ साम्यवादियों का शार्प शीयर(sharp & sheer) विभाजन कारगर हो ही नहीं
सकता था इसीलिये बावजूद इसके कि 'भारत ने दो विश्व युद्धों की विभीषिका
झेलते संसार का सच समझ कर 'गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी और "नेहरू
-नासिर -टीटो ' की निर्गुट नीति पर लंबे समय तक भारत चलता रहा किंतु
"भारत विभाजन "के घाव को मरहम पट्टी की जरूरत थी अंग्रेज जाते जाते देश
को मजहबी क्रूर भेदभाव का प्रदूषण दे गये और पाकिस्तान इस नफरत के चलते
गुटबंदी के खेमे में ही नहीं जा बैठा बल्कि वहाँ लोकतंत्र क़त्ल कर दिया
जाकर 'मजहबी चरमपंथियों का बोलबाला हो गया 'भारतीय सीमायें अशांत हो गयीं
और चीन के भू विस्तार साम्राज्यवाद के कारण नेफा लद्दाख और पाकिस्तान के
विस्तार की लालसा ने कश्मीर कच्छ राजस्थान सीमान्त पर युद्ध होने लगा, और
भारत हालात के हाथों मजबूर था जो पाकिस्तान चीन का मित्र? वह भारत का
मित्र कैसे? इसी कारण भारत 'सुरक्षा परिषद में समर्थक और एक बङे हथियाद
विक्रेता मददगार मित्र "सोवियत संघ रूस का स्थायी मित्र बना "बार बार यह
मैत्री संधि नवीनीकरण से दुहराई जाती रही । सोवियत संघ रूस के बिखराव के
बाद, भारत की गुटनिरपेक्षता निरर्थक हो गयी क्योंकि अब सोवियत संघ एक बङी
शक्ति संतुलन की महाशक्ति न रहकर विखंडित पंद्रह राज्यों की परस्पर रक्षा
की संधि मात्र रह गया, येल्तसिन और गोर्बाचोब के बाद तो सोवियत रूस अनेक
मायनो में अमेरिकी समर्थक राष्ट्रों से ही जा मिला और संसार में शीत
युद्ध काल के समापन के साथ ही "शक्तिसंतुलन और पृथक्करण बदल गया अमेरिका
नाटो सीटो सेन्टो सियेटो और बगदाद पैक्ट से भी ऊपर उठकर सामरिक आर्थिक
महाशक्ति बन गया और दूसरे पलङे में शक्ति के अनेक ध्रुव बन गये "तेल
राष्ट्रों के विपरीत चीन, भारत, और एकीकृत होकर दुबारा संगठित जर्मनी
'फ्रांस ब्रिटेन और विकासशील संसाधन संपन्न तीसरी दुनियाँ तराजू के
काँटे पर जा बैठी और कई ध्रुव बन कर संसार की शक्तियाँ विकेन्द्रित हो
गयीं ।
आज "भारत एक बङा लोकतंत्र नाभिकीय शक्ति और संचार सूचना शक्ति से संपन्न
मानव संसाधनों से भरापूरा देश है ।
सम्मान भरोसा और आर्थिक शक्ति के साथ साख भी मुद्दा है 'तीखी गुटबंदी या
तटस्था अब बेमानी हो चुकी है ।एशिया की सबसे बङी समस्या है आतंकवाद 'और
भारत रूस अमेरिका सब इससे परेशान है सबसे बङा खतरा है प्रदूषण और सबसे
बङी समस्या है धरती पर प्रकृति की रक्षा के साथ मानव के रहने लायक
ब्रह्मांड को बनाये रखना ।
हर आदमी आज विश्व नागरिक है और देश मतलब लोकल गवर्निंग बॉडी "और यही सोच
है युवा की वह पैदा होता है भारत में पढ़ता है फ्रांस अमेरिका कनाडा में
, जाकर रहता है अरब या तेल राष्ट्र में और एक दिन वह देश की सीमा से ऊपर
सोचता है धरती कैसे सुंदर सुरक्षित मानव हेतु सुखद और देश कैसे उसके लिये
सम्मान का विषय बने ।
आज विज्ञान तकनीकी और सूचना के साथ रोजगार शिक्षा जल भोजन आवास रहन सहन
मनोरंजन और निजी हक सबको चाहिये और ये सब पारस्परिक रूप से आदान प्रदान
आयात निर्यात पर निर्भर है ।
जरूरत है कि समय रहते लोकतांत्रिक देश एक साझा मंच तैयार करके संसार से
प्रदूषण आतंकवाद गरीबी खत्म करने और मानव को बेहतर ब्रह्मांड में बेहतर
जीवन देने पर सहमत होकर समवेत कार्य करें '।
भारत अमेरिका फ्रांस कनाडा ब्रिटेन ही नहीं सब तकनीक और संसाधन संपन्न
देशों को एक परिवार बनकर धरती और ब्रह्मांड के बारे में साझे प्रयास करने
होंगे ।
@सुधा राजे


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