सुधा राजे का स्तंभ :-स्त्री और समाज " विवाह सपना नहीं हकीकत है।"
विवाह सपना नहीं हकीकत है
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'सुधा राजे' का लेख :17/1/2015/7:20AM
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★सामाजिक ताने बाने में जब भी 'स्त्रियों के प्रति हिंसा और अपराध की बात
आती है तो प्रायः एक सीमित दृष्टिकोण
"यौन अपराध और ससुराल वालों के अत्याचार "
पर ही सारी बात सिमट कर खत्म कर दी जाती है;जबकि मूल कारण क्या है इस
भाँति यौन हिंसा और वैवाहिक अत्याचार की इस पर हम विचार विमर्श तक करने
के लिये भी तैयार नहीं हैं ',जबकि प्राचीन समाज से ही जो रीति रिवाज़
परंपरायें रूढ़ियाँ और नियम अलिखित अघोषित होकर भी कार्य विचार व्यवहार
और मानक आचरण बनते गये हैं वे सब 'दो ही मूल बातों से उद्भूत हैं 'प्रथम
''कृषि व्यापार आजीविका''और द्वित्तीय ''विवाह परिवार और संतान । मानव की
आवश्यकताओं का ढाँचा सोपान रूप से तय किया जाये तो भोजन, आवास, सहवास,
सुरक्षा, समूह, ऋतु अनूकूल वस्त्र, खेलकूद मनोरंजन और व्यक्तिगत वस्तुओं
का संग्रह ही सिद्ध होता है । विवाह नामक संस्था और संस्कार तो बहुत बाद
में प्रारंभ हुयी। पहले तो यह सब नैसर्गिक प्रणयेच्छा सहवास और प्रजनन ही
मात्र था जिसके कलह युद्ध संघर्ष और विवादों के शमन के लिये 'नियम बनाये
गये। ये नियम उन लोगों ने बनाये जो 'सत्ता पाने में शक्ति साहस और संघर्ष
के साथ चतुराई से सफल हो गये । स्त्रियों के नैसर्गिक 'कोमल देह और
मातृत्व के साथ संतान के प्रति ममत्व के गुणों ने उनको 'संरक्षण की खोज
के लिये प्राकृत रूप से विवश किया और बलवान नर को मादा ने रक्षक समझा और
यह बहुत हद तक सत्य भी रहा ।परिणाम स्वरूप स्वस्थ बलिष्ठ संतान सहवास और
परिवार की सुरक्षा को ध्यान में रखकर सदैव बलवान नरों का समूह पर वर्चस्व
स्थापित रहा । विवाह इसी तरह के बलिष्ठ नर द्वारा 'स्त्री 'और संतान पर
अधिक से अधिक स्वामित्व पाने की प्रतियोगिता और
'स्त्री के परिजनों द्वारा बलिष्ठ नर से संबंध बनाकर समूह को और बलवान
करने की "समझौता संधि या डील रही "जिसे हम कालान्तर में स्वयंवर प्रथा
के किञ्चित विकसित
रूप में देखते है |
आजीविका आदिमानव की बङे छोटे पशु पक्षियों का शिकार करना रहा तभी से समूह
बनाकर आहार जुटाना 'प्राणि रूप में एक अनिवार्यता बन चुकी थी । ज्यों
-ज्यों मानव भोजन के अन्य स्रोत पाता गया, आहार का संग्रह संरक्षण और
उत्पादन तथा स्वादिष्ट बनाने के लिये समूह रूप की आवश्यकता बढ़ती गयी।
परिवार सबसे अधिक विश्वसनीय समूह और अन्योन्याश्रित इकाई के रूप में सबसे
अधिक भरोसेमंद प्रमाणित हुये । प्रेम की व्याख्या "प्राणि रूप में
'सहवासेच्छा, संसर्ग साथ मैत्री सहयोगी और परस्पर विश्वसनीयता के साथ
लंबे समय तक जीवन के आवास भोजन संतान और कार्य व्यवहार के साथी की स्थायी
व्यवस्था का ही एक नाम रहा। मन बुद्धि अहंकार और वासना के साथ 'सामाजिक
नियमों से धीरे धीरे 'सभ्य और संस्कृतिवान होना मानवीय समाज 'दूसरे की और
अपनी वस्तुओं की सीमायें पहचानने लगा और यहीं से "एकाधिकारवाद प्रारंभ
हुआ । विवाह और आजीविका व्यक्ति की नैसर्गिक आवश्यकता रहे हैं और आज भी
हैं । आवास चाहे गुफायें हों या कुटिया महल हों या फ्लैट अपार्टमेन्ट
'मनुष्य को भी पशु पक्षी कीट आदि की भाँति अपने भोजन शयन और आवश्यक
वस्तुओं के संग्रह सुरक्षादि के लिये "घर चाहिये ।
ये घर 'नर का होता चला गया । लङकियाँ घर छोङकर नये पुरुष के साछ चलीं
जातीं और घर बनाने वाले माता पिता अगर पुत्र नहीं होते तो अकेले रह जाते
।क्योंकि तब खेती और शिकार के बाद श्रम करके ही भोजन और जीवनोपयोगी सामान
जुटाया जाता था ।इसीलिये घर को 'लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी सुदृढ़ और स्थायी
बनाये रखने के लिये 'नर संतति को ही महत्तव दिया गया ताकि जो घर रहे उसका
हो घर '। लङकियाँ नये परिवार में चलीं जातीं और बदले में बहुयें आ जातीं
'समाजिक संतुलन तब अधिक से अधिक संतान जन्मने को भला समझता था क्योंकि
अधिक संतानों का मतलब था कुनबे की शक्ति और आहार तथा लङाई जीतने की
क्षमता । 'दस बीस संताने होना बहुत साधारण बात होती थी । बहुविवाह भी इसी
'अधिक काम करने वाले अधिक लङने वाले और अधिक युवा लगातार परिवार में बनते
बढ़ते रहने की आवश्यकता का ही परिणाम रहे । दस लङके मतलब सौ पौत्र होना
रहा ।कबीलों से गाँव और पुरवे बसते गये ।लोग अपने घर की लङकियों को दूसरे
कबीलों और गाँव में ब्याहकर मैत्री बढ़ाते और शत्रुता समाप्त करने का
बहाना बन गये विवाह ।आर्थिक आवश्यकतायें बङे परिवार की अधिक थीं तो बङे
परिवार की श्रम शक्ति उत्पादक क्षमता सत्ता और भूमि भवन खेत बनाने की भी
क्षमता अधिक थी । स्त्री ऐसे समय केन्द्र में थी क्योंकि वह माँ बनकर
संतानों को जन्म देती थी पालती थी और परिवार के सब सदस्य रसोई और भंडारण
की उसकी कला कौशल और न्यायपूर्ण पोषण वितरण पर ही निर्भर थे ।
किंतु आज तक आते आते 'विवाह स्वयं में एक परंपरा और रिवाज तो है ',परंतु
''नैसर्गिक प्रेम प्रणय हमसफर जीवनसंगी समवयस्क समरुचि समविचार स्थायी
मित्र और शैयासाथी ""आदि नहीं के बराबर रह गया है ।
कैसे????
वह ऐसे कि भारतीय परिवेश में विवाह "सबका मामला है 'बस नहीं है तो लङकी
का मामला नहीं है जिसकी शादी होने वाली है "!!!!!!
जी हाँ, एक लङकी को 'विवाह के लिये तो तैयार किया जाता है जीवन के लिये
कतई नहीं "। क्योंकि यह संस्कार धर्म संस्कृति और जाति गोत्र ही नहीं
जन्मपत्री और कुंडली का भी मामला है । यहाँ मामला ये भी है कि लङकी के
पिता की हैसियत कितने मूल्य तक का 'वर 'खरीदने की है ।यह भी मामला है कि
'लङकी को चाहे लङका बिलकुल पसंद न हो 'परंतु अगर लङकी के पिता भाई काका
ताऊ दादा बाबा को पसंद आ गया है मतलब "कुंडली के कुल बत्तीस में से?
अट्ठारह से ऊपर गुण मिल गये है, जाति और धर्म का लङका है गोत्र पृथक हैं
और दहेज जो माँगा है उतना दे पाने की लङकी वालों की औक़ात है, लङकी की
लंबाई चौङाई त्वचा बाल दाँत नाक कान फिगर डील डौल सब लङका ही नहीं 'होने
वाली सास ननद ससुर देवर जेठ और उनके बच्चों को पसंद आ चुके हैं 'लङकी की
शिक्षा 'जॉब कमाई पसंद है '।लङकी को आता क्या क्या है सारा इंटरव्यू
साक्षात्कार लङकी पास कर चुकी है तब जाकर "तिथि नक्षत्र मुहूर्त भद्रा और
ग्रहबाधा बचाकर ''विवाह लगन की सहालग के मौसम में ही ''विवाह की तिथि
तारीख़ तय हो पाती है।
कुल मिलाकर 'विवाह केवल लङकी का लङके से "प्रेम करना या लङके का लङकी से
प्रेम करना नहीं है अपितु लङके के मकान माँ बाप भाई बहिन नौकर पङौसी माली
कुत्ते गाय बैल भैंस सचिव बॉडीगार्ड खेल गाँव नगर जो जो भी लङके के पास
है उस सबसे "बिना किसी शर्त के बिना किसी उम्मीद के प्रेम करना है ।
लङकी को बदले में "प्रेम मिलेगा यह कोई आवश्यक पुरस्कार नहीं केवल एक
शुभकामना है "हो गया तो किस्मत नहीं हुआ तो बदकिस्मती लङकी की ।
बिना प्रेम के ही अधिकांश जोङे रह लेते हैं । हनीमून के दिनों से ही "कम
दहेज के ताने, रूप रंग और विवाह के उत्सव के आयोजन के ताने चालू हो जाते
हैं पहला और दूसरा बच्चा होते होते "अधिकतर जोङों की कलई फीकी और बेरंग
दीवारों की तरह रह जाती है ।बचती है तो लङकी की "आर्थिक मजबूरी बच्चो के
पालन पोषण की विवशता और बेगाना हो चुका मायका 'अजनबी नगर की ससुराल के
बीच जङों से कटी डाल की तरह फिर से पनप कर दिखाने की चुनौती ।
विवाह दूसरे शब्दों में कहें तो बंद गली का आखिरी दरवाजा जहाँ किस्मत बनी
तो बनी 'बिगङी तो फिर कभी नहीं बनती ।
यह सबसे बङे अचंभे की बात है कि हर तीसरी लङकी की प्रतिभा हुनर कौशल
पहचान और सपनों का खात्मा बङी बेदर्दी से ''विवाह के नाम पर 'मायके वाले
ही करते हैं 'तब जब वे लङकी को जीवन की 'जिजीविषा से दूर वे सब चीजें
नहीं सीखने देते जो "जीवित रहने के लिये जरूरी है "इसकी बजाय 'उन
व्यक्तियों की सेवा और इच्छा के अनुसार मनमारकर सहन करते रहना सिखाते है
जो 'रोटी कपङा मकान में आधा बिस्तर देने के बदले बिना अवकाश के पूरा जीवन
बेगारी बंधुआ मजदूरी कराते हैं!!!!!!!
हर पशु पक्षी बिना किसी भेदभाव के अपनी सब संतानों को "पेट भरने शिकार
करने और जिंदा रहने के तौर तरीके सिखाता है और वयस्क प्राणी स्वावलंबी हो
जाता है ',किन्तु भारतीय स्त्रियाँ???? बालिग होते होते पूरी तरह "जीवन
से विकलांग होती जाती हैं!!!!!!!!!!
तैरना, ड्राईविंग, नाव खेना, बेङा बनाना, शिकार करना, खेती करना, दुकान
चलाना, मशीनें सुधारना, रुपया कमाना और अपना घर स्वयं बनाना, स्त्री के
कार्य ही नहीं समझे जाते?
भारतीय फिल्मों की तरह समाज में भी अधिकतर घरों में बिजली फिटिंग, वाहन
मरम्मत 'और 'शासन निर्णय हुकूमत 'कमाई स्त्री के कार्य नहीं माने जाते ।
इसकी तस्वीर बङी भयावह है :हज़ारों औरतें हर साल विधवा हो जाती है, तलाक
देकर घरों से बाहर फेंक दी जाती है, दहेज की माँग पूरी नहीं होने पर
क्रूरता से बंधन में रखी और मारी पीटी अपमानित की जाती है, या उ नकी
हत्या तक कर दी जाती है, पुत्र न पैदा करने तक बार बार माँ बनने को विवश
की जाती है, और पुत्रियाँ जनमने पर सताया और अपमानित किया जाता है या
कन्याभ्रूण हत्या के लिये विवश कर दिया जाता है, कामकाज जॉब पढ़ाई केवल
'लही वर मिलने के नाम पर लङके वालों की मरज़ी के नाम पर विवश करते छुङवा
दिये जाते हैं ।
फिर भी इस बात पर घोर आश्चर्य न हो तो क्या हो कि 'आम और खास अकसर घरों
की लङकियाँ रूप रंग और दहेज के दम पर 'विवाह करके सुखी होने पूरी जिंदगी
"सुहागिन रहकर और पति की प्यारी 'ससुराल की दुलारी रहकर खुश रहने का सपना
देखतीं है!!!!!!!!
जीवन सपना नहीं ',तो विवाह भी सपना कैसे?
इसमें हनीमून के पहले सप्ताह के बाद की 'ऊब है 'रूप ढलने और प्रसव की
पीङा से पहले के गर्भधारण
के कष्ट है ',बच्चों की मलमूल सफाई गीले बिस्तर रतजगे और कैरियर के बंधन
है ',आकस्मिक बीमारियाँ दुर्घटनायें परिजनों की दुष्ट छिपी मनोवृत्तियाँ
स्वार्थ और चुगलियाँ ईर्ष्या द्वेष और अनिवार्य बँटवारे बिछोङे हैं । आज
लङकी की 'शादी कर देना ही जीवन का समाधान हो ही नहीं सकता । बिना आर्थिक
सुरक्षा के हर दावा
''भले घर के नाते का बेकार है "
क्योंकि हर सुबह की साँझ है और हर साँझ के बाद रात का अंधकार है । हर रात
को पछतावा होने से बचाने के लिये केवल चाँद नहीं 'कृत्रिम प्रकाश भी
चाहिये बिजली 'जेनरेटर इनवर्टर बल्व और लैम्प भी ',हर रात सुहागरात नहीं
रहती किंतु हर रात पेट को खाना बदन को बिस्तर कपङे कमरा और समाज में
सम्मान से जीने लायक हक और सामान जरूर चाहिये ',क्या आप विवाह से पहले
केवल "सपनों के सहारे तो नहीं जी रहीं???
©®सुधा राजे
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'सुधा राजे' का लेख :17/1/2015/7:20AM
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★सामाजिक ताने बाने में जब भी 'स्त्रियों के प्रति हिंसा और अपराध की बात
आती है तो प्रायः एक सीमित दृष्टिकोण
"यौन अपराध और ससुराल वालों के अत्याचार "
पर ही सारी बात सिमट कर खत्म कर दी जाती है;जबकि मूल कारण क्या है इस
भाँति यौन हिंसा और वैवाहिक अत्याचार की इस पर हम विचार विमर्श तक करने
के लिये भी तैयार नहीं हैं ',जबकि प्राचीन समाज से ही जो रीति रिवाज़
परंपरायें रूढ़ियाँ और नियम अलिखित अघोषित होकर भी कार्य विचार व्यवहार
और मानक आचरण बनते गये हैं वे सब 'दो ही मूल बातों से उद्भूत हैं 'प्रथम
''कृषि व्यापार आजीविका''और द्वित्तीय ''विवाह परिवार और संतान । मानव की
आवश्यकताओं का ढाँचा सोपान रूप से तय किया जाये तो भोजन, आवास, सहवास,
सुरक्षा, समूह, ऋतु अनूकूल वस्त्र, खेलकूद मनोरंजन और व्यक्तिगत वस्तुओं
का संग्रह ही सिद्ध होता है । विवाह नामक संस्था और संस्कार तो बहुत बाद
में प्रारंभ हुयी। पहले तो यह सब नैसर्गिक प्रणयेच्छा सहवास और प्रजनन ही
मात्र था जिसके कलह युद्ध संघर्ष और विवादों के शमन के लिये 'नियम बनाये
गये। ये नियम उन लोगों ने बनाये जो 'सत्ता पाने में शक्ति साहस और संघर्ष
के साथ चतुराई से सफल हो गये । स्त्रियों के नैसर्गिक 'कोमल देह और
मातृत्व के साथ संतान के प्रति ममत्व के गुणों ने उनको 'संरक्षण की खोज
के लिये प्राकृत रूप से विवश किया और बलवान नर को मादा ने रक्षक समझा और
यह बहुत हद तक सत्य भी रहा ।परिणाम स्वरूप स्वस्थ बलिष्ठ संतान सहवास और
परिवार की सुरक्षा को ध्यान में रखकर सदैव बलवान नरों का समूह पर वर्चस्व
स्थापित रहा । विवाह इसी तरह के बलिष्ठ नर द्वारा 'स्त्री 'और संतान पर
अधिक से अधिक स्वामित्व पाने की प्रतियोगिता और
'स्त्री के परिजनों द्वारा बलिष्ठ नर से संबंध बनाकर समूह को और बलवान
करने की "समझौता संधि या डील रही "जिसे हम कालान्तर में स्वयंवर प्रथा
के किञ्चित विकसित
रूप में देखते है |
आजीविका आदिमानव की बङे छोटे पशु पक्षियों का शिकार करना रहा तभी से समूह
बनाकर आहार जुटाना 'प्राणि रूप में एक अनिवार्यता बन चुकी थी । ज्यों
-ज्यों मानव भोजन के अन्य स्रोत पाता गया, आहार का संग्रह संरक्षण और
उत्पादन तथा स्वादिष्ट बनाने के लिये समूह रूप की आवश्यकता बढ़ती गयी।
परिवार सबसे अधिक विश्वसनीय समूह और अन्योन्याश्रित इकाई के रूप में सबसे
अधिक भरोसेमंद प्रमाणित हुये । प्रेम की व्याख्या "प्राणि रूप में
'सहवासेच्छा, संसर्ग साथ मैत्री सहयोगी और परस्पर विश्वसनीयता के साथ
लंबे समय तक जीवन के आवास भोजन संतान और कार्य व्यवहार के साथी की स्थायी
व्यवस्था का ही एक नाम रहा। मन बुद्धि अहंकार और वासना के साथ 'सामाजिक
नियमों से धीरे धीरे 'सभ्य और संस्कृतिवान होना मानवीय समाज 'दूसरे की और
अपनी वस्तुओं की सीमायें पहचानने लगा और यहीं से "एकाधिकारवाद प्रारंभ
हुआ । विवाह और आजीविका व्यक्ति की नैसर्गिक आवश्यकता रहे हैं और आज भी
हैं । आवास चाहे गुफायें हों या कुटिया महल हों या फ्लैट अपार्टमेन्ट
'मनुष्य को भी पशु पक्षी कीट आदि की भाँति अपने भोजन शयन और आवश्यक
वस्तुओं के संग्रह सुरक्षादि के लिये "घर चाहिये ।
ये घर 'नर का होता चला गया । लङकियाँ घर छोङकर नये पुरुष के साछ चलीं
जातीं और घर बनाने वाले माता पिता अगर पुत्र नहीं होते तो अकेले रह जाते
।क्योंकि तब खेती और शिकार के बाद श्रम करके ही भोजन और जीवनोपयोगी सामान
जुटाया जाता था ।इसीलिये घर को 'लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी सुदृढ़ और स्थायी
बनाये रखने के लिये 'नर संतति को ही महत्तव दिया गया ताकि जो घर रहे उसका
हो घर '। लङकियाँ नये परिवार में चलीं जातीं और बदले में बहुयें आ जातीं
'समाजिक संतुलन तब अधिक से अधिक संतान जन्मने को भला समझता था क्योंकि
अधिक संतानों का मतलब था कुनबे की शक्ति और आहार तथा लङाई जीतने की
क्षमता । 'दस बीस संताने होना बहुत साधारण बात होती थी । बहुविवाह भी इसी
'अधिक काम करने वाले अधिक लङने वाले और अधिक युवा लगातार परिवार में बनते
बढ़ते रहने की आवश्यकता का ही परिणाम रहे । दस लङके मतलब सौ पौत्र होना
रहा ।कबीलों से गाँव और पुरवे बसते गये ।लोग अपने घर की लङकियों को दूसरे
कबीलों और गाँव में ब्याहकर मैत्री बढ़ाते और शत्रुता समाप्त करने का
बहाना बन गये विवाह ।आर्थिक आवश्यकतायें बङे परिवार की अधिक थीं तो बङे
परिवार की श्रम शक्ति उत्पादक क्षमता सत्ता और भूमि भवन खेत बनाने की भी
क्षमता अधिक थी । स्त्री ऐसे समय केन्द्र में थी क्योंकि वह माँ बनकर
संतानों को जन्म देती थी पालती थी और परिवार के सब सदस्य रसोई और भंडारण
की उसकी कला कौशल और न्यायपूर्ण पोषण वितरण पर ही निर्भर थे ।
किंतु आज तक आते आते 'विवाह स्वयं में एक परंपरा और रिवाज तो है ',परंतु
''नैसर्गिक प्रेम प्रणय हमसफर जीवनसंगी समवयस्क समरुचि समविचार स्थायी
मित्र और शैयासाथी ""आदि नहीं के बराबर रह गया है ।
कैसे????
वह ऐसे कि भारतीय परिवेश में विवाह "सबका मामला है 'बस नहीं है तो लङकी
का मामला नहीं है जिसकी शादी होने वाली है "!!!!!!
जी हाँ, एक लङकी को 'विवाह के लिये तो तैयार किया जाता है जीवन के लिये
कतई नहीं "। क्योंकि यह संस्कार धर्म संस्कृति और जाति गोत्र ही नहीं
जन्मपत्री और कुंडली का भी मामला है । यहाँ मामला ये भी है कि लङकी के
पिता की हैसियत कितने मूल्य तक का 'वर 'खरीदने की है ।यह भी मामला है कि
'लङकी को चाहे लङका बिलकुल पसंद न हो 'परंतु अगर लङकी के पिता भाई काका
ताऊ दादा बाबा को पसंद आ गया है मतलब "कुंडली के कुल बत्तीस में से?
अट्ठारह से ऊपर गुण मिल गये है, जाति और धर्म का लङका है गोत्र पृथक हैं
और दहेज जो माँगा है उतना दे पाने की लङकी वालों की औक़ात है, लङकी की
लंबाई चौङाई त्वचा बाल दाँत नाक कान फिगर डील डौल सब लङका ही नहीं 'होने
वाली सास ननद ससुर देवर जेठ और उनके बच्चों को पसंद आ चुके हैं 'लङकी की
शिक्षा 'जॉब कमाई पसंद है '।लङकी को आता क्या क्या है सारा इंटरव्यू
साक्षात्कार लङकी पास कर चुकी है तब जाकर "तिथि नक्षत्र मुहूर्त भद्रा और
ग्रहबाधा बचाकर ''विवाह लगन की सहालग के मौसम में ही ''विवाह की तिथि
तारीख़ तय हो पाती है।
कुल मिलाकर 'विवाह केवल लङकी का लङके से "प्रेम करना या लङके का लङकी से
प्रेम करना नहीं है अपितु लङके के मकान माँ बाप भाई बहिन नौकर पङौसी माली
कुत्ते गाय बैल भैंस सचिव बॉडीगार्ड खेल गाँव नगर जो जो भी लङके के पास
है उस सबसे "बिना किसी शर्त के बिना किसी उम्मीद के प्रेम करना है ।
लङकी को बदले में "प्रेम मिलेगा यह कोई आवश्यक पुरस्कार नहीं केवल एक
शुभकामना है "हो गया तो किस्मत नहीं हुआ तो बदकिस्मती लङकी की ।
बिना प्रेम के ही अधिकांश जोङे रह लेते हैं । हनीमून के दिनों से ही "कम
दहेज के ताने, रूप रंग और विवाह के उत्सव के आयोजन के ताने चालू हो जाते
हैं पहला और दूसरा बच्चा होते होते "अधिकतर जोङों की कलई फीकी और बेरंग
दीवारों की तरह रह जाती है ।बचती है तो लङकी की "आर्थिक मजबूरी बच्चो के
पालन पोषण की विवशता और बेगाना हो चुका मायका 'अजनबी नगर की ससुराल के
बीच जङों से कटी डाल की तरह फिर से पनप कर दिखाने की चुनौती ।
विवाह दूसरे शब्दों में कहें तो बंद गली का आखिरी दरवाजा जहाँ किस्मत बनी
तो बनी 'बिगङी तो फिर कभी नहीं बनती ।
यह सबसे बङे अचंभे की बात है कि हर तीसरी लङकी की प्रतिभा हुनर कौशल
पहचान और सपनों का खात्मा बङी बेदर्दी से ''विवाह के नाम पर 'मायके वाले
ही करते हैं 'तब जब वे लङकी को जीवन की 'जिजीविषा से दूर वे सब चीजें
नहीं सीखने देते जो "जीवित रहने के लिये जरूरी है "इसकी बजाय 'उन
व्यक्तियों की सेवा और इच्छा के अनुसार मनमारकर सहन करते रहना सिखाते है
जो 'रोटी कपङा मकान में आधा बिस्तर देने के बदले बिना अवकाश के पूरा जीवन
बेगारी बंधुआ मजदूरी कराते हैं!!!!!!!
हर पशु पक्षी बिना किसी भेदभाव के अपनी सब संतानों को "पेट भरने शिकार
करने और जिंदा रहने के तौर तरीके सिखाता है और वयस्क प्राणी स्वावलंबी हो
जाता है ',किन्तु भारतीय स्त्रियाँ???? बालिग होते होते पूरी तरह "जीवन
से विकलांग होती जाती हैं!!!!!!!!!!
तैरना, ड्राईविंग, नाव खेना, बेङा बनाना, शिकार करना, खेती करना, दुकान
चलाना, मशीनें सुधारना, रुपया कमाना और अपना घर स्वयं बनाना, स्त्री के
कार्य ही नहीं समझे जाते?
भारतीय फिल्मों की तरह समाज में भी अधिकतर घरों में बिजली फिटिंग, वाहन
मरम्मत 'और 'शासन निर्णय हुकूमत 'कमाई स्त्री के कार्य नहीं माने जाते ।
इसकी तस्वीर बङी भयावह है :हज़ारों औरतें हर साल विधवा हो जाती है, तलाक
देकर घरों से बाहर फेंक दी जाती है, दहेज की माँग पूरी नहीं होने पर
क्रूरता से बंधन में रखी और मारी पीटी अपमानित की जाती है, या उ नकी
हत्या तक कर दी जाती है, पुत्र न पैदा करने तक बार बार माँ बनने को विवश
की जाती है, और पुत्रियाँ जनमने पर सताया और अपमानित किया जाता है या
कन्याभ्रूण हत्या के लिये विवश कर दिया जाता है, कामकाज जॉब पढ़ाई केवल
'लही वर मिलने के नाम पर लङके वालों की मरज़ी के नाम पर विवश करते छुङवा
दिये जाते हैं ।
फिर भी इस बात पर घोर आश्चर्य न हो तो क्या हो कि 'आम और खास अकसर घरों
की लङकियाँ रूप रंग और दहेज के दम पर 'विवाह करके सुखी होने पूरी जिंदगी
"सुहागिन रहकर और पति की प्यारी 'ससुराल की दुलारी रहकर खुश रहने का सपना
देखतीं है!!!!!!!!
जीवन सपना नहीं ',तो विवाह भी सपना कैसे?
इसमें हनीमून के पहले सप्ताह के बाद की 'ऊब है 'रूप ढलने और प्रसव की
पीङा से पहले के गर्भधारण
के कष्ट है ',बच्चों की मलमूल सफाई गीले बिस्तर रतजगे और कैरियर के बंधन
है ',आकस्मिक बीमारियाँ दुर्घटनायें परिजनों की दुष्ट छिपी मनोवृत्तियाँ
स्वार्थ और चुगलियाँ ईर्ष्या द्वेष और अनिवार्य बँटवारे बिछोङे हैं । आज
लङकी की 'शादी कर देना ही जीवन का समाधान हो ही नहीं सकता । बिना आर्थिक
सुरक्षा के हर दावा
''भले घर के नाते का बेकार है "
क्योंकि हर सुबह की साँझ है और हर साँझ के बाद रात का अंधकार है । हर रात
को पछतावा होने से बचाने के लिये केवल चाँद नहीं 'कृत्रिम प्रकाश भी
चाहिये बिजली 'जेनरेटर इनवर्टर बल्व और लैम्प भी ',हर रात सुहागरात नहीं
रहती किंतु हर रात पेट को खाना बदन को बिस्तर कपङे कमरा और समाज में
सम्मान से जीने लायक हक और सामान जरूर चाहिये ',क्या आप विवाह से पहले
केवल "सपनों के सहारे तो नहीं जी रहीं???
©®सुधा राजे
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