Monday 18 November 2013

मेरी तैर

वह जानती थी तैरना ।और
दुस्साहसी थी सागर पार करने तक को ।
अनजाने ही तालाब में चक्कर
काटती माँ के डैने पकङ कर सीख
लिया था उसने हर रोज मील भर अधिक
बढ़ा देना गति को ।
माँ समंदर से आयी थी । बताती थी विष
अमृत सुरा सुंदरी देव दानव ईश के किस्से
। लायी थी पीली रूपहली धातुयें और
चमकते अटूट पत्थर दमकते सीप के बच्चे ।
सुनहरी पलकों पर समंदर के सपने लिये वह
चल पङी रेत पर ।
जब समुद्र सामने था और थकान परों से
पैरों तक ।तब देखा किसी का हाथ
पतवार नाव और आँखें ।
आँखों में समुद्र का प्रतिबिंब था ।
होठों पर समुद्र के गीत । हाथो पर
लहरें औऱ पाँवों में कमल खिल रहे थे ।वह
प्रस्ताव मान गयी कि नाव साथ साथ
खेते चलेंगे ।
मँझधार तक वह नाव खेती रही । गीत
गाती रही माँ से सुने समुद्र के गीत। जब
थक गयी तब । देखा
वह समुद्र का आनंद ले रहा था चित्र
बना रहा था गीत लिख रहा था और
नृत्य कर रहा था दूसरी मछलियों के साथ

उसने पतवार रखकर कहा अब
तुम्हारी बारी ।
मैं लिखूँगी गीत
मैं बनाऊँगी चित्र।
मैं लूँगी आनंद समुद्र दर्शन का ।
मैं नाचूँगी दूसरी मछलियों के साथ ।
वह ठठाकर हँस पङा ।
तुम???!!!!
नहीं कर सकती ऐसा । देखो मैंने बनाये हैं
तुम्हारे चित्र,
लिखा तुमपर,गाया तुम्हारे लिये,
नाचा तुम्हारे गुण गान
दूसरी मछलियों को सुनाने के लिये ।
हमारी नाव पीछे नहीं जा सकती ।
यह नाव मेरी है ।
पतवार मेरी है ।
तुम्हारे पाँव पत्थर के और हाथों पर बोझ
है मुकुलित पंछियों का ।
तुम तैरना भूल चुकी हो ।
वह भरी आँखों से देख ऱही थी
अब उसकी आँखों में रेत ही रेत
का प्रतिबिंब था । होठों पर
आत्मश्लाघा के गीत थे।
औऱ बाजुओं पर उग आये थे नागफनी ।पाँव
काई से सूखकर फट चुके थे ।
वह।
माँ को याद करती ।
सुनहरी पायलों रूपहली कमर पेटियों से
बाँध कर नाव के हर तरफ समुद्र में अपने
हाथों पर उग आये नन्हे
परिंदों को तैरना उङना गाना औऱ माँ से
सुनी समंदर और देखे हुये तालाब की बातें
सुनाने सिखाने लगी।
नन्हे समुंदर देख रहे थे ।
साँस टूटने और रूपहले सुनहरे बंधन तोङकर
नन्हों के मुक्त उङान भरने से पहले उसे
पहुँचना है तट के द्वीप पर ।
अब वह चित्र नहीं बना पा रहा था ।
ना गा रहा था समंदर के गीत।
ना ही मछलियाँ उसकी सीटी पर नाच
रहीं थीं साथ।
वह सिर्फ पुराने पन्ने पलट रहा था ।
और और वहशियाना हँसी
हँस रहा था ।
ये खूबसूरत चीजें उसने रचीं है वह कह
रहा था।
लेकिन कृति पर नाव खेती
वही नजर आती ।
वह आसमान में फेंक देता ।
समुद्र में डुबो देता ।
चिंदियाँ कर देता ।
अब
वह गा रही थी रहस्यमयी धुने ।
तिलिस्मी चित्र बनाती जाती बहते
काजल पकते रक्त औऱ पसीने से
वह
उनमें नहीं था।
वह चीखा
ये सृजन नहीं है ।
वह हँस पङी बिना देखे।
वह सिर झुकाये पत्थर के पैरों से पतवार
चला रही थी ।
चला रही थी।
चला रही थी।
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SUDHA RAJE
सुधा राजे
Dta-Bjnr
Apr 23
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