बच्चे 10
बच्चे10-
---भारत अज़ीबोग़रीब नीतिनियंताओं की अकुशल नीतियों का शिकार है। और सबसे
अधिक शिकार होते हैं कमज़ोर लोग । कमज़ोर यानि स्त्रियाँ बच्चे बूढ़े और
विकलांग। क्योंकि इनकी आत्मनिर्भरता की बज़ाय वफ़ादारी से परिवार पर
निर्भर रहने की परंपरा डाली गयी है शिक्षानीति और धर्म से । एक बच्चा जब
तक पढ़लिखकर जवान होकर खुद कोई नौकरी नहीं कर लेता तब तक हर तरीके से
परिवार और समाज की दया पर निर्भर रहता है। बुरी तरह कचोटती हैं ये
नीतियाँ जो याचक भिखारी और शरणागत दयनीय प्राणी बना डालती हैं बच्चों को।
पश्चिमी देशों में जहाँ प्रारंभ से ही आत्मनिर्भरता की सोच परंपरा में भी
है और शिक्षानीति में भी वहीं भारतीय बच्चे परिवार के बङों के रहमोकरम पर
हर फैसले के लिये मोहताज़ हैं । वज़ह है शिक्षा केवल किताबी ज्ञान देती
है । जीवन के पच्चीस और तीस साल तक अमूमन हर दूसरा तीसरा व्यक्ति
अभिभावकों पर निर्भर रहता है।
स्टॉप चाईल्ड लेबर कहने से तो बाल श्रम रूकना ही नहीं है कभी । क्योंकि
नीति चाहे वज़ीफ़ा लैपटॉप साईकिल बस्ता यूनिफॉर्म बाँटने की रहे या फिर
मिड डे मील आँगनबाङी पोषाहार और दवा वितरण की । बच्चा तो हर हाल में याचक
शरणागत और मोहताज़ ही बना दिया जाता है!!!!!!!!
एक स्कूल में अमूमन सत्तरह साल रहकर भी निकम्मा ही निकलता है वयस्क जिस
देश में वहाँ कोई कैसे बाकी जीवन में कामयाब हो सकता है?
वर्ण व्यवस्था के लाखों दोषों के बावज़ूद एक गुण था कि बच्चे खानदानी काम
शैशव से ही सीखते रहकर मास्टर बन जाते थे अपने पुश्तैनी हुनर के और बङे
होकर अपने औज़ार लेकर रोज़ी रोटी कमा लेते थे । समाज में कार्यविभाजन
होने से मारामारी नहीं थी और बेरोजग़ारी कोई समस्या नहीं । ये व्यवस्था
जब भंग हुयी है ही तो विकल्प देने चाहिये थे । किंतु पुरानी व्यवस्था जो
जैसी तब की जरूरत थी वह तो मिटा दी और नयी कोई व्यवस्था दी ही नहीं
गयी!!!
पुराना मिटाना ज़रूरी अगर था तो नयी व्यवस्था भी होनी चाहिये थी।
चरवाहा विद्यालय की योजना घोटालों का शिकार हो गयी किंतु ऐसी योजना की
सख्त ज़रूरत है । एक बच्चा प्रतिदिन पाँच घंटे स्कूल में बिताता है ।
स्कूल हर एक स्कूल में अगर प्रतिदिन पाँच की बजाय ये छह घंटे कर दिये
जायें और दो शिफ्ट में स्कूल चले जैसा कि कुछ राज्यों में चलते भी है
सुबह सात से बारह और दोपहर बारह से पाँच बजे तक । तब दो फायदे होगे एक तो
स्कूली इमारतों की संख्या ठीक दो गुनी हुयी मानी जायेगी दूसरे बङे बच्चे
और छोटे बच्चों की शिफ्ट विभाजित करके पढ़ाई की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकेगी
। तीसरे
सबसे महत्तव पूर्ण कार्य है पढ़ो और कमाओ योजना । बच्चा दस साल की आयु से
कोई भी ऐसा कार्य जो कि उसकी पसंद रुचि हॉबी और प्रतिभा के निखार की
ट्रेनिंग प्रेरणा प्रशिक्षण का हो चुन ले और वह कार्य प्रतिदिन एक घंटे
स्कूल में करे । प्रशिक्षित कारीगर आकर उन कार्यों को सिखायें । सिखाने
के दौरान जो अनगढ़ अच्छी बुरी चीजें बनें उनको स्थानीय मार्केट में
बच्चों के हुनर नाम से टैग करके बेच दिया जाये । और जो पैसा प्राप्त हो
वह बच्चों को संचयिका बचत खाता बनवाकर बैंक एकाऊंट में उनके नाम से
शिक्षा गारंटी धन के रूप में डाल दिया जाये जिसकी आधा रकम बच्चे खुद
स्कूल में खुले बैंक की शाखा से महीने में दो बार निकाल सकें निर्धारित
तारीख को । ऐसा होने पर आगे के सौ साल की आयु तक के लिये बच्चे के पास एक
हुनर होगा । वह नौकरी मिलेगी या नहीं मिलेगी के भयावह संकट आशंका से
मुक्त होगा। और ये तमाम घोटाले भ्रष्टाचार से भिखारी बनाकर अपंग कर देने
वाली योजनाओं से निज़ात भी मिलेगी। एक अनुभव है पढ़ाने के दौरान
प्रतियोगिता वगैरह से बहुत सुंदर कलाकृतियाँ जमा हो गयीं । तब सुनामी
पीङितों और अनाथों के लिये धन जुटाने को स्कूल की तरफ से प्रदर्शनी लगाई
गयी और न्यूनतम दाम हर कलाकृति का रखा गया । आपको अचंभा होगा कुछ पीस तो
बहुत चकित कर देने वाले थे और दो दिन में हज़ारों पीस अभिभावक ही खरीद कर
ले गये ।
हर बच्चा कुछ न कुछ तो खासियत रखता ही है । ये खासियत गुरू नहीं तो कौन
पहचानेगा? इनका विभाजन कला अभिव्यक्ति कारीगरी श्रम और अविष्कार के रूप
में कर दिया जाये तो सैकङों विधायें हैं जो कुटीर उद्योग स्माल इंडस्ट्री
का रूप लेकर कारोबार कर सकती हैं और हानिकारक श्रम शोषण से बालपन को
बचाया जा सकता है वह अपनी शिक्षा का अधिकतम खर्च खुद ही उठा सकता है।
ये बच्चे जिन घरों से आते हैं वहाँ सबकी समस्या होती है बच्चे का पोषण
खुराक फीस कपङे और भविष्य की पूँजी। आगे क्या जॉब मिले न मिले की
अनिश्चितता ।
एक बच्चे को केवल एक घंटे प्रतिदिन कार्य करने से अगर दस बीस तीस रूपये
तक भी रोज मिलते रहते हैं तो वहाँ जहाँ परिवार में दस साल से ऊपर के तीन
चार पाँच या अधिक बच्चे तक भी हैं एक मासिक आय मिलनी शुरू हो जायेगी ।
जिसको बच्चों की बेहतर खुराक पोशाक और हुनर के प्रशिक्षण पर व्यय किया जा
सकेगा।
जब बच्चे स्कूल छोङेगे तो उनके पास अपना ही कमाया हुआ धन भी होगा ।
ये योजना रट्टामार पढ़ाई के बाद भागभाग और बैंकड्राफ्ट फॉर्म शुल्क और
परीक्षा इंटरव्यू की शोषक नीति से मुक्त करेगा ।
अरे जब कमाता नहीं तो ड्राफ्ट कहाँ से भरेगा? इसीनीति के चलते कई
प्रतिभायें जॉब ऑपरचुनिटी खो देतीं हैं। ऊपर से एक जॉब एक लाख आवेदन करके
संस्थान जमकर पैसा कमाते रहते हैं।
पूरा एक भारत हाथ पर हाथ धरे निठल्ला जो बैठा है वह बुढ़ापे तक
रिटायरमेंट के बाद भी इन कारीगरियों कलाओं और हुनरों का इस्तेमाल करके
कमाऊ मेंबर रह सकता है सदैव ।
बच्चे के वर्तमान पर ही उसका भावी जीवन टिका है ।
एक बच्चा स्कूल और घर के अलावा कहीं भी बेहतर प्रशिक्षण पा ही नहीं सकता ।
चाईल्ड लेबर की वज़ह यही रोजी रोटी की फिकर है।
न इतना ऊँचा पढ़ पायेगे कि पढ़ाई के दम पर नौकरी मिले न ही कोई हुनर
पच्चीस साल में सीख पायेंगे तब तो गरीब गरीब ही रहेगा क्योंकि पूँजी कहाँ
से आयेगी व्यवसाय के लिये?? और नौकरियाँ इतनी है कहाँ जितने हाथ और पेट
हैं??
अपाहिज बनकर निकलती युवापीढ़ी का आधार ही कमजोर है कि वह पच्चीस साल तक
केवल रटता रहा!!!!!
अब शुरू करेगा खोज कि रट्टा पढ़ाई की किसको जरूरत है।
सोचें और सोचकर सुधार करे । केवल किताबें नहीं न ही एक वक्त की भूख
मिटाने से कोई बच्चा क़ाबिल बनेगा!!!!
कितने स्किलफुल हैं भारतीय ग्रेजुएट?????
वजह???
यही कि कमाना कैस् है उनको नहीं पता ।
अभिभावक दुर्घटना ग्रस्त हो जायें या बच्चे तब केवल याचक और अपराधी बनने
के सिवा कुछ नहीं देती ये भारतीय रट्टामार पढ़ाई।
©®सुधा राजे
क्रमशः जारी ''':''''''''''
---भारत अज़ीबोग़रीब नीतिनियंताओं की अकुशल नीतियों का शिकार है। और सबसे
अधिक शिकार होते हैं कमज़ोर लोग । कमज़ोर यानि स्त्रियाँ बच्चे बूढ़े और
विकलांग। क्योंकि इनकी आत्मनिर्भरता की बज़ाय वफ़ादारी से परिवार पर
निर्भर रहने की परंपरा डाली गयी है शिक्षानीति और धर्म से । एक बच्चा जब
तक पढ़लिखकर जवान होकर खुद कोई नौकरी नहीं कर लेता तब तक हर तरीके से
परिवार और समाज की दया पर निर्भर रहता है। बुरी तरह कचोटती हैं ये
नीतियाँ जो याचक भिखारी और शरणागत दयनीय प्राणी बना डालती हैं बच्चों को।
पश्चिमी देशों में जहाँ प्रारंभ से ही आत्मनिर्भरता की सोच परंपरा में भी
है और शिक्षानीति में भी वहीं भारतीय बच्चे परिवार के बङों के रहमोकरम पर
हर फैसले के लिये मोहताज़ हैं । वज़ह है शिक्षा केवल किताबी ज्ञान देती
है । जीवन के पच्चीस और तीस साल तक अमूमन हर दूसरा तीसरा व्यक्ति
अभिभावकों पर निर्भर रहता है।
स्टॉप चाईल्ड लेबर कहने से तो बाल श्रम रूकना ही नहीं है कभी । क्योंकि
नीति चाहे वज़ीफ़ा लैपटॉप साईकिल बस्ता यूनिफॉर्म बाँटने की रहे या फिर
मिड डे मील आँगनबाङी पोषाहार और दवा वितरण की । बच्चा तो हर हाल में याचक
शरणागत और मोहताज़ ही बना दिया जाता है!!!!!!!!
एक स्कूल में अमूमन सत्तरह साल रहकर भी निकम्मा ही निकलता है वयस्क जिस
देश में वहाँ कोई कैसे बाकी जीवन में कामयाब हो सकता है?
वर्ण व्यवस्था के लाखों दोषों के बावज़ूद एक गुण था कि बच्चे खानदानी काम
शैशव से ही सीखते रहकर मास्टर बन जाते थे अपने पुश्तैनी हुनर के और बङे
होकर अपने औज़ार लेकर रोज़ी रोटी कमा लेते थे । समाज में कार्यविभाजन
होने से मारामारी नहीं थी और बेरोजग़ारी कोई समस्या नहीं । ये व्यवस्था
जब भंग हुयी है ही तो विकल्प देने चाहिये थे । किंतु पुरानी व्यवस्था जो
जैसी तब की जरूरत थी वह तो मिटा दी और नयी कोई व्यवस्था दी ही नहीं
गयी!!!
पुराना मिटाना ज़रूरी अगर था तो नयी व्यवस्था भी होनी चाहिये थी।
चरवाहा विद्यालय की योजना घोटालों का शिकार हो गयी किंतु ऐसी योजना की
सख्त ज़रूरत है । एक बच्चा प्रतिदिन पाँच घंटे स्कूल में बिताता है ।
स्कूल हर एक स्कूल में अगर प्रतिदिन पाँच की बजाय ये छह घंटे कर दिये
जायें और दो शिफ्ट में स्कूल चले जैसा कि कुछ राज्यों में चलते भी है
सुबह सात से बारह और दोपहर बारह से पाँच बजे तक । तब दो फायदे होगे एक तो
स्कूली इमारतों की संख्या ठीक दो गुनी हुयी मानी जायेगी दूसरे बङे बच्चे
और छोटे बच्चों की शिफ्ट विभाजित करके पढ़ाई की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकेगी
। तीसरे
सबसे महत्तव पूर्ण कार्य है पढ़ो और कमाओ योजना । बच्चा दस साल की आयु से
कोई भी ऐसा कार्य जो कि उसकी पसंद रुचि हॉबी और प्रतिभा के निखार की
ट्रेनिंग प्रेरणा प्रशिक्षण का हो चुन ले और वह कार्य प्रतिदिन एक घंटे
स्कूल में करे । प्रशिक्षित कारीगर आकर उन कार्यों को सिखायें । सिखाने
के दौरान जो अनगढ़ अच्छी बुरी चीजें बनें उनको स्थानीय मार्केट में
बच्चों के हुनर नाम से टैग करके बेच दिया जाये । और जो पैसा प्राप्त हो
वह बच्चों को संचयिका बचत खाता बनवाकर बैंक एकाऊंट में उनके नाम से
शिक्षा गारंटी धन के रूप में डाल दिया जाये जिसकी आधा रकम बच्चे खुद
स्कूल में खुले बैंक की शाखा से महीने में दो बार निकाल सकें निर्धारित
तारीख को । ऐसा होने पर आगे के सौ साल की आयु तक के लिये बच्चे के पास एक
हुनर होगा । वह नौकरी मिलेगी या नहीं मिलेगी के भयावह संकट आशंका से
मुक्त होगा। और ये तमाम घोटाले भ्रष्टाचार से भिखारी बनाकर अपंग कर देने
वाली योजनाओं से निज़ात भी मिलेगी। एक अनुभव है पढ़ाने के दौरान
प्रतियोगिता वगैरह से बहुत सुंदर कलाकृतियाँ जमा हो गयीं । तब सुनामी
पीङितों और अनाथों के लिये धन जुटाने को स्कूल की तरफ से प्रदर्शनी लगाई
गयी और न्यूनतम दाम हर कलाकृति का रखा गया । आपको अचंभा होगा कुछ पीस तो
बहुत चकित कर देने वाले थे और दो दिन में हज़ारों पीस अभिभावक ही खरीद कर
ले गये ।
हर बच्चा कुछ न कुछ तो खासियत रखता ही है । ये खासियत गुरू नहीं तो कौन
पहचानेगा? इनका विभाजन कला अभिव्यक्ति कारीगरी श्रम और अविष्कार के रूप
में कर दिया जाये तो सैकङों विधायें हैं जो कुटीर उद्योग स्माल इंडस्ट्री
का रूप लेकर कारोबार कर सकती हैं और हानिकारक श्रम शोषण से बालपन को
बचाया जा सकता है वह अपनी शिक्षा का अधिकतम खर्च खुद ही उठा सकता है।
ये बच्चे जिन घरों से आते हैं वहाँ सबकी समस्या होती है बच्चे का पोषण
खुराक फीस कपङे और भविष्य की पूँजी। आगे क्या जॉब मिले न मिले की
अनिश्चितता ।
एक बच्चे को केवल एक घंटे प्रतिदिन कार्य करने से अगर दस बीस तीस रूपये
तक भी रोज मिलते रहते हैं तो वहाँ जहाँ परिवार में दस साल से ऊपर के तीन
चार पाँच या अधिक बच्चे तक भी हैं एक मासिक आय मिलनी शुरू हो जायेगी ।
जिसको बच्चों की बेहतर खुराक पोशाक और हुनर के प्रशिक्षण पर व्यय किया जा
सकेगा।
जब बच्चे स्कूल छोङेगे तो उनके पास अपना ही कमाया हुआ धन भी होगा ।
ये योजना रट्टामार पढ़ाई के बाद भागभाग और बैंकड्राफ्ट फॉर्म शुल्क और
परीक्षा इंटरव्यू की शोषक नीति से मुक्त करेगा ।
अरे जब कमाता नहीं तो ड्राफ्ट कहाँ से भरेगा? इसीनीति के चलते कई
प्रतिभायें जॉब ऑपरचुनिटी खो देतीं हैं। ऊपर से एक जॉब एक लाख आवेदन करके
संस्थान जमकर पैसा कमाते रहते हैं।
पूरा एक भारत हाथ पर हाथ धरे निठल्ला जो बैठा है वह बुढ़ापे तक
रिटायरमेंट के बाद भी इन कारीगरियों कलाओं और हुनरों का इस्तेमाल करके
कमाऊ मेंबर रह सकता है सदैव ।
बच्चे के वर्तमान पर ही उसका भावी जीवन टिका है ।
एक बच्चा स्कूल और घर के अलावा कहीं भी बेहतर प्रशिक्षण पा ही नहीं सकता ।
चाईल्ड लेबर की वज़ह यही रोजी रोटी की फिकर है।
न इतना ऊँचा पढ़ पायेगे कि पढ़ाई के दम पर नौकरी मिले न ही कोई हुनर
पच्चीस साल में सीख पायेंगे तब तो गरीब गरीब ही रहेगा क्योंकि पूँजी कहाँ
से आयेगी व्यवसाय के लिये?? और नौकरियाँ इतनी है कहाँ जितने हाथ और पेट
हैं??
अपाहिज बनकर निकलती युवापीढ़ी का आधार ही कमजोर है कि वह पच्चीस साल तक
केवल रटता रहा!!!!!
अब शुरू करेगा खोज कि रट्टा पढ़ाई की किसको जरूरत है।
सोचें और सोचकर सुधार करे । केवल किताबें नहीं न ही एक वक्त की भूख
मिटाने से कोई बच्चा क़ाबिल बनेगा!!!!
कितने स्किलफुल हैं भारतीय ग्रेजुएट?????
वजह???
यही कि कमाना कैस् है उनको नहीं पता ।
अभिभावक दुर्घटना ग्रस्त हो जायें या बच्चे तब केवल याचक और अपराधी बनने
के सिवा कुछ नहीं देती ये भारतीय रट्टामार पढ़ाई।
©®सुधा राजे
क्रमशः जारी ''':''''''''''
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