प्रेम और परिवर्तन
Sudha Raje
प्रेम तब एक पेट भर दूध
था और भयभीत
एकाकीपन को शोर से
मुक्त करता बाहुपाश
गुनगुनाहट के अबूझ स्वर और
हर पल एक ऐसे
देहधारी का सामीप्य
जो मेरे रोने की कार्य
कारण समीक्षा किये
बिना तुरंत मुझे चिपका लेते
वक्ष से
सुख तब केवल एक भरे पेट पर
किलकती हुलसती हुंकारे
वायु में प्रहार करते
दो पाँव छाती भर स्पर्श
और अबूझ गुनगुन भर था
दुख था इनका न होना और
लक्ष्य था चल पाना पकङ
पाना मुट्ठी में रोटी और
खिलौना
एक के बाद एक लक्ष्य बदलते
रहे उपलब्धि कुछ
भी नहीं रही यात्रा ही नियति हो
गयी और
बाहुपाश छोटे हो गये पेट
भरने से सुख का संबंध
समाप्त हो गया
तब प्रेम एक अस्तित्व
की तलाश बन गया
समष्टि का शोर और भीङ
भयभीत ही नहीं चकित
भी करते
भीङ में हर चेहरा पलट कर
देखता मन कहता
ये वो नहीं
हर सामान पलट कर
देखता कहता मन ये
तो नहीं
बाँहो के विस्तार
दृष्टि की सीमा
कंठ की गूँज
पैरों की टूटन की चरम तक
जो मिला सीखा जाना समझा
लेकिन
वहीं का वहीं था मन
निस्पृह
निराकृत
निरानंद
तब जमा की गयी सब चीजे
एक एक कर
दूसरों को सौंपनी शुरू कर
दीं उनको जिन्हें उन
व्यक्तियों वस्तुओं
की आवश्यकता मुझसे
अधिक थी
फिर कुछ ना रहा एक दिन
मेरे पास
मैंने स्वयं
को बाँटना प्रारंभ कर
दिया थोङा थोङा उन
सबमें जिन्हें मेरी उस
भूमिका की आवश्यकता मुझसे
अधिक थी
और एक दिन मैं समाप्त
हो गया शून्य निराकार
निर्विकार
तब विरक्ति के महासागर
ने मृत सागर का सांद्र रूप
देखा मैं शुद्ध प्रेम था बस
जिसमें न कोई जीवित
रहा ना डूब सका
ना पी सका
मैं
पा चुका स्वयं को
अब न मुझे
किसी की आवश्यकता थी न
किसी को मेरी
हाँ
कौतुक के पंछी धोखे में
गौर से देखते
आगे बढ़ जाते
©®¶©®
Sudha Raje
Feb
27
प्रेम तब एक पेट भर दूध
था और भयभीत
एकाकीपन को शोर से
मुक्त करता बाहुपाश
गुनगुनाहट के अबूझ स्वर और
हर पल एक ऐसे
देहधारी का सामीप्य
जो मेरे रोने की कार्य
कारण समीक्षा किये
बिना तुरंत मुझे चिपका लेते
वक्ष से
सुख तब केवल एक भरे पेट पर
किलकती हुलसती हुंकारे
वायु में प्रहार करते
दो पाँव छाती भर स्पर्श
और अबूझ गुनगुन भर था
दुख था इनका न होना और
लक्ष्य था चल पाना पकङ
पाना मुट्ठी में रोटी और
खिलौना
एक के बाद एक लक्ष्य बदलते
रहे उपलब्धि कुछ
भी नहीं रही यात्रा ही नियति हो
गयी और
बाहुपाश छोटे हो गये पेट
भरने से सुख का संबंध
समाप्त हो गया
तब प्रेम एक अस्तित्व
की तलाश बन गया
समष्टि का शोर और भीङ
भयभीत ही नहीं चकित
भी करते
भीङ में हर चेहरा पलट कर
देखता मन कहता
ये वो नहीं
हर सामान पलट कर
देखता कहता मन ये
तो नहीं
बाँहो के विस्तार
दृष्टि की सीमा
कंठ की गूँज
पैरों की टूटन की चरम तक
जो मिला सीखा जाना समझा
लेकिन
वहीं का वहीं था मन
निस्पृह
निराकृत
निरानंद
तब जमा की गयी सब चीजे
एक एक कर
दूसरों को सौंपनी शुरू कर
दीं उनको जिन्हें उन
व्यक्तियों वस्तुओं
की आवश्यकता मुझसे
अधिक थी
फिर कुछ ना रहा एक दिन
मेरे पास
मैंने स्वयं
को बाँटना प्रारंभ कर
दिया थोङा थोङा उन
सबमें जिन्हें मेरी उस
भूमिका की आवश्यकता मुझसे
अधिक थी
और एक दिन मैं समाप्त
हो गया शून्य निराकार
निर्विकार
तब विरक्ति के महासागर
ने मृत सागर का सांद्र रूप
देखा मैं शुद्ध प्रेम था बस
जिसमें न कोई जीवित
रहा ना डूब सका
ना पी सका
मैं
पा चुका स्वयं को
अब न मुझे
किसी की आवश्यकता थी न
किसी को मेरी
हाँ
कौतुक के पंछी धोखे में
गौर से देखते
आगे बढ़ जाते
©®¶©®
Sudha Raje
Feb
27
Comments
Post a Comment