Sunday 17 November 2013

ग़जल अपनी ही एक कहानी

Sudha Raje
मैं बेवफ़ा नहीं था दोस्त
बस ग़रीब
था।
वो मामला हुनर
का नहीं था नसीब
था ।
ख़ुबसूरती से जिसने निभाई
थी दुश्मनी ।
वो ही क़रीब सबसे मग़र
हाँ रक़ीब
था ।
था वो शहर
का चढ़ता सितारा बुलंद
ज़ां
ज़र बर्क था वज़ूद मगर
बदनसीब
था ।
माँगा ज़हर जो तंग आके
कशम-क़श से
जब।
दे दी दुआयें पर दवा न
दी तबीब
था।
था जिसपे
भरोसा कि समंदर में आ
गये ।
क़श्ती बदल ली उसने
किनारा क़रीब था।
धरती शज़र
को खा रही चंदा को आसमां।
उङती हवा पै अज़्म वो मंज़र
अज़ीब
था।
यूँ शक्ल से
लगता था बादशाह
वो मग़र:
था नंगे बदन दर्द से काँधे
सलीब
था।
नालिश कराई भाई ने घर
मेरा गिराकर ।
हिस्से में शक़ था फर्क़
का बस इक
ज़रीब था।
गूँजे थे जिसके मीठे तराने
बहार में ।
रोता हुआ वो मैं
था ना कि अंदलीब
था।
कैसे सुधा बतायें ज़माने
को क्या सहा।
दीमक
सा चाटता वो अलम
ज़ां हबीब था।
©®¶
Sudha Raje
Apr 12 at
1:14pm ·

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