Saturday 23 November 2013

मीडिया और महिलाये भाग 1

महिलायें और मीडिया(लेख)-----23/11/2013--सुधा राजे--
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महिलाओं का यौन शोषण अपने वरिष्ठों द्वारा कोई नई बात नहीं है। किंतु
यहाँ सवाल है मीडिया का जो स्त्रियाँ मीडियाँ में कार्यरत हैं वे कोई आम
घरेलू डरी सहमी दबी शर्मीली लजीली अबलायें नहीं हैं। वे स्त्रियाँ
मीडियाँ में आईँ ही इसलिये हैं कि दबी कुचली डरी सहमी आवाम की आवाज़ बन
सके । खोजें कि क्या क्या कहाँ कहाँ ग़लत हो रहा है । अपराध अन्याय शोषण
हिंसा भेदभाव के खिलाफ लङने की घोषणा के साथ मीडिया में कलम कीपैड कैमरा
कम्प्यूटर उठाने वाली स्त्रियाँ ही अगर अपने खुद के शोषण के खिलाफ़ ही
आवाज़ नहीं उठा सकेगीं और अपने साथ हो रहे भेदभाव हिंसा और शोषण के
खिलाफ़ लङाई में एक जुट होकर नहीं लङ सकेंगी तो क्या ख़ाक़ पत्रकारिता
करेंगी?
यहाँ बात कुछ बहुआयामी भी है । लङकियाँ जब पत्रकार बनने का सपना देखती
हैं तो सीधा सा नज़रिया टी वी पर अखबार में और रेडियो पर महिलाओं की
दमदार गिनती उनको आकर्षित करती है । और हाल ही में तमाम टीवी चैनलों की
बाढ़ ने इस सपने को और हवा दी है । किंतु दूसरे नज़रिये से देखें तो
मीडिया में कैमरे के सामने बहुत से निजी चैनल जिस महिला पत्रकार को रखते
हैं वह लगभग हर दूसरे तीसरे निजी चैनल पर एक ग्लैमरस कठपुतली सी रखी जा
रही है । कोई भी स्टोरी तङातङ बोलकर पढ़ देने वाली स्क्रीन से बढ़िया
मेकअप करके और बदन दिखाऊ सेक्सी कपङे पहना कर खङी कर दी जाती लङकी
पत्रकार किन मायनों में है?
उसे अधिकांशतः न कुछ शोध करनी होती है न लिखना होता है न कवरिंग करनी
होती है न कोई दिमाग़ इस पढ़ देने में उसका लगा होता ।
बस एक आकर्षक साक्षर स्त्री होना काफी होता है इस प्रकार के कैमरा फेस
करने के लिये समार्ट ग्लैमरस अभिनेत्री । उसको पत्रकारिता नहीं कहा जा
सकता यह एक नौकरी ही है जो बॉस और सीनियर के आदेशानुसार चलती रहती है ।
यहाँ कैमरा के सामने आने से पहले ड्रेसिंगरूम और ब्यूटी पार्लर अधिक
महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं । लङकी की फिगर कैसी है हाईट कितनी है बॉडी
लैगवेज कैसा है और आवाज़ में कितनी खनक और कर्णप्रियता है यही प्रधान है
। यहाँ दिमागी काम करने वाली टीम तो कोई दूसरी ही होती है।
विगतयौवन लेखिकायें और बुलंद ज़मीर शोधार्थी स्त्रियाँ जो वास्तव में
लिखती है और खोजकर लाती हैं सुबूत तसवीरें और मैटर वे अकसर कैमरे के पीछे
ही रह जाती है और कारण होता है रंगरूप साधारण होना कद काठी अनाकर्षक होना
।फिगर बेडौल या नयनाभिराम न होना

किंतु ऐसा पुरुष पत्रकारों के साथ नहीं है । अकसर गंजे मोटे थुलथुले और
काले नाटे प्रौढ़ बुजुर्ग पत्रकार मजे से किसी कार्यक्रम को लैपटॉप धरकर
होस्ट करते नजर आते हैं और उनके रूप रंग या कद काठी से कार्यक्रम की
गुणवत्ता जरा भी प्रभावित नहीं होती । लोगों का सारा ध्यान उनके द्वारा
उठाये जाने वाले सवाल ज़वाब पर और मुद्दों पर होता है। अलबत्ता आकर्षक
व्यक्तित्व है तो प्लस पॉईन्ट हो जाता है। कोई पत्रकार बहुत शार्प वक्ता
हो ये भी बहुत जरूरी नहीं किंतु विषय का ज्ञाता हो यही बात मुख्य होती है

यानि सफल पत्रकार होने के लिये जहाँ स्त्री के साथ युवा होना सुंदर होना
और लंबाई होना फिगर साँचे में होना और आवाज अंदाज ग्लेमरस होना एक अघोषित
शर्त होती है वहीं पुरुष पत्रकार के लिये ऐसी कोई शर्त नहीं मात्र
सुदर्शन होना प्लस पॉईन्ट होता है।
ये सवाल लाज़िमी है माईन्डेड मौलिक विलक्षण जीनियस और कर्त्त्व्यनिष्ठ
होना ज्यादा ज़रूरी है या कमनीय सुंदर वाकपटु और ग्लैमरस??
क्यों?
क्योंकि यह शो बिजनेस है । यहाँ लोग औरत को केवल आँखें सेंकने के लिये
देखते है । औरत कैमरे के सामने खङी हो और खूबसूरत न हो जवान न हो कमनीय न
हो वाकपटु न हो तो उसकी सारी बौद्धिक कुशलता चातुर्य और प्रतिभा बेकार है
वह पार्श्व की कर्मचारी है ।
एक छोटी सी पत्रिका के एक संपादक ने बातों बातों में बताया कि महिला
कवियत्रियों की रचनायें कई बार बहुत मामूली होते हुये भी केवल इसलिये
स्वीकार कर लेनी पङती हैं कि उनके सुंदर सुंदर चित्र पत्रिका को सजा कर
सुंदर बनाते हैं और स्त्रियों की उपस्थिति भी दर्ज हो जाती है और स्त्री
की रचना अगर प्रेम श्रंगार आदि पर है तब तो सोने पर सुहागा होता है। हाँ
पत्रिका को गंभीर बनाये रखने के लिये कभी कभी खङूस तेज दिमाग बुजुर्ग
स्त्रियों की रचनायें भी छाप देता हूँ।
ये एक सोच है भारतीय मीडिया की आम सोच । आप किसी संस्था में जाईये
रिशेप्सनिस्ट स्त्री ही अक्सर रखी जाती है । स्त्री पुरुष दोनों क्यों
नहीं? पर्सनल सेक्रेटरी अकसर स्त्री ही रखी जाती है । स्त्रीपुरुष दोनों
क्यों नहीं ।

ये एक सोच है कि स्त्री मतलब सुंदरता ग्लैमर यौवन कमनीयता नयनसुख!!!!!!
एक स्त्री की प्रतिभा हुनर दिमाग बुद्धिकौशल और लेखन वाचन वक्तृत्वकला
हाज़िरज़वाबी तेज दिमाग़ से समस्या का हल खोजी विचारशील अविष्कारक होना
इतना महत्तवपूर्ण नहीं है यदि वह बहुत अनाकर्षक हो ।स्त्री होने की शर्त
सुंदर होना ही रख दिया गया जैसे ।
किंतु पत्रकारिता में ये शर्त नहीं होनी चाहिये थी। यहाँ तो मौलिक
बुद्धिजीवी और विलक्षण खोजी विचारक स्त्री होने को महत्त्व मिलना चाहिये
था!!!!!
अकसर महिला संपादक जितनी हैं उनमें बहुत सी महिलाओं का पैसा कारोबार में
लगा है और पारिवारिक समूह होने से यह पद उन तक पहुँचा है । जबकि लाखों
माईन्डेड स्त्रियाँ कहीं हाशिये पर केवल बौद्धिक जंग़ लङ रहीं हैं अपनी
इकलौती संपत्ति कलम और विचार के दम पर । नाम है महिला पत्रकार और काम
क्या क्या सौंपे गये हैं जरा विचार कीजिये? जो एक होटल की वेट्रेस या
अस्पताल की रिशेप्सनिस्ट या बार की अटेंडर को सौंपे गये होते हैं ।
बेशक ज़मीर वाली तेज तर्रीर और विचारशील महिलायें भी हैं और हर सीमा
तोङकर आगे बढ़ रही हैं । परंतु सोच अभी तक बदली नहीं ।
आज समय आ चुका है कि मीडिया मूल्यांकन करे आत्ममंथन करे कि चौथा स्तंभ अब
मरम्मत माँग रहा है और पुनर्विलोकन पुनर्मूल्यांकन भी।
संगीत कला साहित्य वकालत विज्ञान खेल और पत्रकारिता किसी के दम पर कब तक?????

यहाँ एक न एक दिन गुरू और मेन्टॉर की उंगली छोङकर ही आगे बढ़ना पङता है ।
टीमवर्क हैं ये सारे कार्यक्षेत्र और स्त्री यहाँ बिना मौलिक प्रतिभा के
केवल कठपुलती या शोकेस की एफिजी से ज्यादा कुछ भी नहीं।
शराब सिगरेट गालियाँ और बेशर्म बातचीत सिर्फ पुरुषों की नकल के सिवा कुछ नहीं ।
कई मामले ऐसे केवल इसलिये यौन शोषण होते हुये भी दब कर रह जाते हैं कि
वहाँ चल रही पार्टी में लङकी पत्रकार ने शराब पी ली थी भले ही उसका जोर
औऱ दवाब पुरुष सीनियर साथी या नियोक्ता का रहा था किंतु नशे में हालत
बिगङने पर संस्था होटल निवास दफतर या किसी सहकर्मी के वाहन और कमरे पर
धुत्त पङी होने पर उस लङकी का यौन शोषण हुआ औऱ वह किसमत पीट कर रह गयी।
क्योंकि वह नशे में थी औऱ ये साबित करना मुश्किल था कि पुरुष से उसके
संबंध उसकी इच्छा के विपरीत जोर जबरदस्ती से बने थे। वहाँ नशा कैमरा और
प्राकृतिक उत्तेजना में नशे में सहयोग करती लङकी । खुद अपने खिलाफ ही
सुबूत बन जाती है। चुप रह जाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं रह जाता ।
सवाल लाज़िमी है कि संस्कृति सभ्यता और तमाम बङी बङी बातों पर लंबे लंबे
स्तंभ कॉलम और लेख रिपोर्ट्स आदि देनेवाला पत्रकार जगत अपने ही भीतर
व्याप्त शराब सट्टा जुआ नशा कॉकटेल पार्टियाँ भ्रष्टाचार और ब्लैकमेलिंग
जैसी बीमारियों पर चुप क्यों है। क्यों नशाखोर होते जा रहे है पत्रकार ।
पंद्रह साल पहले जब हमने महिलाओं की समस्यायें लेकर अपने एनजीओ के माध्यम
से ससुराल के जनपद में प्याप्त समस्याओं पर लगातार लिखना शुरू किया तो
कोई लेख नहीं छपा । बस एक रात ग्यारह बजे नशे में धुत्त एक ब्यूरोप्रधान
का फोन आया -""आप हैं कौन? और रातों रात कहाँ से प्रकट हो गयीं ये झाँसी
की रानी? न कभी पढ़ा न सुना न देखा? देखिये मेम ये मीडिया है मीडिया
।यहाँ ये मामूली बातें नहीं छपती पति ने मारा ससुर ने घऱ से निकाला
खरीदकर शादी की रात को घर से बाहर निकाल दिया । ये पश्चिमी यूपी है यहाँ
ये सब होता ही रहता है । आप कहीं शहर में जाकर क्यों नहीं बस जाती पङौस
छोङकर । वैसे आप हैं कौन ये लेखक पत्रकार वकील सब यूँ ही नहीं लिखे जाते
मैम जी हम तो नहीं जानते आपको ऐसा भी कोई है जिसे हम ना जाने!!! बङी आई
लेखक!! """

और कुछ दिन बाद उसी ब्यूरो से लगातार कई महीनों सालों तक फिर हमारे नाम
से ही टाईटिल न्यूज लगती रहीं । किंतु वह प्रथम अभद्र बात चीत टोन और
धमकी भरा लहजा जिसमें बङे अश्लील ढंग से व्यंग्य किये गये थे कि औरतें और
होती किस लिये हैं बहुत कुछ जिसे यहाँ नहीं लिखा जा सकता।
ये चेहरा मीडिया का कौन सा चेहरा है?
एक सहपाठी लङकी ने बताया कि उसने अपनी अप्रैंटिस छोङकर लाईन चेंज कर ली
क्योंकि एक सीनियर जब भी कुछ सिखाते छू छूकर इंटेशन से और बातचीत
घुमाफिराकर अश्लील बातों पर लाकर हमेशा स्त्रियों की बुराई करना शुरू कर
देते खुद सिगरेट शराब में धुत रहते और लगातार प्रेरित करते कि पियो ।
इससे कॉन्फिडेंस बढ़ता है।
ऐसा नहीं है कि सब शराबी हैं और सब शोषक ।
किंतु सवाल है कि जब मीडिया के भीतर पीना पिलाना और लङकियों पप गंदी
हरकतों का प्रचलन बढ़ रहा है तो बाकी बुद्धिजीवी और मज़लूम की आवाज़
उठाने वाले जीनियस माईन्डेड धुआँधार वक्ता हाजिरज़वाब पत्रकार विचारशील
महान संपादक संवाददाता शोधी खोजी रिपोर्टर कहाँ हैं?? और क्यों चुप है?
जो अपने ही परिवार की स्त्रियों को इंसाफ नहीं दिला सकता वह व्यक्ति
गैरों अजनबियों की स्त्रियों को बचाने की समाज बदलने की और जमाना सुधारने
की बात करता है तो ये एक क्रूर मज़ाक है।
क्यों नहीं चाहते मीडिया परसन अपने भीतर अनुशासन?
1-कार्यस्थल पर शराब पीना मनावहो सिगरेट और गुटखा तंबाकू भी सख्त मना।
2-कार्यस्थल और औपचारिक मीटिंग रिपोर्टिंग के वक्त महिलाओं पुरुषों की
समान यूनिफॉर्म ड्रेस कोड हो ।
3-डिग्री डिप्लोमा मिलते ही बार कौंसिल औऱ बीमा निगम के आई आऱ डी ए की
तरह लायसेंस पंजीयन नामांकन परिचय पत्र औऱ जीवन बीमा न्यूनतम राशि का
जारी हो । तथा प्रेस क्लब की जिला तहसील मंडल राज्य संघीय शाखाओं में
सदस्यता बार असोशियेशन की तरह ही प्राप्त हो ।
4-प्रत्येक प्रेसक्लब पर लायब्रेरी औऱ सूचना केंद्र हो ताकि नौजवान
पत्रकार प्रतिदिन बैठकर सूचनायें पढ़ सुन देख लिख सकें । सालाना चुनाव
हों बार की तरह ही हर जनवरी से नयी यूनियन कार्य करे जो निर्वाचित हो ।
5-मंथली और छमाही सालाना मीडिया शिविर लगें ताकि समस्यायें समाधान
प्रेरणायें औऱ विचार विनिमय होता रहे ।
6-प्रेस क्लब से लायसेंस बनते ही वहीं से या कॉलेज से ही पत्रकारों का
चैनल रेडियो टीवी अखबार आदि में सिलेक्शन योग्यता औऱ रूचि के आधार पर हो

7-न्यूज एजेंसियाँ ऐसे लायसेंस धारक पत्रकारों को जॉब सुनिश्चित करायें
ताकि किसी को किसी की चमचागीरी न करन शोषण न
हो

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