Thursday 21 November 2013

आडंबरों की पूँछें कब गायब होंगी, हम मानव कब बनेंगें ???

लैपटॉप और जलसे!!
जैसा कि अकसर नेता करते हैं कोई
भी योजना जिसका लाभ जनता को दे रहे
हों उसे प्रचार ज्यादा और हक़ीकत कम में
बदल देते हैं।लगता है जैसे नेताओं
का निजी पैसा हो और बङी अशक्कत
मशक्कत से जुटाया हो और अब
जनता को बाँटकर खुद सारा श्रेय
लेना ही जन्मसिद्ध अधिकार दल कोई
सा हो अकसर आयोजन कुरसी पंडाल
भाषण सुरक्षा और प्रचार में जनता के
प्रतिव्यक्ति तक पहुँचे उस एक अदद
सामान से अधिक पहुँचाने को किये तमाशे
में खर्च होता है। ताज़ा उदाहरण
लैपटॉप लेकर देऱ शाम लौट
रही छात्रा के साथ हुआ बलात्कार एक
घिनौना सच है । डिगरियाँ बाँटने के
नाम पर अभी मेरठ की एक
यूनिवर्सिटी ने तमाशा जोङा हर छात्र
से एक हजार रूपया जमा कराया और मंच
पर केवल गिने चुने टॉपर मेडिकल वाले
छात्रों को बुलाकर समापन कर
दिया सारा तमाशा पैसा किसलिये?
ताकि आयोजन का खरचा और दावत मिले
सैकङों छात्रायें देर होने और घर दूसरे
नगरों में होने की वजह से लौट गयीं । एक
हज़ार रुपया जिस तमाशे के लिये
जमा कराया उस पैसे से प्रोफेसरों और
कर्मचारियों ने दावतें उङायी तमाम
सजावट का तमाशा रहा मगर पचास से
भी कम छात्र मंच पर चीफ गेस्ट के
हाथों डिगरी ले सके । जिसके लिये अनेक
पुराने छात्र दूर दराज से जरूरी काम
छोङकर आये??? ये तमाशा किसके हित में?
मंत्री नेता बङे अधिकारी मंच पर से भीङ
देखकर खुश होकर चार बातें सुनाकर चले
जाते हैं ।मगर एक डिगरी और या एक
लैपटॉप लेने में लागत कितनी आती है आने
वाली हर लङकी लङका कितने कष्ट और
चंदा कमीशन देते है ये कुछ पता नही??
मनमाने बुलावे और फीस और मनमाने
आयोजन??
क्या भारी भरकम
सरकारी अमला प्रतिस्कूल ।
अपने प्रिसिंपल के हाथों ही एक एनुअल
फंक्शन करके स्थानीय कलेक्टर
डिप्टीकलेक्टर तहसीलदार थानेदार
एसपी द्वारा ही गाँव में ही ।कस्बे नगर
और करीब ही के स्कूल में ही ये लैपटॉप
नहीं बाँट सकते?
क्या डिगरियाँ रजिस्टर्ड डाक
द्वारा परीक्षा परिणाम के साथ
ही सबको उनके घर
ही नहीं पहुँचायी जा सकती और केवल
टॉपर विद्यार्थी बुलाकर उनके
ही गृहनगर गाँव जिला के सर्वोच्च
अधिकारी द्वारा सम्मानित नहीं किये
जा सकते ।
या ये आयोजन ठीक ठीक दिये गये वक्त
पर खत्म नहीं किये जा सकते?? जिनके घर
करीब है वे ठीक किंतु यूनिवर्सिटी कॉलेज
आदि तो कई किलोमीटर दूर से पढ़ने आते
और किराये के कमरों में रहते हैं छात्र
छात्रायें ।
परीक्षा होते ही किराये के कमरे
खाली करके घर चले जाते है ।
अब कोई तय दिनांक तो है
नहीं डिगरियाँ बाँटने का???? फिर कोई
कब तक प्रतीक्षा करे ।
ये लैपटॉप बाँटना भी तय नहीं कि कब
किसे मिलेगा???
कई लङकियाँ पढ़ाई छोङकर ससुराल
चली गयीं और लैपटॉप दहेज में
माना गया अब पति और देवर दुकान पर
रखकर बैठे है ।
अगर ये लैपटॉप जुलाई में
ही कक्षा नौंवी-के प्रवेश माह में
ही मिल गया होता तो!!!!!???
निःसंदेह उस छात्र छात्रा को चार
साल ट्यूशन नहीं पढ़ना पङता। और तब
वह नौंवी दसवीं ग्यारवी और
बारहवी चार साल सीखकर ।टॉप
की तैयारी कर चुके होते और
बारहवी करके उनको किसी कंपटीशन
की तैयारी मिल गयी होती। ये लैपटॉप
बिना भेदभाव सबको ही मिल
जाना चाहिये था क्योंकि कोई
भी मिडिल क्लास परिवार
बेटी को तो कतई ही तीस हजार
का लैपटॉप सिवा दहेज के माँगे जाने के
रूप के अलावा नहीं ही खरीदकर देता है
और सरकारी स्कूलों में अकसर मध्यमवर्ग
और गरीब ही पढ़ते है ।
मंत्री जी ही बाँटेगे तो प्रचार
हल्ला होगा!!! जबकि प्रचार
का दूसरा तरीका भी था कि हर जिले के
कचहरी और कलेक्ट्रेट के बाहर एक
सूचीपट लगवा देते कि किन स्कूलों के
कितने छात्रों को इस वर्ष लैपटॉप
दिया गया।
ये लैपटॉप नौंवी से बारहवी के दौरान
ही सबसे ज्यादा जरूरी हैं ताकि गाँव
कसबे के बच्चे ट्यूशन के लिये मारे मारे
ना फिरे जिसका रेट पाँच सौ रुपये
प्रति सब्जेक्ट है और दसवीं से
बारहवीं तक विवश होकर हर
बच्चा ट्यूशन के चक्रव्यूह में पिसकर रह
जाता है । सुबह स्कूल और स्कूल से आते
ही भाग ट्यूशन भाग।
तो क्या स्कूल मास्टर ग्राम प्रधान
दरोगा जी और चेयरपरसन
की निगरानी में पहली जुलाई से बीस
जुलाई तक के बीच ये लैपटॉप
बच्चों को कक्षा में ही नहीँ बाटे
जा सकते???
भले ही ये राजनैतिक दल की घोषणा है
परंतु धन तो सरकारी खजाने में
जनता का है??
और डिगरियाँ भी परिणाम के साथ
रजिस्टर्ड डाक से छात्र के घर
भेजी जानी चाहिये।
ये गाऊन???
एक तमाशा है
क्योंकि इसका हमारी संस्कृति इतिहास
से कुछ वास्ता नहीं ये आम
पहनावा नहीं??
एक हजार रूपया जमा करो गाऊन
लो पहनो तमाशा बनो और चार घंटे बाद
इसे फेंक दो???
क्या एक सामान्य भारतीय पोशाक में
डिगरी देने से डिगरी का महत्तव कम
हो जायेगा???
बदलेगे कब?
जरूरत पूँछ की नहीं तो कुदरत ने गायब
कर दी न??
अब ये काले चोगे भी पूँछ की तरह गायब
हो जाने चाहिये ।
शिखाबंधन नदीधारस्नान और
ब्राह्मीसेवन का स्नातकीकरण जब ग़ायब
हो गया ।
तब ये
अंगरेजी दासता की निशानी मात्र
ही रहे चोगे और क्या उपयोग??
जिस देश में करोङों गरीब नंगे और फटेहाल
हों वहाँ कीमती वस्त्र
की ऐसी बरबादी???
या तो कॉलेज यूनिवर्सिटी गरम शॉल
गरम लोई कंबल प्रदामकर लपेटे और
पगङी बाँधकर डिगरी दें ताकि ।
घर आकर माँ और पिता को वह शॉल और
पगङी देकर चरण छूकर आशीष लें ।
वे भी शान से ओढ़कर सभा में जायें कि मैं
अब डिगरीधर का पिता मैं डिगरीधर
की माता!!!
आडंबर कितनी गहरी खाँच बनाकर खून
पी रहे है सोचो।
एक सवाल और भी कि ये नेता और चीफ
गेस्ट ठीक टाईम पर ही क्यों नहीं आते???
चाहे साहित्य सम्मेलन
हो या आमसभा या पाठ्येतर
गतिविधियाँ नौ बजे का समय दिया है
ग्यारह के बाद ही आना तय है?? ।।चाहे
एक दिन का बादशाह
दूल्हा ही क्यों हो आठ बजे
की शादी द्वारचार है टीका रात
को बारह बजे से तीन बजे चढ़
रही बारात??? कभी भारतीय समय
को समझेंगे भी??
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सुधा राजे
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यह रचना पूर्णतः मौलिक है।

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