Saturday 16 November 2013

कुँवारी माँ

कुँवारे मातृत्व की अवधारणा
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एक सफेद स्याह और सलेटी पहलू
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हमारा मन बँधी बँधाई लीक पर ही सोचने का आदी है सो हम जब भी कुछ नया या
क्रांतिकारी सोचते है घबरा जाते हैं ।ये सोच भी बँध गयी है कि अकेले रहकर
जीवन बिताने का हक़ पुरुषों को तो है तब वे महान ब्रह्मचारी और भीष्म
योगी जोगी जाने क्या क्या कहलायेंगे लेकिन स्त्री को अकेले रहने का हक़
नही "जिमि स्वतंत्र भयें बिगरई नारी"तो तुलसी बाबा कह ही गये हैं तमाम
संहिताओं में बचपन पिता किशोरावस्था भाई यौवन पति प्रौढ़ावस्था पुत्र और
जरायुता पौत्र के नियंत्रण में स्त्री को रहने का उपदेश देते हैं ।
यहाँ कारण दो हैं एक बलात्कार का डर और दूसरा स्त्री के स्वेच्छाचारी
होकर विवाहेत्तर पुरुष संबंध बना लेने की आशंकायें ।
तीसरी कोई वज़ह है तो एकमात्र आर्थिक निर्भरता ।
स्त्री जब कमा रही हो पुरुषों की तुलना में ज्यादा ।देह से बलिष्ठ और
योग्य हो अपनी रक्षा स्वयं कर सकने में और अपने लिये भूमि भवन भोजन भेष
भेषज स्वयं खरीद सकती हो और अपने ही बुद्धि बल कौशल से भीख भी दे सकती हो
और अपना मान सम्मान पहचान अपने ही बल बूते हुनर पर बनाये रख सकती हो तब??

समाज कुतर्क पर उतर आता है ।परंपरा और प्राकृतिक जरूरत? परंपरा ये कि
स्त्री को पिता दान कर दे जिसको उसके घर जाकर रहो और जो जो स्त्री का
कमाया और पिता का दिया है उसका मालिक वह पुरुष सात चक्कर आग के लगाते ही
हो गया । अब स्त्री का कुछ भी अपना नहीं रहा वह पुरुष जब जगाये जागो जब
तक जो जो कार्य करने को कहे करो जिस जिस के सामने जाने से मना करे मत जाओ
और जहाँ जहाँ उसके परिवार वाले जैसी जैसी परीक्षा लेना चाहे देती रहो
।कोख में फतनी बार बच्चे ढोओ जितनी बार पपरुष चाहे और मरो सा जीओ पैदा
करो लङके जब तक पुरुष चाहे । पाल पोसकर बङा करके सब संताने पुरुष को सौंप
दो ताकि वह लङकियाँ दान कर दे पुण्य के लिये और लङकों को अपनी शान का
परचम बना ले क्योंकि परंपरा से संतान का सरनेम पिता का और पिता ही अंतिम
निर्णय कर्त्ता ।स्त्री से हर जोङे में पुरुष को प्रेम ही होता है और
पूरे पचास साठ सत्तर अस्सी साल तक बना रहता है ये उतना ही बङा झूठ है
जितना कि मैं सुधा राजे संयुक्त राष्ट्र संघ की महासचिव हूँ

अब तसवीर का एक अनचाहा पहलू ये है कि एक प्रतिभाशाली लङकी जो स्ट्रगल
करके पढ़ी और कठोर परिश्रम से उसने जीवन की हर उपलब्धि हासिल की और जॉब
तक पहुँचकर अपनी गृहस्थी जोङी फरनीचर कपङे जेवर जमीन और पहचान बनायी
सम्मान हासिल किया । धीरे धीरे एक ठहराव से निरंतर गति में चलता कैरियर
जारी है और लङकी सुबह देर से सोकर उठती है रात देर तक लगातार कामकाज में
जुटी रहती है और वह अपनी एक नियमावली बनाकर सोती खाती उठती बैठती है
लोगों से मिलती है । एक सुखी जीवन जी रही है माँ बाप का सहारा है और बहिन
भाईयों की संरक्षक है ।
या दूसरे मामले में माँ बाप भाई नहीं हैं और बहिनों ने अपने अपने घर बसा लिये ।
वह लङकी जिसकी किसी मामले में किसी पर भी निर्भरता है ही नहीं!!! वह एक
मात्र प्यार ही की तलाश में हो सकती है बस । न पैसा न मकान न शरण न सहारा
कुछ नहीं चाहिये उसे ।
तब अगर उसको किसी से भी प्राकृतिक अनुभूतियों के तहत प्यार नहीं होता है
और सब कहते हैं कि उसे शादी कर लेनी चाहिये । वह सोचती है और तलाश के बाद
भी उसकी उम्मीदों पर खरा युवक जिसकी सोच और शैली उसको सूट करती हो नहीं
मिले तब? क्या वह सिर्फ विवाह के लिये विवाह कर ले?
वह अपना अच्छा भला घर मकान एक अटपटे अनमैच पुरुष को सौंप दे ।और बदबूदार
जुराबें खोजकर साफ करना पसीने की बनियान कच्छे धोना. बेटाईम जागना सोना
औऱ अपनी नापसंद के पकवान बनाना औऱ जो लोग उस स्त्री को कतई पसंद नहीं
करते उनको सम्मान दे दे कर झुकते रहना औऱ नफरत करने वालों के बीच सुशील
विनम्र रहने का अभिनय करना । पुरुष के मित्रों के लिये किचिन में सिर्फ
इसलिये तपते रहना कि विवाह के पहले उस पुरुष ने खूब दावतें दोस्तों के
घरों में उङाई अब बीबी के हाथ का भोजन खिलाना उसकी शान है। कि वह ऐसी
हुनरमंद स्त्री का मालिक है। सुबह जल्दी उठकर बेड टी तैयार करना । दफतर
से आते ही बिन बुलाये मेहमानों का स्वागत करना औऱ उनके सघन व्यंग्यबाणों
से भरे मीनमेख इंटरव्यू को मुसकराकर झेलना।
अपनी मेहनत से खङी गृहस्थी को सबको बेदर्दी से इस्तेमाल करने देना और टूट
फूट गंदगी का हँसकर सह जाना। जब कोई सृजनात्मक कार्य करना हो तो टाईम
बेटाईम थके या पीङा में मूड या बेमूड में पुरुष की दैहिक भूख पर चुपचाप
बिछते जाना । और वह जितनी बार जितनी संताने चाहे पैदा कर करके देना ।
उनको पालना पोषना और पुरुष का स्वामित्व मानना ताकि वह कन्यायें दान करके
पुण्य पाये और पुत्रों से शान मान नाम क्योंकि परंपरा से पिता का ही
सरनेम लगता है और पिता का ही हक है और पिता ही अंतिम निर्णायक है ।

ये सब केवल इसलिये कि उस स्त्री को दैहिक तृषा है और संतान की इच्छा??

बाकी तो कुछ भी वैसा नहीं जैसा उसको चाहिये ।
तब?

केवल विवाह के लिये विवाह सिवा अपनी अच्छी खासी पटरी पर दौङती गाङी को
खुद ही तोङ कर चूर चूर कर देना ही है ।

क्योंकि यौवन विगत ये संबंध नारकीय हो जाते हैं कि जिनमें स्त्री से
पुरुष को प्यार तो नहीं है परंतु समाज में बीबी बच्चों वाला कहलाने को
शादी कर ली । स्त्री के धन का अपहरण किया और पद प्रतिष्ठा का लाभ उठाया।

औऱ जिन मामलों में स्त्री के पास अपने अति व्यस्त कैरियर के चलते बेडरूम
की पुरुष तमन्नायें पूरी करने को मा तो वक्त है न ही दैहिक इच्छा ।
अथवा जिन रिश्तों में पुरुष ही इतना सक्षम नहीं या वक्त और मन तन नहीं रख
पाता कि वह स्त्री से एक संतुलित बेडरूम लाईफ शेयर कर सके तब?
यहाँ वह एक बिझार साँड से ज्यादा कोई हैसियत नहीं रह जाती पुरुष की ।
सीमेन डोनर मात्र??? तब विवाह की बनी बनाई धारणा धङधङाकर गिरती चली जाती
है ।

वह पुरुष ना तो स्त्री के खरचे उठा रहा है ना ही उसे घर बनाकर दे रहा है
। न ही सुख सुविधा गृहस्थी के सर सामान जुटा कर दे रहा है । और ना ही
उसका सामाजिक मान सम्मान अमुक या फलां की बीबी होने से बना है ।ना ही वह
उसकी रक्षा करता है अकेले दुकेले आते जाते सुरक्षा के लिये उस स्त्री को
उस पुरुष की जरूरत नहीं?

तब?
तब ये रिश्ता बनाकर वह लङकी जो पूर्ण है हर तरह से क्यों खोये अपना तन मन
धन । क्यों बेकार में अपनी बँधी बँधाई दिनचर्या और लाईफ स्टाईल में
तोङफोङ करके जगह बनाये?

उसे एक बच्चा चाहिये!!!! ताकि जब वह बूढ़ी हो जाये तो ये घर धन सौंप सके
और बच्चे के साथ का सुख हो । बुढ़ापे का सहारा हो ।


तब वह कुँवारे मातृत्व का फैसला क्यों नहीं ले ले!!!
आज विज्ञान ने घोषित कर दिया है कि स्त्री को पुरुष सीमेन तक की जरूरत
नहीं वह खुद अपने ही शरीर के कणों से संतान पैदा कर सकती है ।

और जब वह माँ भी पुरुष की गुलामी किये बिना बन सकती है तब?

क्यों एक विकलांग जिंदग़ी स्वीकार करे ।

क्योंकि अकेले होना ही अकेले होना नहीं है वरन अकेला होने का अहसास तब
क्रूर होता है जब कि एक व्यक्ति को साथी बना लिया और वह तो केवल शोषण कर
रहा हो भावनाओं का तन का मन का धन का पद प्रतिष्ठा परिश्रम हुनर कौशल और
भलमनसाहत का

ऐसी लङकी जो स्वाधीन स्वावलंबी सशक्त और सक्षम है ।जिसकी दैहिक जरूरतें
उसके संयम से कतई तक भी बढ़ी चढ़ी नहीं हैं और वह हर तरीके से अकेले रहकर
सुखी और खुश है ।

केवल एक सदियों की सङी गली परंपरा को समाज के नाम पर ढोने लगे कि उसके
बच्चे को पिता का नाम चाहिये??

शायद भूल रहे हैं हम गणेश जी केवल माँ की संतान हैं ।
भीम अर्जुन नकुल सहदेव युधिष्ठिर केवल माँ की संतान थे ।


और क्यों याद नहीं आतीं वे सद्यः विधवायें जिनका जीवन विवाह के चंद दिन
बाद ही अकेला हो गया और उन्होने अपनी संताने अकेले ही परवान चढ़ायी!!!!!!

क्यों नहीं याद आती वे परित्यक्तायें जिनको विवाह के नाम पर धोखा मिला और
प्रेम के नाम पर यौनशोषण और घर के नाम पर यातनायें देकर निकालने का अपमान
।उन माँओं ने अकेले ही रहकर अपनी संतानों की परवरिश की बदनामियाँ झेलीं
और कुरबान कर दी हर तमन्ना ।

क्यों याद नहीं आती वे बुआय़ें दीदियाँ मौसियाँ ।
जिन्होनें अपने भाई बहिन या भतीजे भतीजी या भांजे भांजियाँ पालने परवरिश
करने की चुनौती लेकर खुद का विवाह ही नहीं किया वही भाई बहिन या भतीजी
भतीजे या भांजी भाजे उनकी संतान हैं!!! ऐसी ' दरजन भर
माँओं को जो कोख में ना रखकर भी मातृत्व निभाये गयीं हम खुद जानते हैं ।
आप भी दो चार को जरूर जानते होगें ।

ऐसी बुआ मौसी दीदी । की शादी से अनाथ भी हो जाते है अनेक बच्चे जो माँ
नहीं कहते परंतु होते तो संतान ही हैं।

कुँवारे मातृत्व की अवधारणा लोगों के गले नहीं उतर रही है । किंतु नीना
मेहता याद होंगीं?
शहीदों की लाखों बेवायें याद होगी ।
और तमाम सामाजिक राजनैतिक महिला नेत्रियाँ याद होगी जिनके पास दत्तक
संतानें हैं । सुष्मिता सेन भी याद होंगी ही।

यहाँ कुँवारे मातृत्व की व्यापक व्याख्या की जरूरत है कि सुखी संपन्न
सक्षम सशक्त स्त्री जबकि उसके मन में जगह ही नहीं किसी पुरुष की दासता
गुलामी और हुकुम की कठपुतली बनकर जीने की न ही कोई प्यार व्यार जैसा नाता
है । तब केवल माँ होने के लिये सत्तर साल तक एक अवांछित पुरुष को ढोते
रहना मन मार मार कर एडजस्ट करना और अपनी हर चीज़ पर

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