खलनायक जो नायक लगते हैं
Sudha Raje
जिंदग़ी के aखलनायक नायक सहनायक
और jउनके स्त्री रूप भी ।
अक्सर चलचित्रों की aतरह बहुत स्पष्ट
और काले सफेद और सीधे बुरे और सीधेr भले
नहीं होते ।
होते हैं नायक aकई बार वे लोग
जिनको सब भले hकहलाने वाले लोग
बुरा नीचा और गंदा कहते है ।
कभी dबूढ़ा सब्ज़ीफ़रोश कभी सबसे
ज़्यादा शरारती दुष्ट बच्चा मुहल्ले
का ।कभी घर का सबसे
निकम्मा आवारा लङका तो कभी राहगीर
जिसे अभी अभी आपने डपट दिया था बस
की सीट पर ।
खलनायक सबसे प्यारी सखी ।बहिन
माँ भाभी शिक्षक जिसके होठों पर
सदा आपकी तारीफ़
या सदा निंदा रहती है ।
हो सकते हैं खलनायक वे पिता पति पुत्र
भाई बाबा मित्र और रिश्तेदार
जो कभी बुरा बरताव करते नहीं दिखते ।
बस उनकी उम्मीदें बढ़ी होती है और समय
पर मदद ग़ायब दवा खत्म हो जाती ।
ये कभी अत्याचार करते दिखते नहीं ।
और
कभी कोई साबित कर
ही नहीं सकता कि कुछ भी अहित करने
का इरादा रहा उनका।
जीवन के नायक खलनायक न डॉक्टर डेंग हैं
न मुगेंबो लेकिन वे है कोई बस कंडक्टर
जो सीट नहीं दिलाने की ज़हमत उठाते
जब सतमासी माँ जा रही मज़बूर प्रसव के
लिये नैहर।
ये होते हैं घर की देहरी पर बैठे दादा जब
न पढ़ने का फ़रमान जारी हो जाता है
बहू बेटी पोती के लिये ।
ये है दफ्तर में बैठे लकदक
कीमती कपङों वाले
अधिकारी जो किसी मामूली से क़ागज
को महीनों तक टरकाते रहते है
इतना कि जरूरत ही न रहे ।
ये नायक और खलनायक लगते है कुछ और
होते हैं कुछ और
कई बार
हम तब पहचान पाते है जब वे uलोग दूर
हो जाते है और कई बार तब जब sकुछ कहने
करने को शेष नहीं रहता ।
©®™¶SudhaRaje
Oct 19
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जिंदग़ी के aखलनायक नायक सहनायक
और jउनके स्त्री रूप भी ।
अक्सर चलचित्रों की aतरह बहुत स्पष्ट
और काले सफेद और सीधे बुरे और सीधेr भले
नहीं होते ।
होते हैं नायक aकई बार वे लोग
जिनको सब भले hकहलाने वाले लोग
बुरा नीचा और गंदा कहते है ।
कभी dबूढ़ा सब्ज़ीफ़रोश कभी सबसे
ज़्यादा शरारती दुष्ट बच्चा मुहल्ले
का ।कभी घर का सबसे
निकम्मा आवारा लङका तो कभी राहगीर
जिसे अभी अभी आपने डपट दिया था बस
की सीट पर ।
खलनायक सबसे प्यारी सखी ।बहिन
माँ भाभी शिक्षक जिसके होठों पर
सदा आपकी तारीफ़
या सदा निंदा रहती है ।
हो सकते हैं खलनायक वे पिता पति पुत्र
भाई बाबा मित्र और रिश्तेदार
जो कभी बुरा बरताव करते नहीं दिखते ।
बस उनकी उम्मीदें बढ़ी होती है और समय
पर मदद ग़ायब दवा खत्म हो जाती ।
ये कभी अत्याचार करते दिखते नहीं ।
और
कभी कोई साबित कर
ही नहीं सकता कि कुछ भी अहित करने
का इरादा रहा उनका।
जीवन के नायक खलनायक न डॉक्टर डेंग हैं
न मुगेंबो लेकिन वे है कोई बस कंडक्टर
जो सीट नहीं दिलाने की ज़हमत उठाते
जब सतमासी माँ जा रही मज़बूर प्रसव के
लिये नैहर।
ये होते हैं घर की देहरी पर बैठे दादा जब
न पढ़ने का फ़रमान जारी हो जाता है
बहू बेटी पोती के लिये ।
ये है दफ्तर में बैठे लकदक
कीमती कपङों वाले
अधिकारी जो किसी मामूली से क़ागज
को महीनों तक टरकाते रहते है
इतना कि जरूरत ही न रहे ।
ये नायक और खलनायक लगते है कुछ और
होते हैं कुछ और
कई बार
हम तब पहचान पाते है जब वे uलोग दूर
हो जाते है और कई बार तब जब sकुछ कहने
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