मैं अमर होकर कुछ नहीं
Sudha Raje
Sudha Raje
प्रश्न प्रतिप्रश्न के बीच।
कभी मेरे उत्तर
किसी को भी
सत्य नहीं लगने थे
मुझे पता था कोई भी कैसे विश्वास करे
कि देहधारी बिना श्वाँस भोजन और
संचय के रह सकता था!!!!!
इसलिये मैंने स्वतंत्र छोङ दिया तुम
सबको निर्बाध प्रश्नों के साथ
मैं एक निर्वात मैं चक्कर लगाता पिंड
मात्र होने का आनंद लेने लगा
अंतरिक्ष
मुझे खींच रहा था उतना जितनी पृथ्वी
मैं न पृथ्वी का रहा ना अनंत का
मैं
नहीं करना चाहता था तर्क
जो प्रायः किसी एकपक्ष के चरमज्ञान
की परमसीमा थे
तब जब वे वहाँ थे जहाँ से प्रारंभ हुआ
था मेरा नक्षत्र भ्रमण
उपलब्धियाँ मात्र भ्रम थीं उन
सबकी जो आज और कल वस्तु होकर नष्ट
होनी थीं उन संग्रहालयों में जहाँ से मैंने
खोज लिया था व्यर्थता का अर्थ
और
याचना के स्वर जब मेरे कानों में पङे
तो तो खंड खंड मैंने सबके कटोरों में
अपना अर्जित व्यर्थ डाल दिया
मूक मौन एकांत के परमचरम सार्थक थे
तो आनंद के दुखद विदीर्णन जब
खोजा परमाण्विक सत्य तो मैं
था ही नहीं
एक कल्पना एक आभास मात्र
था मेरा होना वायु वास्तव में मुझमें से
आवागमन कर रही थी मैं श्वाँस नहीं ले
रहा था ये एक भ्रम था खोखले बाँस से
निकलती आवाज बाँसुरी के सुर
की भाँति मेंरा छाया तत्व आवाजें
निकाल रहा था
कोई और
बजा रहा था मुझे
मैं भ्रम था जन्म से मृत्यु तक अद्भुत कुछ
भी नहीं
भोजन मुझमें से होकर गति कर
रहा रहा मैं उसके मार्ग में आया और वह
मुझे बेधता हुआ निकल गया
स्वाद रूप रस शब्द स्पर्श गंध कुछ
नहीं था अनंत के विकराल अंधकार के बीच
मैं अकेला था मेरे सृजन नाशवान् थे और
नश्वर ही केवल भ्रमवश उन्हें सृजन कहते
रहे
मैं न जीवित था न मरा
जीवन मुझमें से होकर गुजर गया मैं स्वप्न
का स्वप्न हुआ मुक्ति का नाद हो गया
मेरे लिये किसी प्रश्न का उत्तर
देना सहज ना रहा क्योंकि मैं नक्षत्र बन
चुका सब देख रहा रहा था
कि तुम
सबको वांछित उत्तर ही चाहिये
मेरे दिये उत्तर तुम्हें रास न आते
मैं जान चुका हूँ ये प्रकाश भी मुझमें से
होकर गुजर रहा है
मुझे असीम ने अपनी अदृश्य अश्पृश्य भीत
पर अपने आनंद के लिये टाँग रखा है
औऱ
अब मैं अपने कुछ भी न होने के आनंद
को अपने में से गुजरता देख रहा हूँ
मै कवि हूँ
अनादि केभाव मुझमें से गुजरते अक्षऱ
होकर शब्द होते नाशवान् हो रहे
हैं
मेरे भीतर होने तक वे अमर हैं
मैं अमर हूँ
कह देना लघुतम होना है ।
अकथनीय
दिव्य रहस्य उठाये मैं
जाता हूँ
किंचिंत छलकते शब्द गिराता
©®¶©®
sudha raje
Dta*bjnr
Feb 28
Sudha Raje
प्रश्न प्रतिप्रश्न के बीच।
कभी मेरे उत्तर
किसी को भी
सत्य नहीं लगने थे
मुझे पता था कोई भी कैसे विश्वास करे
कि देहधारी बिना श्वाँस भोजन और
संचय के रह सकता था!!!!!
इसलिये मैंने स्वतंत्र छोङ दिया तुम
सबको निर्बाध प्रश्नों के साथ
मैं एक निर्वात मैं चक्कर लगाता पिंड
मात्र होने का आनंद लेने लगा
अंतरिक्ष
मुझे खींच रहा था उतना जितनी पृथ्वी
मैं न पृथ्वी का रहा ना अनंत का
मैं
नहीं करना चाहता था तर्क
जो प्रायः किसी एकपक्ष के चरमज्ञान
की परमसीमा थे
तब जब वे वहाँ थे जहाँ से प्रारंभ हुआ
था मेरा नक्षत्र भ्रमण
उपलब्धियाँ मात्र भ्रम थीं उन
सबकी जो आज और कल वस्तु होकर नष्ट
होनी थीं उन संग्रहालयों में जहाँ से मैंने
खोज लिया था व्यर्थता का अर्थ
और
याचना के स्वर जब मेरे कानों में पङे
तो तो खंड खंड मैंने सबके कटोरों में
अपना अर्जित व्यर्थ डाल दिया
मूक मौन एकांत के परमचरम सार्थक थे
तो आनंद के दुखद विदीर्णन जब
खोजा परमाण्विक सत्य तो मैं
था ही नहीं
एक कल्पना एक आभास मात्र
था मेरा होना वायु वास्तव में मुझमें से
आवागमन कर रही थी मैं श्वाँस नहीं ले
रहा था ये एक भ्रम था खोखले बाँस से
निकलती आवाज बाँसुरी के सुर
की भाँति मेंरा छाया तत्व आवाजें
निकाल रहा था
कोई और
बजा रहा था मुझे
मैं भ्रम था जन्म से मृत्यु तक अद्भुत कुछ
भी नहीं
भोजन मुझमें से होकर गति कर
रहा रहा मैं उसके मार्ग में आया और वह
मुझे बेधता हुआ निकल गया
स्वाद रूप रस शब्द स्पर्श गंध कुछ
नहीं था अनंत के विकराल अंधकार के बीच
मैं अकेला था मेरे सृजन नाशवान् थे और
नश्वर ही केवल भ्रमवश उन्हें सृजन कहते
रहे
मैं न जीवित था न मरा
जीवन मुझमें से होकर गुजर गया मैं स्वप्न
का स्वप्न हुआ मुक्ति का नाद हो गया
मेरे लिये किसी प्रश्न का उत्तर
देना सहज ना रहा क्योंकि मैं नक्षत्र बन
चुका सब देख रहा रहा था
कि तुम
सबको वांछित उत्तर ही चाहिये
मेरे दिये उत्तर तुम्हें रास न आते
मैं जान चुका हूँ ये प्रकाश भी मुझमें से
होकर गुजर रहा है
मुझे असीम ने अपनी अदृश्य अश्पृश्य भीत
पर अपने आनंद के लिये टाँग रखा है
औऱ
अब मैं अपने कुछ भी न होने के आनंद
को अपने में से गुजरता देख रहा हूँ
मै कवि हूँ
अनादि केभाव मुझमें से गुजरते अक्षऱ
होकर शब्द होते नाशवान् हो रहे
हैं
मेरे भीतर होने तक वे अमर हैं
मैं अमर हूँ
कह देना लघुतम होना है ।
अकथनीय
दिव्य रहस्य उठाये मैं
जाता हूँ
किंचिंत छलकते शब्द गिराता
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sudha raje
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Feb 28
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