Friday 8 November 2013

सोशल मीडिया

27--06--2013//7:30//
लेख**
सोशल मीडिया बनाम
वेतनभोगी कॉर्पोरेट मीडिया।।
****************************मीड
वे सब माध्यम जिनसे एक प्राणी दूसरे
प्राणी तक विचार अनुभूतियाँ सूचनाये
और संवेदनायें पहुँचाता और ग्रहण
करता है ।
शब्द रंग स्पर्श चित्र गंध और ध्वनि इसके
औज़ार हैं ।
पहले ये भित्ति चित्र लोकगीत लोकमंच
नाटक नौटंकी नाच माच जात्रा और
चिट्ठियाँ होते थे । फिर किताबें
अखबार सिनेमा रेडियो टी वी हो गये ।
दीवार लेखन मूर्तिकला और पोस्टर के
अलावा मेले हाट नुमाईश भी मीडिया हैं
।।
रही बात अधिकृत और अनधिकृत
मीडिया की ।
तो जब हम इसको मास कम्युनिकेशन कहते
हैं यानि जनसंचार "तब ये जब तक
विशिष्ट वर्ग का विशिष्ट
लोगों द्वारा रचा गया कुछ विशेष
मामलों तक सीमित सूचना तंत्र है विशेष
प्रकार का ""तब तक ये वास्तव में
""जनसंचार नहीं है.।
क्योंकि ये सूचना संपादित और एक
रुकावट केन्द्र पर छानकर सजा सँवारकर
प्रायोजित करके ।।पारिश्रमिक लेकर
समय सीमा और शब्द बंधन में बाँधकर
दी जाती है।
रही बात विचार धारा और मतभेद
की तो, मत हो यानि बुद्धि और
निष्पक्ष सोच तब तो मतिभेद
होना ग्राह्य है । लेकिन यह सिर्फ
इसलिये विभेदकारी हो कि अमुक अमुक
अमुक मेरे और मेरों के हित में नहीं हैं तब
तो यह हित स्वार्थ का विभेद और बैर
पोषण है ।
जबकि होना यह चाहिये कि कट्टर शत्रु
से भी निरपेक्ष सत्य ज्ञान निरासक्त
होकर ग्रहण कर लेना चाहिये ।
जब इंटरनेट नहीं था । लोग
संवाददाताओं पर निर्भर थे ।
दिल्ली की घटना दुर्घटना को अखबार
से और सिनेमाहॉल के समाचार स्लाईड से
और रेडियो से ही पता कर पाते थे ।
इसलिये सूचना और मत विचार और जनमत
बनता नहीं था बनाया जाता था ।
अभिजनों धनिकों के घर तक ही सीमित थे
अखबार रेडियो टी वी और कॉफी हाउस
तक चर्चा परिचर्चा ।
गाँव नदारद रहते थे । नेता ही अखबार
का नायक था । और
दुर्घटना ही सूचना । लेखक ही शब्द
का निर्देशक था ।
सूचना तब रईसों का शगल और
शिक्षितों का चोंचला थी ।पढ़े लिखे
की क्या पहचान?? ""किरकिट कोट कलम
और फिल्मिस्तान।।
रहे पंथ और मजहब!! दल पार्टी और खास
"वाद."।
तो तब भी हर पार्टी का अपना पोषित
पेपर था ।हर दल पंथऔर मजहब
का अपना पत्रकार समुदाय था ।
अखबार बँटे हुये थे । हिन्दू अखबार
मुस्लिम अखबार ईसाई अखबार सिख
अखबार और दल कॉग्रेस जनसंघ लोकदल
समाजवादी और कम्युनिस्ट
पार्टियों ही नहीं वरन फासीवाद
नाजीवाद समाजवाद मार्क्सवाद
पूँजीवाद राष्ट्रवाद नक्सलवाद और
आतंकवाद तक का पृष्टपोषण करने वाले
स्थानीय और क्षेत्रीय
ही नहीं राष्ट्रीय कहे समझे जाने वाले
अखबार पत्रिकायें और
कहीं कहीं रेडियो चैनल तक थे ।
ऐसा नहीं होता तो ब्रिटिश सरकार
को रौलेट एक्ट और वर्नाक्यूलर प्रेस
एक्ट जैसे कानून नहीं लाने पङते ।
नरमदल गरम दल और क्रांतिकारी तक
अपने अपने अखबार निकालते रहे ।
देशभक्त और अंग्रेज भक्त देशी पत्रकार
तब भी थे । नारीवादी और नारीवाद
विरोधी पत्रकार तब भी थे । महान् कहे
जाने वाले पत्रकार विधवा विवाह के
कट्टर विरोधी थे । सती प्रथा के
समर्थन और परदा प्रथा के समर्थन में तब
भी पत्रकारों ने जमकर लिखा।
हिंदी और अंग्रेजी दक्षिणी और
उत्तरी भाषा विवाद भी जमकर चला।
पत्रकारों ने भारत को अंग्रेज प्रभु के
उपनिवेशऔर पूर्ण स्वराज्य के
विभेदों की माँग में भी बाँट रखा था ।
छूआछूत पर भी विचारधारायें
जातिवादी और जातिविहीन अलग अलग
पत्रों में बँटी । एक संक्रमण काल
तो ऐसा आया कि लगभग हर
जाति की अपनी पत्रिका निकलने लगी।
आज भी हर पार्टी हर पंथ हर मज़हब हर
जाति हर भाषा हर औद्यौगिक घराने
और हर "वाद "और
विचारधारा का अपना अपना घोषित
और अघोषित अखबार ही नहीं ।
टेलीविजन नेटवर्क तक है ।
राष्ट्रविऱोधी ताक़ते और
विभेदकारी लेखन आज़ भी जारी है ।
लेकिन सूचना अब सही अर्थों में आज़ाद
हो गयी ।
इंटरनेट के जाल से गूगल
विकीपीडिया याहू एमएस एन ट्विटर
फेस बुक ब्लॉग और बेबसाईटों । यू ट्यूब
और फोटो अपलोड वीडियो अपलोड
की । सुविधाओं स्मार्टमोबाईल फोन
कैमरा ने । हर आदमी को हर समय
सूचना से जोङ रखा है।
दुर्घटना हुयी । व्यक्ति ने मित्र
को सूचना दी मैं यहाँ पङा हूँ मदद भेजो ।
मित्र ने निकटतम सूचना सोशल चैनल से
फैला दी और कोई न कोई वहाँ तक पहुँच
गया ।
अब कब ब्यूरो चीफ तक
निजप्रतिनिधि खबर भेजे लोग
कैमराधारी रिपोर्टर नामक
हस्ती को पुकारें गुहारें वे कहाँ दावत में
हो पता करें आयें थाने चौकी रपट खबर
हो वरदीसाब कहाँ किस हाल में हों तब
पहुँचे फिर एंबुलेंस साब कहाँ किस हाल में
हों तब । सुबह का अखबार तो छप चुका ।
खबर महतत्वपूर्ण है भी कि नहीं ।
कितनी जगह घेरेगी ।कहीं तब तक कोई
कई लाख का विज्ञापन मिल
गया तो खबर? गयी डस्टबिन में
किसी को पता ही नहीं किस छोटे से
कस्बे में क्या गुजर गयी!!! कौन
सी दामिनी किधर मर गयी!!! सीमा पर
किसका सिर कौन काट ले गया!!!! कौन
सा नेता कौन से गाँव कबसे
गया कि नहीं!!!! किस विकास
योजना का क्या हुआ!! कौन सा गुमनाम
नायक किस गली में टूटे सितारे
सा खो गया ।
आज हर आदमी मीडिया है मीडिया से लैस
है ।एक कमजोर इंसान
जिसको टी वी रेडियो अखबार वाले
भगा दें । वह अपनी कथा अपने अकांउट
पर डालकर एक रीतेपन को पा सकता है
। पाँच हजार लोग उसकी प्रत्यक्ष बात
सुनते पढ़ते और चर्चा करते हैं ।
ये किसी ज़माने में एक सम्मानित अखबार
की कुल प्रसार संख्या हुआ करती थी।
परोक्ष रूप से ये बातें मुद्दे बनती हैं ।और
विवश होना पङता है तंत्र को । पहाङ
सेना स्त्री और गाँव आज सोशल
मीडिया की वजह से प्रकाश में है।
जिन गुमनाम लेखकों को जानबूझकर
दफना दिया गया कि वे
किसी की सिफारिश नहीं रखते ।वे
किसी वाद या चापलूसी का पोषण
नहीं करते ।
आज वे जनलेखक के तौर पर उभर रहे हैं लोग
मंच और अखबार से परे उनको पढ़ रहे हैं।
और तो और सोशल मीडिया ने
ही भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया हुआ
है।
आज गढ़े गये हीरो की मूर्ति टूट रही है।
लोग बुद्धि भट्ट की जय बोल रहे हैं ।
लोग देख रहे हैं कि असल में
हो क्या रहा है और टी वी अखबार
कितना कुछ काटकर दिखा रहे हैं ।
बेशक जिस तरह पहले पूर्व इंटरनेट युग के
लोगों ने अखबारों के धर्म
जाति पार्टी दल भाषा वाद और इज़्म
पर आधारित प्रकाशन घराने बना रखे थे
।नेट पर भी ऐसे लोग
अपनी अपनी जाति वाद पंथ दल और
स्वारथ को पेज और ब्लॉग बना रहे हैं ।।
लेकिन इससे सोशल मीडिया की ताक़त
कम नहीं हो जाती बल्कि बढ़
ही जाती है ।
क्योंकि अब आम पाठक सबको एक साथ देख
पा रहा है और तुलना कर पा रहा है
कि देखो देखो देखो ये है
इनका असली चेहरा ।
ये है इन नफरत पंथ जाति और दलगत
भावना को भङकाने वालों की सोच ।
इस सब से छनकर मंथन होकर एक साफ और
सधी हुयी मध्यधारा विकसित
हो रही है ।
जो नर नारी से परे ।जाति पंथ समुदाय
दल और मजहब से आगे।
यहाँ तक सीमाओं से ऊपर उठकर ग्लोबल
विचार और सोच को गढ़ रही है।
हम मानव है ये धरती हमारी है यह
कुदरत ही हमारे होने का आधार है ।और
कोई परम चरम
नहीं सिवा मानवीयता के ।
ये सब न तो टी वी कहता है ।न अखबार
छापता है न रेडियो सुनाता है
इनके तो हर शब्द सेंटीमीटर और चित्र
का पैसा चाहिये इनको ।
पैसा सूचना से नहीं विज्ञापन से आता है
।विज्ञापन आम गरीब नहीं पूँजी पति से
आता है ।और पूँजी के लिये ग़रीब आम केवल
एक वोट है एक फिगर है एक मार्केट
सब्जेक्ट है ।गरीबी पर बोलना औरत पर
बोलना लेटेस्ट फैशन है । कल
हो सकता किसानो पर बोलना फैशन
हो जाये जैसे कभी मजदूरो और नेताओं पर
बोलना फैशन था ।
तब?
जिसका पैसा नहीं मिलता वो नहीं छपता
नहीं सुनाया जाता ।
मगर इंटरनेट है तो हम और आप यानि आम
और गुमनाम ज़िंदा रह सकते हैं और हर
अखबार अब बासी लगता है । हर
टी वी सूचना बासी लगती है । हर
रेडियो चटरपटर अब अनइंट्रेस्टिंग लग
सकती है।
अब पहले अखबार अफवाहे उङाते फिर
खंडन मंडन करते रहते थे इसी तरह कुछ
अफवाह वीर सोशल मीडिया पर भी हैं ।
परंतु दोस्तो न तब अफवाह से
दुनियाँ चलती थी न अब चलेगी ।
सूचना को कई जगह से पुष्टि का अब
स्रोत तो है!!
वरना जे पी की कंडोलेंस
करा ही तो दी थी नामी गिरामियों ने
पहले भी।सूचना के साथ ये
नामी गिरामी आजकल सोशल मीडिया से
आईडिया विचार प्रेरणा और सोच
का जायजा ही नही लेते ।जनता की नब्ज़
समझने को लगातार बयान देते हैं ।और
प्रायोजित बहस कराके खेमेबंदी भी करते
हैं ।अनुयायियों की फौज भी तलाशते
है!!!!
व्हाट एन आईडिया सर जी!!!
क्योकि हम सुन देख पढ़ रहे है रीयल
लाईफ।
और देहाती भाषा में कहूँ तो झक मारकर
सत्तर दफे गरज अटके तो सारे
मीडिया टायकून और कलमवीर ।आ के
देखते है सोशल मीडिया ।
क्योंकि लायब्रेरी और पंडाल से बाहर
उनको कोई जानता नहीं था जब तक वे
सोशल मीडिया पर नहीं पधारे थे ।
पाठ्यपुस्तकों के ट्वेन्टी क्वेश्चन पढ़ने
वाले भारतीय नौनिहाल अभी चौपाई
और साखी रटकर ही पास हो जाते आये हैं
। बाकी जो बचा सो मँहगाई मार
ही गयी पत्रिका तीस की और अखबार
पाँच का । बाबा रे!!!! कौन भरेगा कॉल
का बिल तो बोलो दिल से फेसबुक
बाबा मार्क जुकरबर्ग और गूगल याहू
विकीपीडिया इंटरनेट महापंडित
जी की """""""""""""
इति वार्ताः
"©®सुधा राजे
Sudha Raje
DtaBJNR
पहले सूचना वन वे ट्रैफिक थी ।किसी ने
क्या छापा ये बस खास लोग जानते थे
लेकिन किसी खबर
का कहाँ क्या क्या कितना असर
पङा इससे सूचना दाता महीनों बाद
वाकिफ हो पाता जब कुछ खत मिलते
लेकि आज तत्काल प्रतिक्रिया होती है
तो इन को सतर्क रहना पङता है े
Jun 27

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