Wednesday 6 November 2013

सुधा राजे की एक अनोखी ग़ज़ल

Sudha Raje
मैं अपने आप
सेमिलती गयी
दिलटूट
जाने से
चली आयी मेरी ही याद
मुझको इक़ तराने से
मैं अपने आप से
मिलती गयी
दिल टूट
ज़ाने से
न पूछो किस तरह
ग़ुज़री कहाँ गुजरी कहाँ थी मैं
चली हूँ उम्र भर
निकली नहीँ उसके
ठिकाने से
नशा भी एक रहमत
था अगर
वो दर्द में देता
दिया मुझको अँधेरों में
रखा
वहशत छुपाने से
ये रोज़ो शब अँधेरे औऱ्
उजाले रोज़ अफ़ज़ूं ग़म (daily
growing)
न ज़ाने ज़ी गयी कैसे
रियाज़त faithजख़्म खाने से
जरीं मौका (golden
chance)
जो खोया ज़िंदग़ी भर
फिर नहीँ लौटा
जिंदानीं शौक़ औ उल्फ़त
दिल
जिंदा दर ग़ोर ख़ाने
से
चले गये साख्तः रिश्ते दफ़न
करके न फिर देखे
मैं साक़िन बे शहर सामां
कहूँ किस आस्ताने से
सुनायी रौनकें
पुरखों की ज़ीदारी नियाज़ी यूँ
छिपाये गये हम अपनी ग़ुरबतें
ऐसे ज़माने से
तुझे पहचान
तो लेती चली आयी मैं
महफ़िल से
तुझे
शर्मिन्दग़ी ना हो मेरा रिश्ता
बताने
से
कलेज़ा काट के
जिनको खिलाते गये
वही अपने
मुझे इकरोज
तश्ना बेअमां कर गये सयाने
से
वो बच्ची जो अकेली सो नहीं सकत
थी ख़्वाबों में
हकीक़त में
मरी इतनी नहीँ डरती डराने
से
मैं टूटी इस कदर
बिखरी समेटा बारहा फिर
भी
न रोके रोक पायी ख़ुद
को
उससे दिल लगाने से
सुधा "ये ग़म मुहब्बत का है
14-2-2012या फिर दोस्ती हस्ती
ये किस्सा बेबसी सरशक़
ज़हाँदारी फ़साने से
©®¶¶®¶
Sudha Raje
Dta//Bjnr

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