कविता~:महिलादिवस

मैं एक सुन्दर स्वस्थ शिशु थी
सबने कहा
""ओहहह लड़की हुयी है""
मैं एक चंचल चपल तीक्ष्णबुद्धि बालक थी
सबने कहा"""लड़की हो लड़की की तरह रहो""
मैं एक मेधावी विद्यार्थी थी
सबने कहा"""चाहे जितना पढ़ लो फूँना तो चूल्हा ही है""
मैं एक सुघड़ हुनरमंद बहुमुखी प्रतिभाशाली व्यक्ति थी
सबने कहा"""लड़की तो पराया ही धन होती है रवाना करो"""
मैं एक समाजसुधारक जिम्मेदार नागरिक थी
सबने कहा"""औरत जात चुपचाप दीवारों में ही सही रहती है""
,मैंने स्वस्थ सुंदर संतान जनी, सबने कहा""लड़की पैदा करके रख दी""
,
,
,मैंने याद रखा
,
,
सब
,मैंने
बताया दिया सबको, ,
,
मैं एक तूली कलम आवाज थी,
मुझसे
रौशनी, कागज, मंच, अवसर, स्त्री कहकर छीन लिये गये,
मुझ पर सबका हक था
मेरा किली पर भी नहीं! !!
,
लोग ये याद रखना भूल गये कि,
~
~
मैं,
जितना दर्द सह रही थी उतना ही
सृजन रच रही थी
मैंने रच लियासंसार
जिसमें लड़की भी
शिशु होती है
बालक होती है
विद्यार्थी होती है
प्रतिभा होती है
नागरिक होती है
व्यक्ति होती है
अभिव्यक्ति होती है
अब
मैं,  रच रही हूँ "स्त्री का स्वयं पर अधिकार"
~
तुम देखना
कल
ये दुनियाँ मेरे लिखे संविधान पर चल रही होगी ©®™सुधा राजे

,
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लिखने के लिये कलम कागज रौशनी

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