हो तो ली
अतीत जो था हो चुका सो हो चुका भुला दो चाहे याद रखो अब तो हो लि या
किंतु संभावना हो ही नहीं जिस रेत से पानी की जिस पेङ से नवांकुर की जिस कब्र से मन्नत की जिस मंदिर से मुराद की जिस निवेश से लाभ की वहाँ कोई क्यों टिके!!!
निरुपाय के सिवा कौन रहा है विजन के बियावान में!!
समूह की उङान देखी थी कल ही मधुमख्खियाँ चलीं गयीं सब शहद चूसकर अकस्मात
रह
गयी कुछ मधुमख्खियाँ जो दूर थीं फूलों पर पराग के बीच तब जब समूह भर रहा था उङान जैसे चिङियाँ और चीटिंयाँ बिछङकर रह जातीं हैं सदा को तनहा भटकते रहने पर विवश मन की धारा को न कभी कंठ मिलते हैं न रंग और तूली न कपोल और मुसकान ।
कुछ शब्द और स्पर्श चिपके रह जाते हैं गाढ़ी लोई की माटी की काठी पर चिपके छपे उकरे जस के तस हो ही ली
मगर हूलते रहने से कब उठा बैठ चुका उत्साह का हाथी हूलती टीस में पता ही नहीं लगता कौन ज्यादा जला गया तपती कङाही से उछला घी या रंगों की बेरंगी पर जला जी ।
©®सुधा राजे
Sunday 17 March 2019
गद्यकविता.....हो ली तो हो ही ली
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