गद्यगीत: ~महिलादिवस

हुँह ,महिला दिवस ?
अभी निकलेगी एक लड़की नन्हीं या बड़ी ,और घूरने लगेंगे सब ,जब तक कि वह दिखती रहेगी गली के आखिरी छोर तक ,
हुँह महिला दिवस ?
अभी निकली है एक गर्भिणी पेट छिपाती चार माह का पीछे पति है आगे सास ,कोई विकल्प नहीं है उसके पास ,कतरी जायेगी देह उसके भीतर एक स्त्री की और स्त्री होकर स्त्री को जन्म देने की सज़ा मिलेगी उसे कई महीनों तक दर्द रक्त पीड़ा और टूटते बदन की जीवन भर की यातना
हुँह महिला दिवस ?
पढ़ना चाहती थी ,पढ़ने नहीं दिया ,कमाना चाहती थी ,कमाने नहीं दिया ,प्रेम करना चाहती थी करने नहीं दिया ,कुछ सीखना चाहती थी कि निर्बल न रहे बचा सके स्वयं को नहीं सीखने दिया ,किया यूँ कि जीभर श्रम कराया ,और जैसे तैसे एक नर खोजकर उसके हवाले कर दिया ,फिर वह नर जीवन भर कहता है ,आता क्या है !लायी क्या हो !कमाती क्या हो !जाओगी कहाँ ! वह कहना चाहती है उन लोगों से कि जब यह सब तुम्हारे वश में नहीं था रोकना ,तो क्यों नहीं करने दिया उसे अपने जीवन का हर निर्णय स्वयं ,किंतु नहीं कहने दिया जाता ,हर बार एक पत्थर संतान मर्यादा स्त्रीधर्म सुहाग परिवार समाज के नाम पर उसके सीने पर रख दिया जाता है ,वैसे ही जैसे ,भूमि पर पटक कर अकसर रख दिया जाता है जूते से बंधा पाँव पेट पीठ छाती पर ।
हुँह महिला दिवस ?
शराब या नशा तो बहाना था उसको मादा चाहिये थी और मादा कहीं से जब हासिल नहीं हो रही थी तो अपनी ही बेटी में दिख गयी ,
ये बेटी होती ही क्या है ,एक जिस्म तब जब नशा शराब या ड्रग्स नहीं दिमाग से जिस्म के हर हिस्से में पहुँच जाता है और हर बच्ची बूढ़ी युवा केवल एक मादा नजर आने लगती है कपड़े थान के थान गायब हो जाते हैं और एक्सरे की तरह नजरें टिक जाती है मादा जिस्म पर ,
चीखों के नाम अलग अलग थे अलग अलग बार रिश्तों के नाम अलग अलग थे हर बार किंतु हर बार भूख एक ही थी मादा की भूख और वह जब परायी बच्ची की देह से बुझायी तो बलात्कार अपनी ही बेटी की देह नोंच खाई तो चुपरह रह गई अकसर बेबस मायें ,कैसे कमाने वाले को जेल भेजें कैसें बेटी के माथे पर बाप की भोग्या होने का कलंक लगायें ,जितनी बार माँ चुप रही उतनी ही बार कहानियाँ बढ़तीं गयीं याचना की चीखों की दर्द की और जब बड़ी होकर उन लड़कियों ने थाम लिये समवयस्क युवा तो सबसे पहले बाप ही बोला "बदचलन बेहया "
हुँह महिला दिवस
घर में हर बार आती है मिठाईयाँ दूध बनते हैं पकवान और उपहारों के ढेर लग जाते हैं किंतु एक अनचिनी अनखिंची दीवार हा हर बार भाई को तनिक अधिक और तनिक बिन पूछे लेने का अधिकार है ,माँ बाप समझदार है बहुत लाड़ली है बेटी भी किंतु हर बार भाई का हिस्सा तनिक अधिक और तनिक उश्रंखल हो जाता है ,बेटी बिन कहे गी यह अतिक्रमण मान लेती है ,कितना भी मन मारकर समानता दर्शाएँ पराई है यह वह धीरे धीरे जान लेती है ।
हुँह महिला दिवस ?
सिर पर लकड़ी घास पूलियाँ कंडों उपलों के ढेर उठाये दिन भर हाड़ तोड़ परिश्रम करके घर आती स्त्री को आते ही सबसे पहले भैंस गाय दुहना है ,चूल्हा जलाना है ,बड़ी बेटी के पास छोड़ गए नन्हें को छाती से दूध पिलाना है ,करनी है सानी ,सरकारी नल या कुँए से लाना है पानी ,पकानी है तरकारी रोटी और भात ,
क्योंकि महीने में बीस दिन मजदूरी पर गया पुरुष छीनकर ले गया है रुपये और पीकर आयेगा दारू हर बार की तरह इस रात भी बकेगा गालियाँ और फेकेगा थालियाँ ,बोलेगी कुछ तो वह सहेगी कब तक और हर बार की तरह फिर पिटेगी खायें जूते मुक्के डंडे और घूँसे लात ,फिर भी वह जब चाहेगा भँभोड़ेगा शक्तिहीन थकी बेबस देह दिन हो या रात
हुँह महिला दिवस
कहने को पढ़ा दिया ,किंतु नुमाईश लगा लगा कर एक सड़का पति कहकर पकड़ा दिया ,नहीं दी कोई तदबीर कि बिगड़े तो बदल ले तकदीर ,न करने दी नौकरी न करने दिया व्यापार दे दिया पुरुष का वांछित धन और कह दिया यही है सौभाग्य चलो उसी से करना जीवन भर प्यार ,
ये पुरुष जो तनिक कम दहेज होता तो उसे नहीं किसी और को लेता ,इसका कैसा प्यार क्या स्त्री की भावना से रिश्ता नाता ।जब टूटने लगे दहेज के सामान बढ़ गया परिवार और खरचा आये दिन होने लगी मायके की बुराई और मुहल्ले में बुरी बहू का चरचा ,जिसे माँ को फोन बाप को चिट्ठी भाई से मिलने तक से रोका जाता है ,उसे ससुर के लिये दाल में नमक कम होने सास की दवाई भूलने ननद के लिए कान के झुमके ना देने पर टोका और ठोका  जाता है ,क्या काम की तेरी पढ़ाई हर बात पर कह देती है पड़ौसन जेठानी देवरानी पति की बहिन या भाई ,क्या शिक्षित को दर्द नहीं होता ,नहीं लगती नींद भूख प्यास या अक्षरों के सीखने से समाप्त हो जाते है अपमान के अहसास, करना चाहा जब उसने काम तो बहाने गिना दिये तमाम और रख दिया गृहस्थी का सलीब उसके कंधे पर ,जब जब उसने कुछ माँगा ,हर बार जताया अहसान कर दिया अपमान और सुना दिये ना कमाने के ताने किसी न किसी बहाने ,
अब न माँ को परेशानी है न बाप भाई को ,क्योंकि यही तो है लड़की का भाग्य कह कर कह दिया जाओ निभाओ मतलब साफ है हमारे घर बार बार मत आओ ,आना तो कुछ सन्मान सामान लाना वरना वहीं मर जाता ,
यही रह गया है गृहस्थी का रूप ,किसी के हिस्से किस्मत का चाँद किसी के हिस्से बदकिस्मती की धूप
हुँह महिला दिवस ?
किसके लिए ,रंडी वेश्या रांड छिनाल पतुरिया तवायफ कुलटा पुंश्चली और जबानजोर ,हरामखोर ,या कुतिया ,
माँ बहिन बेटी की गालियाँ बकता पुरुष को पुरुष और स्त्री को देह के नातों पर कोसती स्त्री ,मादा रहने भर का दंड देता समाज और परिवार ,
दोष क्या था ,
नाचने लगी ,
किसने बेचा किसने चुराया किसने खरीदा कौन सी थी मजबूरी जो वह देहरी छोड़ बाजार को चली ,
कब किसी ने देखा ,
नाम चाहे कोई हो कोई भी हो धर्म जब बाजार में बैठी तो कैसी लाज किसकी शर्म फिर भी ,
बाजार में स्त्री को खरीदता बेचता भोगता पुरुष नहीं खाता गाली ,वही जो करता है
मादा समझकर लड़कियों रूपी माँस की दलाली ,और
नरम से नरम गोश्त दिखाकर ऐंठता है धन ,
कब जाता है दरिद्र किसी वेश्या के पास या तो धनी या तो
गुणीजन ,
कौन जानता है किसकी है संतान वेश्या के पेट में ,
और लेट जाती है अगली ही जवानी पर नथ उतरवाने को किसी मंत्री किसी नेता किसी अधिकारी सेठ साहूकार सामंत की बेटी लेकर धन का बटुआ सोने चांदी हीरे की पेटी ।
गाली है औरत ,जनाना ,
हे भगवान
या तो मादा को सैकड़ों पुरुष से अधिक शक्तिशाली कर दे या तो छोड़ दे तू औरतें बनाना ,
मान ले कि गलती भगवान से भी हो ही जाती है ,
स्त्री
जब नरपशु के पंजे में पड़ी चिल्लाती है ,
मुझे ईश्वर से तक घृणा हो जाती है ,
तू ने क्यों बनाई ऐसी देह ?
क्यों लगायी कोख छातियाँ भरा दिया दूध और प्यार ,
या तो छोड़ दे अब स्त्री बनाना ,
या दे हर स्त्री हिंसक स्त्री बलात्कारी स्त्रीपीड़क स्त्री भक्षी को तत्काल मार
हुँह महिला दिवस
यही तो हैं और क्या बस ,
आओ तुम भी बधाई दे जाओ ,
फिर बस रेल आॅटो में लड़कियाँ घूरना धकियाना चुपचात देर रात लिखती पढ़ती लड़की के इनबाॅक्स मैसेज में घुस जाना ,आॅफिस में रूप रंग पर कमेंट करना बतियाना खिल्ली उड़ाना घर पर ठीक न बने भोजन पर चिड़चिड़ाना और अगर यह सब नहीं करते तो महान पुरुष होने का अहसान तो जरूर ही जताना ,
या फिर संस्कृति विनाश का नयी पीढ़ी की लड़कियों को दोष जा लगाना ,
©®सुधा राजे

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