कविता अकविता..........जल गये नाते

स्त्री
एक बेटी थी
उससे जब हिंसा हुयी उसने पुकारा.......पापा पापा पापा........
पापा ने कह दिया
तू बस परायी है, जा अपना भाग्य भुगत,
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स्त्री जब एक बहिन थी
उस पर भयंकर ज़ुल्म अत्याचार हुए वह रोयी.....भईया भईया भईया.....बहिना बहिना बहिना
भईया ने कह दिया, मैं अपनी बीबी बच्चों घर कमाई की सोचूँ कि अब भी तेरी ही सुनता करता रहूँ मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा तेरे सवालों से आहत न हो बस चली जा जा जो तेरे नसीब में लिखा भुगत,
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स्त्री
बुआ थी,
स्त्री पर घोर आतताईपन का लहूलुहान करने वाला हिंसक जुल्म होता गया
रोई अपने पाले पोसे भतीजों भतीजियों को याद करके, मेरे लाल मेरे वीर मेरे बच्चो,

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वही का वही उत्तर
माँ जाने पिता जाने मैं अभी हूँ ही किस लायक !!!
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स्त्री सहेली थी
फिर भी हिंसक नरातंक में कैद विवश और भयभीत थी
वह रोयी, सखी सखी सखी
किंतु वही का वही उत्तर रहा
मेरा अपना पति परिवार बच्चे हैं मैं समाज में प्रतिष्ठित हूँ मेरी छवि खराब हो जायेगी,
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स्त्री
चुप हो गयी
स्त्री रोई
स्त्री मरती गयी
डरती गयी
सब मर गया
हिंसक नरातंक ने उसकी हर अभिव्यक्ति पर कैद लगा दी,
हर संदेश बंद कर दिया
वह संदेश स्वयं देने लगा
स्वयं को भोला मासूम पीड़ित बताने लगा
स्त्री की छाती पीठ कान सिर पर जूते धर कर टूटी पसली सिर से बहते लहू को आँचल से पोंछकर स्त्री
कराहती हुयी
स्वयं को लहू के जम चुके चमकते दर्पन जैसे प्रतिबंब में देखने लगी,
उसने एक एक सांस बटोरी
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सब
चिट्ठियाँ बाँधकर संदूक में रख दीं
न अब
पापा
न अब
भईया
न अब भतीजे
बहिन काका मामा चाचा
सखी

कोई दूर पास का नाता,
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वह उठी और रात के तीसरे पहर में जंगलों की तरफ भागती चली गयी,
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हर तरफ प्रेत थे
पशु थे
वह डर ही नहीं रही थी
क्योंकि जिन्दा नर से मर चुके रिश्तों से भयानक और कुछ नहीं होता
अपना रक्त चख कर अपना दर्द जो स्त्री पी सकती है
वह जंगल हो या मरघट
कहीं भी जी सकती है
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पीछे से नरातंक पुकारा
उसने ससुर साले सलहज साली सखी समाज सबको ललकारा,
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सबकी प्रतिष्ठा का सवाल बनाया
और
चिल्लाया,
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सब
पुकारने लगे
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बेटबेटी
बेटी
बहिना
बहिना
बहिना
बुआ
बुआ
बुआ
दीदी
दीदी दीदी
गुईयां
गुईयां
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तुम हो कहां
,
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वह नहीं मुड़ेगी न जुड़ेगी
,
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टूट चुकी हड्डियां जुड जातीं हैं
नाते
जलकर फिर जनमते नहीं,
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सबको केवल एक ही डर है निजी प्रतिष्ठा का क्या होगा,
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स्त्री जानती है,
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सब कायर हैं नपुंसक है नास्त्रियां हैं
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किसी में दम होता
तो
ये लहू रोज उसका उसके कपड़े ना धोता,
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सब चाहते हैं खोज कर पकड़ कर मरातंक के हवाले कर दें ,
ताकि कहीं समाज के डरपोक हिजड़े उन सब क्लीबों नाम
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महान परिवारों में धर दें

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स्त्री मर कर जी सकती है लहू पी सकती है तो
अपनी टूटी पसली फटा सिर और कुचली हुयी काया भी सीं सकती है
नहीं जोड़ सकती तो दर्द में नाकारा नाते
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सीता कभी अयोध्या नहीं गयी
,
ना ही महाभारत के बाद द्रोपदी सिंहासन पर विराजी,
,
न लौटी दक्षकन्या वापस कैलाश
ये है स्त्री का स्वयं पर विश्वास और सबसे टूट चुकी जलती आश
©®™सुधा राजे

सब का वही उत्तर

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