मुझे सिर्फ एक दिन चाहिए था ,
वह दिन जब लोग मुझे घूरें नहीं ,वह दिन जब लोग मुझसे पूछें नहीं तुम्हारे पिता पति पुत्र भाई कौन हैं ,
वह दिन जब लोग मुझसे पूछें नहीं
तुम कुमारी हो ,सुहागिन ,या विधवा ,
सिर्फ एक दिन
जब मुझे पहाड़ नदी झील सड़क मैदान बर्फ सागर तालाब खेत कहीं भी कुछ घंटे एकाकी एकांत शांत  बिना किसी कार्य की तेजी से बहुत हड़बड़ी में कविता न लिखनी निबटानी पड़े मैं पूरे विस्तार से उसे उतार सकूँ पूरी उमड़न की गहनता के साथ
मुझे सिर्फ एक दिन चाहिए था
जब मैं लंबी दूरी तक बिना डरे पैदल बहुत लीन होकर गुनगुनाती हुयी चल सकूँ ,और मेरा कंठ न डरे कि स्त्री को गाता देखकर कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा ,
मुझे सिर्फ एक दिन चाहिए था
जब मैं पार्क की ठंडी बेंच पर देर रात तक लैंप पोस्ट की रोशनी में अपने रंगों से दूर बहती नदी के पार दिखते रात के बादली उमड़न में घूमता चांद चित्रित कर सकूँ ,
मुझे सिर्फ एक दिन चाहिए था
कि मैं ठंडी रेत पर नंगे पाँव दूर तक थिरकती हवा के साथ घूम सकूँ और मेरे बालों पर गिरते पत्तों को बिना हटाए नारियल के पेड़ों पर लटके बंदरों के झुंड निहार सकूँ अलस्सुबह तब जब कोई ,
मुझे छूने की चेष्टा न करे ,
मुझे एक दिन चाहिए था ,
एक अजनबी नगर में अजनबी लोगों के बीच एक अजनबी नाम रख कर बस यूँ ही किसी अनजान राह पर चलते जाने को कि मैं यह महसूस कर सकूँ कि उस एक दिन मैं सुबह बिना किसी दायित्व के अपनी इच्छा से देर तक सो सकती हूँ या बहुत पहले जाग कर कहीं दूर टहलने निकल सकतीं हूँ कि मुझे दीवारों के भीतर वापस लौटने की कोई तेजी नहीं है क्योंकि मुझे ,लंबी ठंडी साँसें सुखद लग रही हैं और देर तक कमरे में पड़ रही धूप में पड़े रहना भला लग रहा है ,कि वहाँ कोई मुझे नहीं जानता कि मैं किसकी बेटी किसकी बहिन किसकी माँ और किसकी पत्नी हूँ मेरा धर्म क्या है और मुझे कोई टोक नहीं रहा है कि यह न करो वह करो ,यह न पहनो वह पहनो ,यह न खाओ वह खाओ ,अब तक बाहर क्यूँ हो ,या कि अब तक पड़ी ही हो ?
मुझे बस एक ही दिन तो चाहिए था रेलगाड़ी की सीट पर चाँद के निहारने के साथ चुपचाप कविता के पन्ने मन की दराज से निकाल कर डूब जाने को कि मैं तब तक चलती रहूँ गाड़ी जब तक चलती रहे वह काश कि संसार की सबसे लंबी दूरी की रेल हो और हो मेरी सब चीजें मेरे पास ,कलम डायरी कैमरा रंग तूली वायलिन कुछ पानी और थोडडा सा याद आ जाने पर कुछ खाना ,कोई न रोके न टोके न घूरे न पूछे न ही डराए न छूने को अकुलाए ,
बस वही एक दिन तो चाहिए था मुझे ,
जब मुझे यह भूल जाए कि मैं स्त्री हूँ ,
मुझे ,कहीं भी कोई भी केवल देह मात्र स्त्री होने से असहाय निर्बल कमजोर पराधीन पराश्रित और कुछ भी कहने पूछने टोकने की पात्र न समझे ,
बस एक दिन चाहिए था जब मेरे हाथों में सारा दिन मेरा वायलिन ,कलम की पैड कैमरा स्टेरिंग या तूली हो और मुझे कोई यह न कहे न याद दिलाए कि यहाँ बैठना रहना चलना लिखना बोलना ठीक नहीं क्योंकि तुम एक स्त्री हो ,
बस एक दिन ,जब मुझे ,
झरने में नहाने पर ,जोर से गुनगुनाने पर ,
खुले आकाश के नीचे अकेले बतियाने पर ,
पहाड़ों की तरफ देर तक ताकने और पेड़ के नीचे चित्र बनाने पर ,
रात में दिन में भोर में दोपहर कोई ,
न टोके न रोके न छुए न घूरे न पूछे कि तुम हो कौन यहाँ क्यों हो ,घर क्यों नहीं जाती ,
एक दिन ऐसा नहीं दे सकता स्त्री को संसार तो कैसी महिला दिवस की मान मनौवल कैसा तिथि दिवस व्यवहार ©®सुधा राजे

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