गद्यगीत: ~:रस्म निभाने भर के नाते

मैं देखती हूँ "वह "सुबह ही भोर में उठ जाती है ।
घर बुहारती है चाय नाश्ता पकाती है बच्चों को सजा कर पाठशाला और पति ससुर देवर  को काम पर भेजती है कपङे धोती है बर्तन माँजती है गेंहू चावल दाल साफ करती है और स्वेटर बुनती है कढ़ाई सिलाई करती है और अचार बङी पापङ चिप्स बनाती है """""
देह ही देह जैसे रह गयी हो ""मन ""है ही नहीं कहीं? या है?
दिन भर बतियाती है ।
कभी बच्चों को कभी गाय भैंस को कभी कुत्ते बिल्ली को कभी पङौसी को कभी पति ससुर सास देवर को हङकाती है ।
बङबङाती रहती है दिन भर कभी कपङे कभी साग सब्जी राशन ईँधन कभी दवाई पढ़ाई बर्तन सामान के खर्चे पर ।
शब्द ही शब्द बहिर्  ही बहिर् अंतस कुछ है ही नहीं जैसे!!! या कि है????
मार खाती है अक्सर पति से
गालियाँ ताने मिलते है अकसर देवर ससुर सास ननद से
झगङा होता रहता है पङौसियों से और बच्चे झल्लाते रहते हैं ।
अशांति और क्रोध अमर्ष और असंतोष यंत्र वत् सब कुछ सह जाती है और घसीट कर बंद कर दी जाती है तब भी धक्के देकर बाहर निकाल दी जाती है तब भी वह जस की तस
वहीं रह जाती है
जैसे कुछ हुआ ही न हो ।
देह ही देह
जैसे मन है ही नहीं ।या कि है??
किसी ने नहीं देखा उसे कभी बैठे खाली ।
हर वक्त कुछ न कुछ कर रही होती है ।
लेकिन मैं जानती हूँ ।
कई बार जब गीतों की मंडली में केवल रस्म निभाने आ जाती है और किसी की जिद पर भूला बिसरा कुछ गा जाती है । भरभरा जाती है गाते गाते उसकी आवाज़ ।
जैसे मन को भी "फेरों "के साथ छोङ देने का निभाती है अकसर आम स्त्री एक रिवाज़ । या कि नहीं??
©®सुधा राजे

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