सुधा राजे की कविता:- 'दमकती काँच की चूङियों के नीचे "

गाल पर पङते गढ़े पर सबका ध्यान
चला जाता है,
मुहल्ले की गीतसभा में ढोलक
की आवाज़ पर सब गा लेतीं हैं और
गा लेती है 'माधुरी 'वह सब जो वह
कह नहीं सकती, सास को गारी,
पति को ताने, माँ बाप भाई बहिन
की यादें और सखियों के बहाने, राम से
विनती और वेदनाओं की गिनती ।
मेहमान जब आते तो कुछ दिन टल जाते
और कुछ दिन छल जाते ',सबके बीच
पाऊडर लाली रंगीन
कपङों की तहों पर दर्पण
को ठगती झुठलाती माधुरियाँ,
कितना हँसतीं कितना गातीं हैं,
लेकिन, उसकी हँसी में
उसकी सुखी गृहस्थी तलाशती "बिछुङ
कर पराये हो गये अपनों की आँखें
कभी उसके हाथों की उंगलियों और
कलाईयों पर क्यों नहीं हैं, '
वेदनाओं के हस्ताक्षर तो वहीं होते है
जली छिली कटी हथेलियाँ सिकुङकर
मोटी भद्दी और
झुर्रियों भरी हो चुकी उंगलियाँ हर
बार चूङी के घपप घुप जाने तवे
कङाही से जल जल जाने और प्रहार
बदन पर रोकने से कट कट जाने से बने
घावों के निशान, '
सब वहीं तो लिखे जाते है,
बाकी सब लिखा होता है पीठ पर
कोख पर और टूट कर फिर फिर रक्त
फेंक कर मरी आत्मा के साथ गुलाम
बदन को साँसों पर टाँगे रखने के लिये
धक धक करता दिल जो सबसे पहले बन
जाता है भ्रूण में
किसी मादा की कोख में, दशकों से
सूनी सेज के दोनों और उतरते कदम,
सुबह से शाम तक घङी की तरह चलते
टिक टिक पैरों में पङ चुके गढ़ों में अब
नहीं चुभते बिछुये बिच्छू की तरह धँस
चुके माँस में, सुहाग के नाम पर,
आधा दरजन बच्चे जनकर
माधुरियों को प्रिया
समझ लेते लोग अपने होकर भी कब
समझ पाते हैं कि छह बच्चों के लिये
प्यार नहीं बस पूरे जीवन में छह बार
बलात्कार या व्यभिचार
की ही जरूरत बन कर रह जाती है
कितनी ही सुखी गृहणियाँ और फिर
जीवन भर उन बच्चों के लिये
किया जाता है भयादोहन ।
जरूरत ही कहाँ है
किसी का चेहरा देखने की?
दीवारें पहन कर 'बैठी माधुरी फिस्स
से हँस देगी पर
तुम
उसका चेहरा नहीं कलाईयाँ देखना हर
वेदना की एक
निशानी वहीं मिलेगी 'दमकती काँच
की चूङियों के नीचे "
(cOPY RIGHT)
सुधा राज

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Sudha Raje
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