Tuesday 12 August 2014

सुधा राजे का शब्दचित्र- ""विभक्त आत्मा""

जानते थे और डरते थे इसी लिये उस राह पर कभी देखना तक नहीं चाहते थे,
सुना पढ़ा और लोगों को तबाह होते देखा था, फिर भी एक मोङ पर, अपने पाँव
जमाकर चलना इतना कठिन हो गया कि वहाँ से निकलते निकलते मैंने अपने पाँव
जख्मी कर लिये,आग पर चलकर और काई दलदल में से भी जीवित और सुरक्षित
निकलकर जब मैं सोचने लगी कि अब मेरा मार्ग साफ और लक्ष्य सामने है बस
चलना ही तो है मुझे पिछले जंगल से आतीं तमाम आवाजें और डरावने स्वरों के
बीच कुछ जाने पहचाने गीत याद आने लगे,
मुझे लगा,
मैं भी गा सकती हूँ लेकिन मैं अपनी आवाज सुन नहीं पा रही थी या तो मेरा
स्वर खो गया था या सुनने की क्षमता,
मैं किसी से पूछना चाहती थी कि ये अष्टपथ कहाँ कहाँ को जाते हैं किंतु
मुझे कोई दिखा नहीं या मैं अपनी दृष्टि खो चुकी थी ।
मेरे सामने घना अँधेरा था पीछे से तेज हवायें और धमकने के कंपन थे मेरे
पैरों के नीचे से धरती खिसक रही थी,
हवायें मेरा पीछा कर रही थीं मैं बेतहाशा चीखी और जब कुछ ही आता महसूस
नहीं हुआ मैं चल पङी पथ जो भी सामने था मुझे उसमें हवाओं ने लगभग धकेल कर
रास्ता बङे बङे पत्थरों से बंद कर दिया मैंने मुङकर देखना चाहा,
या तो पीछे कोई था नहीं या मुझे दिखा नहीं,
टटोलकर मैं जिस वस्तु के सहारे खङी होना चाहती थी वह बुत या दीवार जो भी
था उसमें संवेदना नहीं स्पर्श प्रतिक्रिया नहीं थी ।
या मेरा ही संवेदन संस्पर्श शून्य हो चुका था घुप्प अंधेरा और हर तरफ से
सँकरी गली पर चुभते पत्थर मैं चल नहीं सकती थी घुटनों के बल रेंगने लगी
चौपाया होकर,
मैं कुछ ताकत चाहती थी किंतु मेरे सामने सिर्फ अपना ही लहू था पीने को
मैं पिशाच की तरह अपना लहू पीकर जीवित नहीं रहना चाहती थी,
इसलिये मुझे विषैले पेङ पौधे कीङे मकोङे जो भी मिला मैं खाती रही,
मेरा रूप वीभत्स हो चुका था या तो मुझे कोई दर्पण और दर्शक नहीं मिला था
दीवार पर कीलें थी काँटें थे और जरा सा करीब जाते ही मेरे कंधे पसलियाँ
पेट पीठ चेहरा घायल हो जाते ।
फिर दर्द आदत बन गया और मेरी पीङा महसूस होने की क्षमता कम होती गयी या
तो मैं निर्विकल्प होकर अपना ध्यान हटाती रही ।
मेरा पूरा माँस पथ की कंकरीली जमीन और दीवारों के नश्तर खा चुके थे मेरी
हड्डियाँ बार बार टूटतीं और जुङ जातीं ।
ठेठ दाग खराशें छूकर मैं कभी कभी ताऱीखें गिन लेती कभी मील,
मेरे शरीर का बोझ जब मुझसे नहीं उठाया गया तो दीवार मुझ पर गिर पङी
मैं या तो मर चुकी थी या तो कई टुकङों में बँटकर पुनर्जीवित हो दुबारा
तिबारा चौबारा चल पङी थी ।
मेरे बदन में न लहू बचा था न पानी मैं भूख और प्यास तक खो चुकी थी या कि
सूखी भूमि की तरह फट कर मरुस्थल हो चुकी थी ।
मेरे नाखून टूट चुके थे बार बार दीवार पर उगे पौधों और धरती तल से निचोङ
कर खोद कर पानी से अपने सब टुकङे सींचते ,
अब मुझसे चला नहीं जाता,
मेरे सब टुकङे बढ़ रहे हैं यह सँकरी गली छोङकर वे दीवार तोङकर चढ़ रहे हैं,
मुझे मालूम है बस एक घूँट एक बूँद पिये बिना हीभी मैं जी पङूँगी
लेकिन मुझे पाँव न सही वैशाखियाँ तो बनानी ही पङेंगीं
वरना इस बंद मुहाने के पार कैसे चढूँगी मैं।
मैं खोज रही हूँ डोरियां जिनसे जकङा था मुझे
मैं उनसे ही कदाचित कोई मशाल जला सकूँ या खंडित कबंध को चला सकूँ
मेरे पास पंख उगाने की कला है किंतु समय कम है और कबंध पुराना
जब कोई मेरी समाधि बनाकर दिया जलाकर मुझे पढ़ेगा आयु रहते उसके पंख उग आयेंगे
©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

1 comment: