सुधा राजे की मुक्त कविता -: "मुक्ति दिवस"।

उसकी आँख पर चोट
लगी थी बाँयीं आँख के ठीक ऊपर माथे
के बगल वाली तरफ लाठियों के तीन
भरपूर वार पङने के निशान थे ।
खोपङी फटते फटते बची थी और आँख
फूटते फूटते ।
दो काली नीली ललाभ गहरी कत्थई
धारियाँ दाहिनी भुजा पर
थीं जिनसे रक्त बाहर नहीं छलका बस
भीतर फैल गया था ।
चूङियों के सब के सब टुकङे धँसकर
कलाईयाँ जख्मी करते हुये रक्त से सने
हाथों पर खरोचें बना गये थे
पुरानी के ऊपर नयी निशानियाँ ।
बायें हाथ की पिछली तरफ हथेली पर
तीन उंगलियाँ बस टूटने से बच
गयीं थीं किंतु वह हाथ से न तो बाल
सँवार पा रही थी न ही कपङे पहन
पा रही थी ।
जाँघों पेट पीठ पर पुराने कई कई
निशान दिन ताऱीख याद दिलाते
दुख रहे थे । कुछ टाँके कुछ ठेठें कुछ
इतिहास कुछ वर्तंमान कुछ भविष्य
सब उसके बदन पर और उससे अधिक मन
पर लिखा था ।
कई बार सोचा कि जल कर मर जाये,
गले में घङा पत्थर भर कर बाँध के
नदी में कूद मरे,रेल की पटरी पर
जा सोये, जहर पीले,
फिर याद आते पङौस के बिन माँ के
बच्चे, एक एक रोटी को हाथ जलाते
मैले दीन दुखी वह थर्रा जाती ।
सोचती बस बच्चे सँभल जायें
कैसे कहे नब्बे साल के बीमार पिता से
कि उसे अब हिस्सा चाहिये
संपत्ति में? और कैसे बताये भाई
को कि उसने इतने
वर्षों की गुलामी के बाद भी 'मार
पीट ताने और बाप भाई ने
क्यों नहीं दिया 'की ही उपलब्धि पाई
है, वह क्यों नहीं जा पाती है मायके
के तीज त्यौहारों पर और
क्यों नहीं चाहती बुलाना किसी को भी अपने
कहे जाते इस घर में, कैसे कहे कि अकसर
उसे धकेलकर निकाल दिया जाता है?
वह फिर फिर क्यों चुपचाप सह
जाती है सब कुछ,
राखी के भरे लिफाफे जस के तस पूजा में
रखे थे और विवाह के गहने तिजोरी में
बेटियों का भात कौन देगा और कैसे
पार लगेंगी लङकियाँ, सोचते सोचते
वह सिसक पङी,
जैसे तैसे खाना बनाकर रखा और दर्पण
के सामने आकर दागों पर पाऊडर
लगाकर छिपाने की चेष्टा की दुखन से
आह फूट पङी,
तभी छत पर से पङौसन ने पूछा अरररे
ये क्या???
कुछ नहीं जीजी!
बस जरा फिसल गयी थी सीढ़ियों से
बेध्यानी में कपङे लाते समय "
बाहर बाईक की आवाज आई वह रसोई
जा कर खटर पटर रोटियाँ सेंकने
लगी,
तभी बच्चे विद्यालय से आये और जोर से
चीखकर बोले "माँ माँ माँ कल
स्वतंत्रता दिवस है "
ये स्वतंत्रता दिवस क्यों मनाते हैं?
मुझे भाषण देना है, आप लिखा दो न
प्लीज!!
वह कुछ सोच ही रही थी कि एक
आवाज गूँजी """""कोई भाषण वाशण
गीत वीत में भाग नहीं लेना है
"चुपचाप पढ़ाई करो बस्स "!!
उसे लगा उसकी रीढ़ की कुछ कशेरुकायें
चटक कर टूट गयीं हैं
©®सुधा राजे

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Sudha Raje
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