सुधा राजे का लेख- भरोसे की जङ में अविश्वास का मट्ठा।

एक लङकी थी गाँव की ।
नगर में रहती मामी मामा के पास पढ़ने आ गयी नौंवी में ।
मामी के बच्चे नहीं थे तब नवेली बहू थी ।
करीब की दुकान पर पी सी ओ और किराना दोनों पर रात में सस्ती दरें होने से
फोन करने सुनने को जाती मामी तो भाञ्जी भी जाती ।
मामी कॉल के इंतिज़ार में कैबिन में बैठती लङकी पीसीओ वाले की बेंच पर
वेटिंग लॉबी में हाल चाल पूछते पूछते बातचीत बढ़िया और परिवार जैसी होने
लगी ।

लङकी जब जब माँ बाप को फोन करती या सुनने जाती ।

कोई चार्ज नहीं लेता पी सी ओ वाला ।

उसकी किराने की भी दुकान थी ।

लङकी को च्युंगगम और चॉकलेट पसंद थी मामी के दाल तेल चाय बेसन लाते यदा
कदा वह चॉकलेट च्युईंगगम भी खरीद लेती ।

धीरे धीरे दुकानदार ने,, हर बार की किराना शॉपिंग पर न न न न करते भी
चॉकलेट और च्युंगगम फ्री ऑफ कॉस्ट साथ रखनी शुरू कर दीं ।

हर चीज के दाम पङौस की दुकान से एक दो रुपये कम लेता ।


नववर्ष और जन्मदिन और ईद पर त्यौहारी गिफ्ट रूप में मिठाई इत्र और अरब के
नातेदारों से लायी चीजें भी पूरे परिवार को भिजवा देता ।

भले लोग भली सोच, लङकी को शौक लगा उर्दू सीखने का, औऱ घऱ पर दुकान दार की
छोटी बहिन पढ़ाने आने लगी ।
कभी कभी बाज़ार भी चलीं जाती दोनों ।


एक दिन 'मामी घबरा गयी '
लङकी सुबह से निकली दोपहर तक नहीं आय़ी ।

जब आयी तो बताया कि "उर्दू पढ़ाने वाली लङकी के साथ दरगाह पर गयी थी
जियारत को ताकि बढ़िया नंबर आयें और मामी को लङका पैदा हो ।

बात आई गयी हो गयी ।
लेकिन जब लङकी की एक और छोटी बहिन मिलने आई गाँव से तो उसने बताया कि
जियारत पर एक बूढ़े बाबा छू छू कर बात कर रहे थे और उर्दू पढ़ाने वाली
लङकी को शाबासी दे रहे थे,

कुछ दिन बात
लङकी की माँ को बुलाकर मामा मामी ने लङकी वापस गाँव ले जाने के लिये कह दिया ।

क्योंकि

पेन की जरूरत पर लङकी का बस्ता टटोलती मामी के हाथ कुछ ख़त लग गये ।

★★★

लोगों को लग सकता है कि यह एक प्रेम कथा है ।

नहीं है ।

लोग सोच सकते हैं कि
गलती दुकानदार की और दरगार वाले बाबा की और उर्दू पढ़ाने वाली लङकी की है ।

नहीं है ।


क्यों नहीं है? इसलिये नहीं है कि इसलाम की शिक्षाओं में घोल पीसकर यह
पढ़ाया सिखाया जाता है कि '''संख्या बढ़ाओ "
पहले तानाशाही साम्राज्यवादियों ने भारतीय अछूत शूद्र और सेवक कही जाने
वाली जातियों को ""भय और धन ""के दमपर परिवर्तित कराया ।

आज
बहुत कम विदेशी मूल के लोग भारत में हैं । ज्यादातर वही लोग हैं जिनके
पूर्वजों ने छल से भय से या धन जमीन और दरबार में पद के लिये धर्म बदल
लिया था ।
यानि तब भी उनका शोषण ही हुआ था ।
कोई बहुत राजी खुशी नहीं कर पाता है धर्म परिवर्तन का फ़ैसला ।
और अब बँटवारे में तीन टुकङे होने के बाद बचे खुचे भारत में भी एक तरफ
"जंगल जंगल ईसाई मिशनरियाँ अस्पताल स्कूल अनाथालय और रोजी रोटी जॉब इलाज
मकान दे देकर अपना विस्तार बढ़ा रही हैं ।
दूसरी तरफ ""प्रेम विवाह और धन देकर ललचाकर और छल से इसलाम में लङकियों
को लाया जाता है ।
चाहे ये प्रक्रिया बहुत ही धीमी हो किंतु ऐसा है ।
बहुत कट्टर जो लोग नहीं है धर्म के मामले में जिनके घर बहुत पूजा पाठ
नहीं होता और जो बहुत बारीकी से घर की हर बात पर नज़र नहीं रखते वे अचानक
धोखा खाते हैं ।

ये लङकियाँ खुद कई बार परिवार से बग़ावत पर उतर आतीं हैं कोर्ट कचहरी तक
जाकर कोर्ट मैरिज कर लेतीं हैं और राज़ी खुशी बुरका पहिन कर खुशी से
इसलाम को अपना लेतीं हैं ।


आप लोग सोच सकते हैं ये तो बहुत बङा धोखा है साजिश है और कपट है ।


नहीं है ।

क्यों नहीं है ।

क्योंकि जब तक आप ये नहीं मान लेते कि ""कॉन्वेंट स्कूल क्रिश्चियन
अस्पताल क्रिश्चियन अनाथालय,, मदरसे,, दरग़ाह,, वक्फ बोर्ड,, इमामबाङे,,
बढ़ते गिरजाघर और मसजिदें,, केवल इसलिये ही ""अतीत में बनाये जाते रहे थे
कि ईसाई और मुस्लिम अपने अपने धर्म का प्रचार करें ।

जो जो धर्म बदलना चाहे बदल सके ।
ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार और कबीलों वनवासियों दलितों उपेक्षितों को "
"धर्म प्रचार के साथ संदेश के साथ "मदद "
इस विस्तारीकरण का अंग है ।


यह उनके मजहब में सर्वोत्तम सेवा पुण्य कार्य है ।

यदि एक ईसाई ""सौ लोगों को भी दूसरे धर्म से बदल कर ईसाई बनाने में
क़ामयाब रहता है पूरे जीवन में तो वह "
""चर्च का बेहद सम्मानित कीमती व्यक्ति ""
माना जाता है ।

बलपूर्वक ईसाई बनाना भी अतीत के कई पन्नों में दर्ज है ।
बलपूर्वक मुसलिम बनाना भी अतीत के कई पन्नों में दर्ज है ।
ईसाई मानते है कि "क्रिश्चियन के अलावा सब बर्बर जंगली और मूर्ख लोग थे ।
मुसलिम मानते थे कि जो इसलाम को नहीं मानते वे पापी अपराधी और बुरे लोग थे ।


कुल मिलाकर
दो धर्म ऐसे हैं जिनके धर्म की एक जरूरी बात है कि वे पूरे विश्व के हर
व्यक्ति को ।
अपने धर्म को मानता हुआ ही देखना चाहते हैं ।
किसी भी पादरी से मौलवी से पूछो वह चाहता है कि सारी दुनिया क्रमशः ईसाई
और इसलामिक दुनिया हो जाये ।


अब आप कहेंगे ये सब गलत है ।


नहीं है ।।
वे तो अपने धर्म में सबको बुला रहे हैं ।
गलत तो है आपका हिंदू धर्म जिसके सारे रास्ते आपने बंद कर रखे हैं!!!!!


आप मंदिर तो बनाते हैं बङे बङे ।
पूजा होती है बङे जोर शोर से ।
किंतु जैसे ही एक "एक दूसरे धर्म का व्यक्ति चाहता है कि वह भी हिंदू बन
जाये और आपके कृष्ण राम विष्णु दुर्गा शंकर की पूजा करे ',

आप भन्ना जाते है!!!!!!!!


वे नहीं भन्नाते जब आप क्रॉस पहनते हैं
या जब आप दरगाहों पर चादर चढ़ाने जाते हैं या जब आप रोज़ा इफ्तार में
बुलाते हैं या जब आप क़ुरान पढ़ना चाहते हैं या जब आप बाईबिल पढ़ना चाहते
हैं!!!!!!!!!


वे आपको मुफ्त में बाईबिल बाँटते हैं ।
आप कभी मुफ्त में गीता बाँटते हैं?

वे मुफ्त में आपको अपने धर्म की खूबियाँ बताने वाले तर्कों की किताबें बाँटते हैं ।


क्या आपने अबतक भी कोई """सार सार ग्रहण करके ऐसी पुस्तक संकलित करके रच
पाई जिससे अजवबी लोगों को हिंदू धर्म को समझकर प्रभावित करने को बाँटा
जा सके मुफ्त में ।


जैसे बाईबिल न्यू टेस्टामेंट बाँटी गयी!!!!


आपको बता दें कि भारत की पहली प्रेस जो गोवा में लगी थी वह भी धर्म
प्रचार के लिये ही किताबें छापने के लिये लगी थी ।

भारत में पादरी विलियम कैरी ने टाईप एक के बाद इक्ट्ठे किये हिन्दी सीखी
संस्कृत सीखी ताकि """अपने धर्म का प्रचार आपके देश की भाषा में कर सकें
और आपकी धार्मिक किताबों को पढ़ सके ।

गटनबर्ग की प्रेस का भी दो सदी पहले जो निर्माण और विकास हुआ था वह भी
इसीलिये हुआ था कि ""बाईबिल के उपदेश छापकर बाँटे जा सके ""


विश्व की सबसे अधिक बार छपने वाली किताब बन चुकी है बाईबिल ।

और कदाचित ही कोई देश होगा जहाँ ईसाई नहीं रहते हो ।

भारत
के हिंदू और वनवासी हमेशा से ईसाई और मुसलिम धर्म प्रचारकों के निशाने पर रहे हैं ।

जब तक भारत में ही नहीं पूरे विश्व में एक भी गैर ईसाई है चर्च को चैन नहीं ।

जब तक भारत में ही नहीं पूरी दुनियाँ में कहीं भी ग़ैर मुसल्म कोई प्राणी
है मुसलिम अतिवादियों को बर्दाश्त नहीं ।


परिवार नियोजन कभी ईसाई धर्म या इसलाम धर्म का हिस्सा नहीं है ।

परिवार सीमित रखने वाले क्रिश्चियन दम्पत्ति चर्च को पसंद नहीं वह तो
"""स्त्रियों की जॉब की मजबूरियाँ और सुंदर स्वस्थ रहने की बगावत है ।


परिवार सीमित रखना मदरसों को भी पसंद वहीं । अगर मुसलिम दंपत्ति एक ही
बच्चे या दो बच्चे पर ही पूर्ण विराम लगाते हैं तो वह "मदरसों को पसंद
नहीं ।

मुसलिम दंपत्ति अगर परिवार सीमित रखते हैं तो यह केवल इसलिये संभव होगा
कि ""दंपत्ति पढ़ा लिखा और जॉब में स्त्री होगी और दंपत्ति में शौहर को
बीबी से अनन्य प्रेम होगा ।
क्योंकि अगर बीबी की रोग बीमारी कमी से बच्चे नहीं हों तो दूसरी तीसरी
चौथी शादी का पूरा पूरा हक़ मजहब ने दिया है ही और ""पर्सनल लॉ के नाम पर
भारतीय क़ानून भी ""एक शादी "वाली शर्त नागरिकों पर समान रूप से लगाने
में असफल रहा है


आप कहोगे ये सब भयंकर ""पिछङा पन है षडयंत्र है,,


नहीं है

क्योंकि आम मुसलिम अब या तब कहीं बहुत कम इस गहराई तक सोचने की मुहलत
पाता है कि जीवन
''मजहब "के भी अलावा कुछ है ।

एक बार इसलाम में घुसने के बाद हर दिन हर पल हर कार्य में उसको ""वे
संस्थायें घेर कर रटाती समझाती और अभ्यास कराती रहती है कि मजहब हर चीज
से बङा है और हर हाल में तुम्हारा ही मजहब सर्वश्रेष्ठ है ।


पादरी लगातार विजिट पर जाते है ईसाई परिवारों में ।
ज़मातें लगातार विजिट पर जातीं है मुसलिम परिवारों में ।


किंतु आपके हिंदू धर्म के पंडित जी साल में राखी बाँधने भी बमुश्किल कहीं
कहीं ही जाते है केवल वहाँ जहाँ ""मोटी दक्षिणा मिलनी हो ""


मुफ्त में पूजा पद्धति व्यायाम प्राणायाम आऱती वंदना त्रिसंध्या जप तप
संयम यम नियम कौन सिखाता है??

अभी आप किसी बच्चे को मौलवी के पास भेजो "नमाज़ सीखने वह हफ्ते भर में
सीख जायेगा "उत्साह से सिखाया जायेगा ।


पादरी के पास भेजो वह प्रेयर और सजदा सिखा देगा "किताबें मुफ्त दे देगा ।

अगर ईसाई बनता है कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति तो ""मदद पक्की ""


क्या "हिंदू धर्म की तमाम धनवान संस्थाय़ें मंदिर ""मदद ""आधारित प्रचार
करते है आदिवासी वनवासी क्षेत्रों में??


क्या जितने हिंदू हैं उतनों को ही हिंदू बने रहने और पूजा पाठ समझ से
एकजुट रहकर मदद की संस्थायें बनाने की मुहिम चलायी जाती है??


दुनियाँ भर की ठेकेदारी लेने वाले "हिंदू नामधारी परिषद और संगठन के
कितने हिंदू पंजीकृत सदस्य हैं? और क्या वह "चर्च की तरह या मदरसे की
तरह "फतवा "
दे तो "हिंदू मानेगे??

©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
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Bijnor
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