सुधा राजे का लेख - "कितने पिशाच??"

स्त्री और समाज।
लेख ::सुधा राजे
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चार साल की एक बच्ची 'गाजियाबाद के निर्माणाधीन मकान के तहखाने में चार
हिंस्र नरपशुओं द्वारा सामूहिक बलात्कार के बाद गुप्तांग में प्लास्टिक
की बोतल ठूँस कर मरने छोङ दी जाती है, '
एक बच्ची स्कूल के बाथरूम में रेप करके छोङ दी जाती है,गोवा
एक बच्ची को स्कूल बस ड्राईवर बस में रेप करके फेंक देता है,मुंबई
एक बच्ची गैंग रेप के बाद झाङियों में बिजनौर,
एक बच्ची सगे नाना द्वारा बलात्कार करके मार डाली जाती है, भोपाल,
एक बच्ची माता पिता बूढ़े शेख को बेच देते हैं निक़ाह के नाम पर वह खुद
को बलात्कार से बचाने के लिये कमरे में बंद कर लेती है 'यूएई,
एक बच्ची की बहिन गैंग रेप से तंग आकर मर जाती है और छोटी लङकी स्कूल से
घर जाने के नाम पर थरथराकर रोने लगती है क्योंकि चाचा भाई पिता और उनके
दोस्त उसको रेप करते है!!!!!!!!!!!
""""""""किसी भी अखबार का स्थानीय पृष्ठ ऐसी ही लोमहर्षक खूरेंज कहानियों
ने रँगा पुता मिलता है ।फिर भी रह जाती है उन लाखों अभागिनों की कहानियाँ
जिनको खिलाने घुमाने पालने पोसने वाले हाथ चाचा बाबा नाना मामा ताऊ फूफा
मौसा कजिन और तो और बङे भाई तक बचपन में ही हवस का शिकार बना डालते
हैं!!!!
ये कहानियाँ कभी बाहर नहीं निकलतीं दम घोंटने वाली हालत हो चुकी है समाज की ।
संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देने वालों को ये बातें अच्छी नहीं लगतीं
उठानी, किंतु इन को चुप रह कर टाला नहीं जा सकता ।
क्यों, क्यों, क्यों आखिर क्यों, बच्चियों में वासना और यौन संतुष्टि
खोजने लगे है 'हिंस्र नरपशु????
केवल एक ग्रास एक निवाला हवस का पूरा करने का यौनआहार भर रह जाती है किसी
के जिगर प्राण आत्मा का टुकङा लङकी?
केवल एक बार की यौन भूख को मिटाने का सेक्स टॉय????

कैसी मानसिकता से गुजर रहे लोग होते हैं वे जिनको मासूम अबोध नन्ही बच्ची
पर प्यार दुलार नहीं आता वरन, उसके जिस्म में एक मात्र अंग एक "मादा
"दिखती है सारा शरीर नजर से गायब रहकर वे उसको, भोग कर मार डालते
हैं!!!!!!

ऐसा तो पशु भी नहीं करते? ऋतुकाल और यौवन के बिना किसी मादा को पशु भी
नहीं लुभाते!!

क्या है वह "कमजोर कङी जो एक पिता और पिता तुल्य शिक्षक संरक्षक परिजन के
दिल दिमाग पर से "नैतिकता "का सारा खोल तोङ डालती है । उसके संस्कार उसका
नाता मानवता रिश्ता अपराध बोध कानूनी सजा सामाजिक बदनामी पाप और ईश्वरीय
दंड तक का भय उसको नहीं रोक पाता?????

मतलब "वासना "सिर चढ़कर पागल कर रही है ऐसे लोगों को और हम उम्र युवा
स्त्री पर हाथ डालने से अधिक कहीं आसान लक्ष्य हो रही है मासूम अबोध
बच्चियाँ??

जो न तो गंदे स्पर्श का अर्थ समझ पाती हैं और न ही टॉफी चॉकलेट खिलौना
प्रसाद दुलार आशीर्वाद को देने वाले के पीछे छिपी भयानक वासना को, ।

ये किसी समाज के नैतिक खात्मे का लक्षण है जब बच्चे बच्चे न रहकर लिंग
भेद के आधार पर नर या मादा कहकर अलग कर दिये जायें ।

कोई समझे उस भयानक यातनादायी सोच को जब एक माँ बच्ची को जन्म देने के
बाद, हर समय ये खयाल रखने लगे कि कहीं पिता उसे एकांत में गोद न उठा सके?
कपङे न बदलवा सके,? अब इस सबको सोचने से कैसे रोका जा सकता है?

लोग स्त्रियों के पहनावे और बाहर निकलने को या जींस स्कर्ट बिकनी मोबाईल
डीप गले और स्लीव लेस को खूब कोसते हैं, मान भी लें तो भी,

जीरो वर्ष से पंद्रह साल तक की लङकी को किस अपराध में ये सब सहना पङा?
उसमें न तो कोई यौवन न कोई यौन व्यवहार न कोई पुरुषों को लुभाने दिखाने
लायक संचेतना?

जाहिर है
ये सब बहाने है । इन घिनौने अपराधों की जङें छिपी है क्रूर मानसिकता में
जहाँ अमूमन तीसरे चौथे हर पुरुष को लङका होने भर से वरीयता प्राप्त हो
जाती है और उस लङका होने भर से नैतिकता उसकी जिम्मेदारी नहीं रह जाती
।वह बचपन में ही भाभियों और सहपाठी लङकियों को मजाक मजाक में छेङने को
स्वतंत्र है ।
और किशोर होने तक उसको जता बता दिया जाता है कि लङकियाँ केवल लङकों के
यौन सुख और घरेलू सेवा के लिये ही बनी है ।
युवा होते होते उसको यौन संबंध बनाने की पूरी आजादी मिल जाती है । वह अगर
लङकी छेङता पाया जाये, या किसी स्त्री से सेक्स कर ले यह खबर घर वालों को
पता चल जाये तो कहीं तूफान नहीं आ जाता, न कोई "नाक कटती है " न पगङी
उछलती है न चादर मैली होती है ।न सतीत्व खंडित होता है ।
जबकि लङकी के केवल प्रेम या प्रेम तो दूर लङकों से बोलचाल दोस्ती होने पर
तक आज भी अधिकांश की नाक कट जाती है।

हद से गुजर चुकी है स्त्रियों पर हिंसा

लेख का संबंध किसी एक व्यक्ति एक
स्थान या घटना से नहीं बल्कि सदियों पुरानी सङी गली सोच
से है । और सोच तो बदलनी ही पङेगी ।
अब तक अगर सोच नहीं बदली तो वजह वे उदासीन लोग भी हैं जो सोचते हैं उँह
मुझे क्या!! लङकी जिसकी वो जाने किंतु खुद पर बीते तो
बिलबिलाते हैं ।

मुजफ्फर नगर दंगा हिंदू मुसलिम
नहीं था
एक ग्रुप के
आवारा लङकों का लङकियों से
बदत्तमीजी करना था जिसे कोई हक
नहीं था पढ़ने जाती लङकी को छेङने
का ।
दामिनी का और मुंबई की पत्रकार
बैंगलोर की कानून की छात्रा का रेप
कोई एक
अचानक घटा अपराध नहीं था ।
ऐसे कामपिपासु बहुत से हैं छिपे जगह
ब जगह जो नजर के सामने हैं
तो पहचाने
नहीं जाते ।
किंतु
ये क्यों ऐसा करते हैं??
वजह है मर्दवादी सोच
ये सदियों से चला आ रहा रिवाज
कि हर जगह औरत को खुद
को बचाना है और कोई
भी कहीं भी उसको मौका लगा तो छू
देगा भँभोङ देगा छेङ देगा ।
बलात्कार अचानक नहीं होते ।
एक
विचारधारा से ग्रस्त रहता है मनुष्य
जो समाज में रह रही है सदियों से कि
पुरुष
को किसी की लङकी को सीटी बजाने
आँख मिचकाने और इशारे करने गाने
पवाङे गाने और छू देने और
पीछा करने का हक है ।
यही
विचार जो भरा रहता है समाज के हर
अपराध के लिये ज़िम्मेदार है ।
आदमी रात को सङक पर ड्राईव कर
सकता है औरत नहीं
आदमी एडल्ट मूवी देखने
जा सकता है बालिग लङकी नहीं ।
आदमी घर से बाहर तक
किसी भी लङकी को अपने इरादे
जता सकता है लङकी नहीं ।
आदमी शराब पी सकता है हुल्लङ
पार्टी नाच गाना कुछ भी कर
सकता है औरत नहीं ।
अब
जबकि औरतें बाहर आ जा रही है और
रात दिन हर जगह मौजूद है तो
इसी
मर्दवादी मानसिकता से ग्रस्त लोग
केवल औरतों को रोकने की बात करते
हैं ।
जाने दो न????
चलने दो पार्क सिनेमा थियेटर
ऑफिस दफतर रेलवे स्टेशन बस
स्टॉप ।
कुछ साल पहले आनंद विहार बस
स्टॉप पर एक परिवार के साथ
रूकी स्त्री का
रेप हुआ था क्योंकि लोंग रूट की बस
चूक जाने से बीच यात्रा में रुकने की
नौबत आ गयी ।ट्रेन में हजारो केस
हो चुके ।
ये सब क्राईम नहीं हैं
एक
सोच है एक विचार है
एक मानसिकता है जो
समाज की ठेठ कट्टरवादी मर्दवाद
से ग्रस्त है जिसमें औरत मतलब
एक समय का भोजन
बस
और उसके साथ नाता रिश्ता कुछ
नहीं ।
मुसीबत हैं अच्छे पुरुष
वे
जो स्त्री के रक्षक और पहरेदार
और समर्थक हैं ।
ये अच्छे पुरुष भी इसी समाज का अंग
हैं और इनकी वजह से ही कन्फ्यूजन
फैलता है ।
अगर सब के सब खराब हों औरते
खत्म हो जायें ।
और दुनियाँ का झंझट ही निबट जाये

और
गजब ये कि इन
अच्छों को अच्छी पवित्र औरते
चाहियें और वे जूझ रहे हैं
खराब पुरुषों से कि बचाना है समाज
परिवार और जोङे ।प्रेम
की अवधारणा और
प्रकृति ।
किंतु
बहुतायत पुरुष के दिमाग
का भारतीयकरण हो चुका ।
उदाहरण कि मध्य प्रदेश के एक
प्लांटेशन पार्क में स्वीडन
का साईक्लिस्ट
जोङा आकर टेंट लगाकर प्रकृति के
मनोरम जगह पर रहने की सोचता है ।
और प्रौढ़ स्त्री का गैंग रेप
हो जाता है । सब वनवासी अनपढ़
कंजर शराब
उतारने वाले लोग!!!!!
जरा सोचो
कि क्या भारतीय दंपत्ति पर्यटन पर
जाते समय बांगलादेश के किसी जंगल
पार्क
में टेंट लगाकर रूकते????????
नहीं रुकते!!!!
कभी नहीं!!!!
वजह?
क्योंकि भारतीय स्त्री को पता है
कि किसी अकेली जगह एक पुरुष के
सहारे
नहीं रुका जा सकता । और जान माल
से अधिक स्त्री के शरीर पर
आक्रमण की ही
आशंका संभावना डर ज्यादा है ।
लेकिन
स्वीडन में ऐसा डर नहीं था
लोग
नदी पहाङ जंगल कहीं भी पिकनिक
मनाने रूक जाते हैं ।
ये सबकी सोच नहीं ।
लेकिन सब चीखने लगे
दंपत्ति की गलती है कि सुनसान
जगह जंगल में क्यों टेंट लगाया???
वे लोग जंगल ही तो देखने आये
थे????
जब एक
पर्यटक से ऐसा बरताव होता है
तो क्या उम्मीद है
कि किसी वनवासी या गरीब
मामूली लङकी के साथ
किसी भी अकेली जगह क्या बरताव
होता है ।
राजधानी हो या कश्मीर
भारतीय
स्त्री कहीं भी अकेली सुरक्षित
नहीं और एक दो पुरुष के साथ भी
सुरक्षित नहीं परिचित देखकर ढाढस
बँधता है किंतु डर बराबर रहता है ।
क्या किसी सज्जन पुरुष को यह
अच्छा लगता है कि एक परिचित
लङकी पूछे कि
""कहीं आप अकेला पाकर रेप
तो नहीं करोगे ""
नहीं लगेगा अच्छा लेकिन एक
अघोषित शक हर स्त्री लगभग सब
पुरुषो पर करने
को विवश है ।
आज माता अपनी बेटी को परिजनों के
बीच अकेली नहीं छोङती जब
कि बुआ दादी
ताई चाची घर पर ना हो ।
और यही हाल पिता का है वह सगे
भाई जीजा साढू किसी के घर
मेहमानी तक को
लङकियाँ भेजने से हिचकता है ।
बहुत
परीक्षा मन ही मन लङकी माँ बाप
और अभिभावक करते है कि वहाँ कौन
कौन है ।
और कितनी लङकियाँ है ।
लोग कैसे है
लङकी को खतरा तो नहीं तब
लङकी को होस्टल मेहमानी वगैरह
भेज पाते है ।
ये
औक़ात है बहुतायत पुरुष समाज की ।
वजह वही विचारधारा ।
विदेशों में लङकियाँ बीच पर लेटी है
तैर रही है और क्लबों में नाच रही है
और कार ड्राईव करके रात
को यात्रा कर रही है ।
चूम कर गले भी लग जाती है
परिचितोॆ के
लेकिन
बलात्कार का डर नहीं लगता
घुटनो तक की स्कर्ट और बिना बाँह
की मिडी पहन रखी है मगर
बलात्कार का डर
नहीं लगता ।
शराब पीकर गाती नाचती है लेकिन
बलात्कार का डर नहीं लगता ।
और
अगर वहाँ कोई किसी स्त्री को कुछ
प्रपोज करना चाहता है तो ये
स्त्री की
चॉयस है कि वह स्वीकारे
या अस्वीकार कर दे ।
भारतीय सहन ही नही करते!!!!
अस्वीकृति का प्रतिशोध तेजाब और
रेप से लेते हैं!!!!
और तमाम इलज़ाम अंततः औरत के
सिर पर
कि नैतिकता का ठेका तो औरत
का है?
मर्दवादी लोग
समझे न समझे मगर सामंजस्य
वादी समझने लगे है और अब ये
मिटाना चाहते हैं ।
किंतु अफसोस कि आज भी बहुत
सारी स्त्रियाँ मर्दवादी सोच बदलने
की बजाय
खुद को ""नारी वादी "नही हूँ ये ।
साबित
करने के चक्कर में अंधाधुन्ध
ऐसी विचारधारा हटाने की बजाय
कुरेदकर
पहाङ काटना चाहती है औरतों पर
ही प्रतिबंध की पक्षधर है ।
जबकि कटु सत्य है ये कि वे खुद
कभी न कभी दहशत में रही है ।
स्त्री की समस्याओं का अंत है हर
जगह हर समय ढेर सारी स्त्रियाँ जैसे
रेलवे स्टेशन बस स्ट़ॉप होटल स्कूल
कॉलेज अस्पताल सङके दुकाने
गलियाँ
दफतर संसद राजभवन और घर ।।।।
विचार पर प्रहार करो घटना पर
हमारा कोई प्रहार बदलाव
नहीं ला सकता ।
सोच बदलो रिवाज़ बदलो ।और जीने
दो स्त्री को जीने दो ।
कि सोचो एक तरफ हिंस्रऔर
दूसरी तरफ एक अजनबी पुरुष
स्त्री किससे ज्यादा डरे?
©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
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Mobile- 9358874117

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