बच्चे 9

बच्चे9-
प्रतिभा किसी की बपौती नहीं ।और हर प्रतिभाशाली बच्चे को सही गाईड मिलता
नहीं। बङा दुर्भाग्य है भारतीय बच्चों का जहाँ मौलिकता सिसकती है और नकल
सिर चढ़कर बोलती है । कई उदाहरण आप सबने भी देखे होंगे और हमने भी। एक
बच्ची कक्षा तीन की बालसभा में सामंती संस्कार लौहआवरण की नीति में पली
बढ़ी । केवल स्कूल ही मुक्तिधाम और वहाँ सब बच्चे तरह तरह के फिल्मी गीत
चुटकुले सुनाते वह बच्ची केवल सात साल की कुछ सुनाना चाहती है किंतु
फिल्म या टीवी ग़ुनाह जहाँ होते हों वहाँ आम आदमी के जीवन के कथा
चुटकुले कहाँ संभव हो सकते है । बच्ची रोज़ एक मासपरायण दो बार में पूरा
करती है सुबह शाम गीता पढ़ती है नानी के लिये और कठोर दिनचर्या का पालन
करती है जहाँ खेलने खाने पहनने तक के प्रोटोकोल हैं । बच्ची रोज कल्पित
कहानी और कविता सुनाने लगती हैं । क्योंकि उसको तालियाँ और शाबासी सुहानी
लगती जो दूसरों को मिलती है । बच्ची चित्र बनाती है । और लोकसंगीत की
धुनो पर गीत गाती है मौलिक । किंतु साहस नहीं होता कि कहे मैम ये गीत
कहानी हम अभी कहते कहते ही गढ़ते जा रहे हैं । मैम उस गीत को सबको साथ
लेकर मंचित करने को कहतीं है और कभी नहीं सामने आती प्रतिभा । एक दिन
गीतों की डायरी किसी बङे के हाथ लग जाती है और बङे को लगता है बच्ची की
रुचि भटक रही है । डायरी आग में डाल देती है डरी हुयी बच्ची और पेंटिग
भी। प्रतिभा को अवसर चाहिये । प्रेरणा चाहिये और चाहिये आकलन । ये कोई
विज्ञान का प्रयोग हो सकता है । थॉमस अल्वा एडीसन की माता का धीरज सब की
माता या पिता के पास नहीं होता कि स्कूल से शिक़ायत आये तो भी घर कहकर
पढ़ा ले । अक्सर बच्चों की मौलिकता उनके परिवार के उसूलों के दमन नियमन
और प्रोटोकोल में पिसकर रह जाती है। बच्ची देखती है उससे कई साल बङी
सीनियर एकदम बेकार चित्र बनाती है और केवल तुकबंदियाँ लिखती है किंतु
उसकी माँ पिता जी सब सहेजकर ही नहीं रख रहे अपितु बुक के रूप में छपवा कर
बाँट रहे हैं और वहाँ जहाँ विद्रूप चित्रण है वहाँ पूरी विद्वत्मंडली से
सलाह ले कर सुधार कर रहे हैं । बच्ची भयवश छद्मनाम से लिखकर किसी अज्ञात
की रचना कह कह कर अपने ही गीत सुनाकर सबकी तारीफ उस अज्ञात के लिये पाकर
ही प्रसन्न है ।
से अकसर प्रतिभा की मौत की वज़ह है । टीचर को लगता है वह लिख सकती है और
शोषण जारी हो जाता है । टीचर के प्रिय पात्र को भाषण लिखा दो
कोरियोग्राफी कर दो और स्किट लिख दो ।
एक बच्चा गाता है बेहद सुरीला किंतु परिजन उसे मिरासी भांड गवैया ओय
फिल्मी चैनल कह कर हताश कर डालते हैं और वह कभी गुनगुनाना तक छोङ देता
है।
नृत्य गीत चित्रकला कविता लेखन स्टोरी टेलिंग और ऐसे ही तमाम टेलेंट
चूँकि कमाई की गारंटी नहीं देते इसलिये अकसर भौतिकतावादी परिवारों और
बहुत कानून क़ायदे नियम पर चलने वाले परिवारों में ऐसे बच्चे अभागे ही
बनकर रह जाते हैं । बहिष्कृत और तनहा अलग थलग और दुखी दुखी। क्योंकि उनको
अभिव्यक्ति नहीं मिलती। नाप तौल कर बोलना नाप तौल कर चलना और वह भी होश
आने से पहले से ही। एक प्रताङना है बिना कुछ दिखाई देता अत्याचार किये भी
एक अन्याय है। सब के सब एक जैसे कैसे हो सकते हैं । भेदभाव स्कूल और घर
हर जगह तोङ डालता है निराशा कुंठा बग़ावत पैदा करती है और बच्चे एक सीमा
के बाद बाग़ी और उद्दंड या फिर हताश और सुस्त मृत हो जाते हैं । जोश
उत्साह और उल्लास नहीं रहेगा तो बचपन कैसे रहेगा। बङी क्रूरता है एक
प्रतिभाशाली बच्चे को उसकी प्राण से प्रिय चीज उसके हुनर टेलेंट हॉबी या
शोध से ज़ुदा करके वही सब करने को विवश करना रिश्तों की दुहाई पर जो सब
आम तौर पर करते हैं । वह ख़ास बच्चा काश किसी पारखी के हाथ पङ जाता तो
देश समाज विश्व को एक नायाब रत्न मिल जाता । सही विलक्षण बच्चे तो विश्व
ब्रह्म के मंदिर की ईंटें हैं । मगर हर ईंट कहाँ मंदिर तक लग पाती है ।
कुछ तोङकर पैरों के नीचे समतल राह पर बिछा दीं जाती हैं । टीचर पिता माता
और बङे बुजुर्ग जब पहचान कर भी क्रूरता से उस हुनर को मंच तक जाने
लेबोरेटरी तक जाने और एकांत सेवन से तक रोक देते हैं तो एक हत्या हो जाती
है उस बोधिवृक्ष की जिसके नीचे न जाने कितने विकल पनाह पा सकते थे। अगर
प्रतिभाशाली बच्चा लङकी है और परंपरावादी परिवार में जनमी है तब तो हर
तरह से बदनसीब ही कही जा सकती है। लङकियाँ आज भी औसतन अधिकांश परिवारों
में भाई और चाचा से कम समझी जाती हैं । जहाँ भाई को खेलने और बाहर
मित्रों के साथ समय बिताने पार्टी दावत और सभा में जाने के पूरे अवसर
मिलते हैं वहीं लङकी को स्कूल से घर के बीच ही तब तक बंद रहना होता है जब
तक जॉब या शादी न हो जाये । जॉब बहुत कम परिवारों में लङकी के लिये प्रथम
प्रायोरिटी रहती है। प्रथम बात होती है विवाह । लङकी की कुंडली मिल गयी
लङका कम दहेज पर पट गया और क्या चाहिये? पीएचडी अभी पूरी होने को है अभी
कंपटीशन की तैयारी कर रही है लङकी अरे बस बहुत पढ़ लिया जाओ अपने घर
जिम्मेदारी हटी और करना क्या है आखिर तो लङकी के पति को ही निर्णय लेना
है वह चाहे तो पढ़ा लेगा न चाहे तो जमी जमाई जॉब बंद करा देगा ।
लङकियाँ लगभग इसी नज़रिये से जिस देश में पाली जातीं हों वहाँ लङकियों के
टेलेंट डांस गायन कविता कहानी संगीत पेंटिग और फोटोग्राफी सिवा चोंचले के
कुछ गंभीर नहीं माने जाते । ये अलग बात है कि कब्र में दफनाने के बाद भी
मुरदा कब्र फाङकर निकल पङे और अपने टेलेंट को बाढ़ के पानी की तरह रास्ता
तोङकर बहाता जाये । किंतु हर बार हर प्रतिभा कब्र नबीं तोङ पाती ।
लङकियाँ जहाँ मातृत्व और परिवार के चक्रव्यूह उपेक्षा और कर्त्तव्य की
चक्की में पिस जाती है लङके वहीं कमाई दोस्ती दुश्मनी परिवार के बोझ के
तले केवल बैल की तरह गाङी खींचने में जाया हो जाते हैं।
हिंदी भाषी बच्चे भले ही वे समान रूप से कई और भाषायें समझते हों इस तरह
के दमन का सबसे ज्यादा शिकार होते हैं । क्योंकि आज भी साहबों की गिनती
केवल अंग्रेजी भाषी बच्चों से ही शुरू और खत्म होती है।
भारत की शिक्षा पद्धति भी भयंकर शोषक है प्रतिभा की जहाँ नवीनता को गुनाह
और रट्टामार नकलची को पूरे अंक मिलते हैं । जहाँ टीचर का ही लिखा लिखकर
आने पर नंबर मिलते हैं जबकि चाहे टीचर औसत बुद्धि का हो बच्चा तर्कशक्ति
संपन्न जीनियस । किंतु हाँ बच्चे के पिता का पद और हैसियत ऊँची है तो हो
सकता टीचर अडंगा न डाले परंतु वह जहर नहीं दिया मगर समय पर दवा भी नहीं
दी का गुनाह कर सकता है । ये अभागी प्रतिभायें उन सितारों से कहीं अधिक
चमकदार टेलेंटेड होतीं जो पिता माता और गुरु गॉडफादर मदर मिल जाने से
माँज माँज कर चमकाये गये और दूसरे ऊँचे लोगो की बाँह पर चढ़कर जा बैठे ।
इन अभागी प्रतिभाओं की चिता और कब्र पर भी कदाचित ही फूल चढ़ें । न जाने
कितने थ्यागराजा की धुनें चुराकर कितने पद्माकर के नकलची दरबार के नवरतन
हो गये ।
बचपन को कैसे सँवारा जाता है आज तक भी एक औसत भारतीय विशेषकर हिंदीभाषी
भारतीय कतई नहीं जानते । न बच्चो के खेल का समय घोषित है न हॉबी के अवसर
न ही हुनर को स्कूल या घर या नगर से प्रदर्शन प्रेरणा। अगर ये बच्चे तब
भी कहीं दिया जुगनू शमाँ बन सके तो ये उनके ही भीतर की आग का करिश्मा ही
समझा जाये और जिजीविषा ।
कैसा अन्याय कि काँच माँजकर शिखर पर और हीरे दफन कर दिये जाते हैं ।
याद रखें प्रतिभाशाली बच्चा आपकी अपनी प्रॉपर्टी नहीं वह कुदरत के खास
मिशन प्लान के तहत धरती पर आया नक्षत्र है अगर आपने पहचान ही लिया तो उसे
विवश दमित ना करे । समय बाँट दें ताकि अगर वह आपके दिये दायित्व
अपेक्षाकृत कम समय और सही ढंग से कर दिखाये तो बचा समय उसका । समय ही
नहीं प्रेरणा भी दें ..
©®सुधा राजे
क्रमशः जारी '''''''''

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