अकविता :- कब त्यागा था आत्मबल!!!!!!!

बाग़ी मन बीहङ बीहङ बीहङ फरार
ही रहता किंतु भावुक हृदय के बीच दबे कुछ
नाते।
आ गये समझाने कि आओ और जियो
समाज की मुख्यधारा में ।
बस कुछ ही समय रहना होगा सुधारगृह
की कारा में ।
शर्त रखी थी अपने आत्मसमर्पण की
बीहङ के दस्यु विचार बाग़ी मन सरदार
ने ।
एक मुट्ठी अपनी ज़मीन और
दोनों बाँहों भर अपना आसमान ।
रख दिये अस्त्र शस्त्र और बारूद के जखीरे

पहन लीं सुधार गृह की जंजीरें ।
किंतु यह केवल छल था और था धोखा।
भावुक मन के
नातों का कपटभरा लेखा जोखा ।
तरक्की मिली उनको जिनके नाम हुआ
खूँख्वार बागी को समाज के बीच
ला दिखाने का पदक और तमाशा ।
नाता जो दिखता रहा हितैषी वही था छल
से अपना बल और धन बचाता बढ़ाता।

धरती रही

रहा आकाश
अपना
मुक्ति और जीवन की मुख्यधारा
दोनों ही रहे सपना ।
कभी समाज ने दस्यु को नहीं अपनाया
कभी दस्यु ने वह सब छल कपट
नहीं भुलाया।
किंतु भ्रम में थे नाते जो थे प्रसन्न और
विजयोन्माद में गाते मुसकाते ।
कि
हथियार रख देने से
होता है क्या
बारूद बनाने वाले हाथ
कभी
भी बीहङ को भूल नहीं जाते
न ही भूल पाते है धोखा कपट और छल
रखा तो हथियारों का जखीरा गया था रे
कपटी!!!
कब रखा था आत्मबल!!!!!!!
बहुत पा ली प्रसंशा और ले लिये उत्कोच
बीहङ तो आज भी दिल में बसता है अब तू
अपनी सोच!!!!
©®सुधा राजे
511/2, Peetambara Aasheesh
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यह रचना पूर्णतः मौलिक है।

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