लेख -"प्रेम प्रपंच।"

आप अपनी सोच किसी पर थोप नहीं सकते।
आप किसी को आदेश देने का हक़ जब तक नहीं रखते जब तक कि आप उसके सुख दुख
आजीविका के जिम्मेदार नहीं ।
देखा ये जा रहा है कि लोग जो खुद को जरा सा भी ताकतवर समझते है किसी भी
मायने में ओहदा पैसा बुद्धि शिक्षा या दैहिक बल वगैरह वगैरह वगैरह में
वे जैसे खुद को अपने से कमजोर सब लोगों पर जबरन सलाह और आदेश थोपने लगते
है । यह करो यह ना करो ।यह सही है क्यों मैं ज्यादा जानता हूँ मैंने
दुनियाँ देखी मेरे पास पावर है अनुभव है वगैरह वगैरह ।
हो
होगा
तो???????
आप दूसरे के निजी जीवन के ठेकेदार कैसे हो गये ??
कैसे आप दूसरे की सोच बदलने को तमाम फतवे संहितायें गढ़ने वाले हो गये???
किसी का वोट किसे देना है ये उसकी मरज़ी है ।
किसी को किस तरह के कपङे पहनना है ये उसकी मरजी है ।
किसी को क्या खाना है और किसके साथ रहना है ये भी उसकी मरजी है ।
कौन किस धर्म को माने या ना माने ये भी उसकी मरजी है ।

आप को भारतीय प्राचीन परंपराये प्रिय हैं आप रहिये आराम से घर में पूरा
आर्यावत बनाकर
आपको वैश्विक ग्लोबलाईजेशन पसंद है तो आप भी अपने घर को होनोलुलू शंघाई
लंदन शिकागो लेनिनग्राड बनाकर रहिये कौन रोकता है ।
रहा
प्रेम???
आपका प्रेम सेक्स तक ही सीमित है तो जो आपको पसंद करता है जाईये और ऐश कीजिये ।
और अगर आपका प्रेम मानसिक है देहिक नहीं तो आप अपने प्रिय के साथ अपने
दुख सुख बतियाईये ।
किंतु
ये कहने का हक़ किसी को नहीं कि प्रेम केवल भौतिक होता है पदार्थ होता है
मेटर है और सेक्स के परिणाम में बदलना ही मंजिल है बाकी सब बकवास है!!!!
उसी तरह जैसे वैचारिक आध्यात्मिक मानसिक प्रेमवादियों को यह कहने का हक
नहीं है कि दैहिक संबंध गुनाह है पाप है और जो प्रेम की मंजिल आखिर दैहिक
संबंध बना लेना मानते है वे सब पापी अज्ञानी और मूर्ख हैं ।
क्योंकि
यह संसार विविधता से ही सुन्दर है ।
कहीं विचार ही परम है कहीं पदार्थ ।
कुछ लोग किसी भी कीमत पर अपने प्रेमी को पा लेना चाहते है और घर से भागना
आत्महत्या करना हत्या करना और प्यार न मिलने पर तेज़ाब फेंक देना या
बलात्कार ब्लैकमेल करना उनको सही लगता है क्योंकि वे मानते है प्यार और
युद्ध में सब जायज है ।
वहीं कुछ लोग अपने प्रेम को परिवार समाज और अपने कर्त्तव्यों पर कुरबान
कर देते हैं कभी उजागर तक नहीं करते कि कभी किसी को चाहा और प्रेम किया
और बिछुङ गये तो कभी बैर द्वेष इलजाम तक नहीं रखा ।
कर्म और विचार
पदार्थ और चेतना
ये दोनों ही तत्व जरूरी है ।

जैसे एक वेश्यागामी के मन में कदाचित ही कभी उस वेश्या के प्रति प्रेम
उमङता हो जिसको वह बिस्तर पर भोगता है और दैहिक सुख पाता है ।

जबकि एक ऐसा व्यक्ति जिसने कभी उस स्त्री को स्पर्श तक नहीं किया हो वह
पूरा जीवन उस स्त्री से प्रेम करता रह सकता है और रह सकता है उसके लिये
शुभ कामनायें करता मदद करता भी जबकि कभी वह भूल से भी नहीं चाहता कि वह
स्त्री उसके करीब भी आये ।
पदार्थ यहाँ गौण है
और चेतना प्रधान ।

वहीं ऐसे भी व्यक्ति है जो पत्नी के साथ रहते हैं पत्नी के प्रति पूरे
कर्त्तव्य निभाते हैं उसके लिये भोजन वस्त्र आहार दवा और घर आदि का पूरा
पूरा इंतिज़ाम करते हैं पत्नी के साथ दैहिक संबंध भी रखते है संतान भी
होती है और सामाजिक तौर पर एक आदर्श दंपत्ति भी ।
किंतु
प्रेम नहीं ।
ये प्रेम अभाव तब भी रहता है जबकि दोनों साथ है और प्रायः प्रसन्न और सुखी ।
दूसरी ओर एक ऐसा जोङा है जहाँ पति या पत्नी में से कोई किसी बीमारी
दुर्घटना या प्राकृतिक विकलांगता या हादसे का शिकार हो गया ।
किंतु दूसरा साथी न तो उसे छेङकर चला गया ना ही कभी प्रताङना या उपेक्षा की
बल्कि प्रेम और बढ़ता रहा क्योंकि एक की अशक्ता दूसरे ने थाम ली और साथ
रहते रहते प्रेम दैहिक कदापि नहीं रहा कभी संबंधों पर प्रेम पर ये शिकवा
भारी नहीं पङा कि दैहिक विकलांगतावश दूसरा साथी अपने प्राकृतिक संबंध
नहीं निभा पा रहा है या निभा पा रही है । कुछ मनोरोगी हो जाते हैं किसी
हादसे में कुछ पागल तक किसी की याददाश्त चली जाती है किसी को फालिज मार
जाता है कोई आँख हाथ पाँव खो देता है कोई संपत्ति नौकरी और मान सम्मान
किंतु प्रेम है प्रेम बना रहता है प्रेम बढ़ जाता है और दुख अपने साथी के
दुख का हो जाता है कि अपने साथी को विकलांगता निर्धनता कुरूपता या मानसिक
विचलन का शिकार होकर दयनीय होने का अहसास तक नहीं होने दिया जाता और
निभता है रिश्ता ये प्रेम है ।
इस प्रेम को व्यक्त करने के लिये जितने भी पर्व मनाये जायें कम हैं
करवाचौथ होली वसंतोत्सव अक्षय तृतीया विवाह की सालगिरह और वेलेन्टाईन डे
कम हैं ।
किंतु
जिस को जो भाये वही सुहाये ।
एक
व्यक्ति जो अकसर अपना बेड पार्टनर बदलता रहता है उसको लगता है बस यही प्रेम है ।
दूसरा जो एक के नाम पर सारा जीवन वैराग में काट देता है उसके लिये वही प्रेम है
तीसरा जो साथ साथ है और अपने बे वफ़ा साथी के प्रति भी पूरी तरह वफ़ादार
है वह सोचता है
यही प्रेम है ।
चौथा जो अपने साथी की बेबसी बरबादी को चुपचाप ओढ़कर बाँटलेता है और
मनोदशा के अनुरूप अपना तनहा सफर भी साथ निभाते हुये जारी रखता है उसे
लगता है वही प्रेम है ।
पाँचवे को लगता है दोनों साथ है और बेडपार्टनर भी है होमपार्टनर भी है तो
वही प्रेम है ।

ये प्रेम
बहुरूपिया है

आप कैसे एक याददाश्त गुम हो चुके फालिज के शिकार साथी के पार्टनर को
उपदेश दे सकते है कि सेक्स ही प्रेम है? क्या वह चल देगा किसी स्वस्थ
सुंदर पराये व्यक्ति के साथ रात बिताने अगर उसको लगता है उसका प्रेम सही
है?
या आप कैसे समझा सकते है उस व्यक्ति को कि प्रेम आध्यात्मिक मानसिक
वैचारिक और चेतना की अवस्था है जब देह मन हृदय बुद्धि भावना सब एकाकार
होकर विस्मृत हो जाये स्व बिसर जाये और प्रिय याद रहे जब समाधिस्थ हो रहे
मन तन विचार चेतना!!!!
"उसने कहा था" एक कहानी पदार्थ से चेतना की तरफ जाती है और "लेडी
चैटर्लीज लवर्स "चेतना से पदार्थ की तरफ बढ़ती है ।
वस्तुत अपनी अपनी सोच है ।
कोई विवश नहीं कर सकता किसी को किसी से प्रेम करने के लिये ।
जिस पश्चिम को दुत्कारा जाता है भारतीय संस्कारों की दुहाई के नाम पर
वहाँ भी पोर्शिया और ब्रूटस के प्रेम जैसे उदाहरण भरे पङे हैं ।
वैसे ही जैसे एक शराबखोर को शराब ही परमानंददायिनी लग सकती है वैसे ही ।
एक सात्विक आहारी को शहद और दूध दही परम रस ।
हो सकता है शराबी सोचता रहे कि ये डरपोक शराब खरीदने पीने की दम नहीं
रखता और शराब को ललचाता होगा डर वश पीता नहीं ।
जबकि शायद ऐसे भी शाकाहारी हैं जिनके घर में मेहमानों के लिये एक से एक
शराब मँगायी जाती हो किंतु उसे खुद शराब से घृणा और बदबू अरूचि और बुरी
तरह परेशानी हो जो नाकाबिले बर्दाश्त हो ।
एक" स्पेस "का अर्थ समझने वाले दंपत्ति एक दूजे को एकान्त और प्रायवेसी
प्रोवाईड कराते हैं जबकि कुछ पजेसिव जोङे रात दिन वाचडॉग की तरह हर पल हर
हरकत पर पीछे पङे रहते है ।
अपना
अपना
सलीका
प्रेम कहीं बाँहों में साथी होने पर भी मन न मिलने का विरह है
तो कहीं दूर सियाचिन और गाँव के बीच जुङे मन के तार का चिरमिलन ।
ये
राग जिसने प्रेम नहीं किया वो भी कभी कभी इतना समझे कि जैसे आटे को रसोईया ।
ये राग कभी कभी प्रेम आकंठ डूबा प्रेमी तक इतना ना समझे जितना दिल का
महारोगी महाधमनी महानाङी

रक्तपरिसंचरण तंत्र को जैसे चिकित्सक की भाषा

मेरठ के फेरीवाले को इजिप्शियन भाषा
©®सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
सुधा राजे
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