व्रत- उपवास की असल अवधारणा।

माँ सा कहतीं थीं कि व्रत उपवास
का अर्थ है अपने हिस्से का भोजन
बचाना ।
और इसीलिये हर शुक्रवार गूँगा फकीर
हर मंगलवार अखाङे के पंडित जी । हर
शनिवार जोशी डकौत और हर
नवरात्रि गाँव जाकर कन्यायें
खिलाना और हर साल
सुहागिनों को कार्तिक भोज
कराना उनका नियम रहा।
आज महसूस होता है कि उपवास
की परंपरा का सही अर्थ ही भूल चुके हैं

भारत में अकाल सूखा ओला और बाढ़
जैसी विपदाओं से जूझने का साधन
रहा उपवास
उपवास सार्थक तभी है जब आप अपने
हिस्से का नाश्ता लंच डिनर और सपर
सब भोजन किसी भूखे गरीब परिवार
को भिजवा दें और प्राकृतिक अवस्था में
उपलब्ध सामग्री ही अतिशय असह्य भूख
होने पर फलाहार स्वरूप लें ।
यदि आपने रोज के दैनिक आहार
को किसी भूखे गरीब को दान
नहीं किया तो उपवास निरर्थक है ।
और दैनिक आहार से अधिक कीमत
या मात्रा का वैकल्पिक फलाहार
ग्रहण कर लिया तो वह ढकोसला है
उपवास नहीं ।
सोचिये कि आपने ने उपवास का व्रत
लिया है या ढकोसले का भ्रम?
दरअसल ये माना गया है
कि परमात्मा ने साँसें और आहार गिनकर
तौलकर प्रत्येक जीव के लिये बख़्शे हैं ।
संयम से नियम से श्वाँस को गहराई से
लेना(पूरक ) और देर तक फेंफङों में रोकने
का अभ्यास बढ़ाना[कुंभक) फिर धीरे
धीरे देर तक छोङना और सारी वायु
निकालना (रेचक) फिर खाली रहना देर
तक फिर धीरे धीरे साँस लेना
ये सब मिलाकर प्राणायाम कहलाता है

और गिनती में कम किंतु गहरी और उत्तम
साँसें लेने को योग कहते है।
ये आयु बढ़ाता है।
ठीक इसी तरह नित्य अपनी कुल भूख से
कुछ कम भोजन लेकर दान करना और उदर
को प्रातः सायं साफ
रखना खाली रखना जल पीना और अन्न
केवल आधा लेना शेष फल सब्जी मूल शाक
लेना और सप्ताह या पखवारे में उपवास
रखना भी मात्रा कम किंतु उत्तम
क्वालिटी का भोजन लेने से आयु
बढ़ाता है चयापचय
क्रिया सही रहती है और गरीब
को अगर हर सक्षम प्रतिसप्ताह एक
दिन का राशन दान करे तो कोई
भूखा ही क्यों मरे ?
यही है शुद्ध भारतीय उपवास
का विज्ञान
©®सुधा राजॆ

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