अकविता:मुक्ति एक सोच ही तो है

एक सोच ही तो है जो ग़ुलाम है ।
वरना तो कभी न हवा क़ैद हुयी है न खुशबू और दूर चिनार चीङ फर और पाईन
देवदार के नीचे कभी न बर्फ कैद हुयी है न आग ।
एक सोच ही तो है जो रखती है दायरों पर दायरों के दायरे बनाकर दीवारों पर दीवारें
वरना दूर कच्चे जामुन आम इमली कैंथ बेल जंगल जलेबी झरबेरी मकोर करील और
चकोतरे के झाङ अब तक वैसे ही मह मह महक रहे हैं नहीं बची तो उनके नीचे अब
नन्हीं नन्ही हथेलियाँ और झोलियाँ ।
एक सोच ही तो होती है बाँध और बंधन वरना
चचाई सनकुआ झिरना और सहस्त्रधारा धुँआधार अब भी चिघ्घाङ रहे है चाँदी की
बूँदों के साथ और काँप जाती है अब भी हलकी सरदी में भी नजदीक खङी कोयलें
तोते श्यामा बुलबुल और कठफोङवे अब भी ठक ठक कुरेदते रहते है काठ बया
बुनती है उलटे दरवाज़ों के नीङ और हुदहुद के सिर अब भी तीखी कलगियाँ है
जलमुरगी तैरकर मछलियाँ खोजती है ।
एक सोच ही तो नाता है
वरना
तो आज भी खारी जमुना का जल मीठी मंदाकिनी से अलग दिखता है और चंबल का
समझौता हर ग्रीष्म पर टूट जाता है अरावली से विन्ध्याञ्चल के भार का
प्रतिवाद हिमालय की वादियों में करते कच्चे पहाङ खिसक जाते है वारणावत
टूट जाता है डूब जाती है टिहरी और संगम में सरस्वती ना होते हुये भी मान
ली जाती है जबकि वह कभी वहाँ थी ही नहीं ।
गोदावरी से नहीं सँभलता बंगाल का शोक और गंडकी का हर पत्थर सालिगराम हो
कर गोमती के चक्रप्रस्तर खोज कर पूजता नर्मदा के शंकर कंकर तलाशता
दक्षिणावर्ती शंख जल पीता मन
दरिद्र ही रह जाता सारे कनकधारा यंत्रों के बीच ।
मुक्ति एक सोच ही तो है वरना मैदानों पहाङों नदी झरनों से लौट लौट आती
प्रतिध्वनि केवल मेरी न होती ।
पदार्थ से परे जो है वही मैं हूँ
अस्तित्व एक सोच ही तो है
वरना तो सब जलेगा औऱ दफन होकर गलेगा सङकर खत्म होने को
अमृत एक सोच ही तो है वरना तीर्थस्नान से कोई पवित्र नहीं हो जाता ।
©®सुधा राजे

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