सुधा राजे की अकविता:- "तुम मेरा गंतव्य नहीं।"

मैं स्त्री हूँ ।
मुझे जन्म दिया एक स्त्री ने ।
मुझे नौ माह कोख में ढोया एक स्त्री ने।
मैं कोख के भीतर एक स्त्री का रक्त
मज्जा वसा माँस अस्थि शोषण
करती रही।
मेरे जन्म की अपार पीङा सही एक
स्त्री ने ।
मुझे दूध पिलाकर चलने लायक बनाया एक
स्त्री ने ।
एक स्त्री मुझे देती रही रसोई में तप तप
कर आहार और हर बार जब
गलती की तो किया सुधार एक स्त्री ने

एक स्त्री ही थी जो मेरे सारे मैल
धोती रही और वह भी एक
स्त्री थी जिसने समझाया मुझे भेद
स्त्री और शेष प्राणियों का अंतर ।
मेरे जीवन का ध्येय पुरुष है ।
ये जब एक स्त्री ने समझाया तो मुझे
स्त्री होना पहली बार नहीं भाया ।
क्योंकि कभी नहीं देखा था किसी पुरुष
का ध्येय स्त्री थी।
हर पुरुष
के आस पास तमाम स्त्रियाँ थी जिन्हें
वह भिन्न भिन्न नामों से
पुकारता था किंतु ।
उसका ध्येय
था
स्त्री से पृथक परे और इतर
धन के पहाङ
यश के शिखर
कीर्ति के आकाश
शक्ति के नक्षत्र
सुख के उद्यानभवन
विलास के राजमहल
वैभव के साम्राज्य
अमरत्व के गृह उपग्रह और ग्रहमंडल
उच्चपद के विस्तार
जयजयघोष के महानाद
आनंद
के महारास
और आत्मोत्थान के महाप्रयाण
स्त्री कहीं भी अनुपस्थित नहीं थी
किंतु ध्येय नहीं साधन मात्र थीं वैसे
ही जैसे अन्य और पदार्थ जङ चेतन
संसाधन ।
इसलिये एक लक्ष्य़ पूरा होते ही वह
त्याग सकता था स्त्री किसी वस्तु
की भाँति ।
किसी भी पुरुष ने कभी इस तरह से
निन्दा नहीं की स्त्री के त्याग
की बल्कि जयकार किये कि वह महान् है
कि स्त्री जैसे महामोहकारी बंधन से
मुक्त हो पाया ।
"स्त्री गँवाना हानि विशेष
नहीं"यही सिद्धांत रहा ।
जो जो स्त्री नहीं त्याग सका निन्दित
रहा औऱ उपहास का पात्र ।प्रेम
की लीलायें मंच पर मनोरंजन की विषय
वस्तु रहीं किंतु यवनिका के नेपथ्य में
स्त्री के सुख साधन पर किसी भी तुच्छ
नाते या वस्तु तक से अधिक समय और
ध्यान देने वाला उपहास का पात्र
कहा गया।
नेपथ्य में हर बार स्त्री को देहरी के
भीतर सिसकता सोता छोङकर जाने
वाला महापुरुष कहा गया।
किसी महापुरुष
का
ध्येय
स्त्री नहीं थी।
किंतु
किसी महान स्त्री का ध्येय उस के
जीवन में थोपे गये
या यदा कदा स्त्री द्वारा चुने गये
पुरुष से अधिक कुछ नहीं माना गया।
जो जो
स्त्री अपने जीवन का स्वामी घोषित
कर दिये गये पुरुष के सिवा ।
किसी भी धन, पद,यश,कीर्ति,रा
ज्य,समाजसुधार,कला,मोक्ष,वैभव
विलास, आध्यात्म, शक्ति, अविष्कार,
अमरत्व,ज्ञान,व्यक्ति देव या ईश को
लक्ष्य
या
ध्येय बनाती
व्यंग्य निंदा उपहास उत्पीङन
प्रताङना कलंक की पात्र घोषित कर
दी जाती।
जिस
जिस
स्त्री को ये षडयंत्र समझ आया
उसे सब मानसिक दासता के अनुकूल
बना दी गयीं स्त्रियों के लिये वर्जित
कर दिया गया।
कभी इस भय को तोङा जिसने वह
""व्यंग्य में पुकारी गयी-लङकी है
या चंडिका! !
इतिहास लिखता रहा वीरांगना
किंतु समाज टोंचने देता रहा-"स्त्री है
या झाँसी की रानी ?
.... फिर तो मुझे भी यही कहना है कि तुम मेरी मंजिल नहीं सहयात्री हो
जहाँ तक राहें साथ हैं चलो क्या जरूरी है कि मंज़िल एक हो ''हो तो अच्छा
ही है" न हो तो शिक़वा न रखना
©®सुधा राजे
511/2, Peetambara aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.p.
यह रचना पूर्णतः मौलिक है।

Comments