सुधा राजे का लघु लेख :- समरसता की खातिर!!!

खामखा खान कहता है
कि "गौ मांस खाना हम क्यों बंद करें, """"""
अगर बंद करना है तो पहले सारे फाईव स्टार होटलों में बंद कराओ बीफ ',
और ठीक प्रधानमंत्री निवास के सामने ही होटल में पहले जिंदा गौ लाकर
काटकर पकायी जाती है ''


इस बयान को क्या माना जाये "?


कोई भी ""संरसता चाहने वाला नेता होता तो कहता ""
"

क्या भाईयो पच्चीसों तरह के जानवर खाते हो ',चलो एक गाय और बैल को छोङ ही तो दो ""
"
समाज की शांति समरसता के नाम पर एक चीज खाने से छोङकर कोई भूखे तो ""मर
""नहीं जाओगे?
?
ये ऐलान कर तो डालो कि अमुक नगर के मुसलमानों ने हिंदू जैन सिख सब
पङौसियों बंधुओं की भावनाओं की कद्र करते हुये ""आज से गौ हत्या ""गौमांस
खाना त्यागने का एलान किया ।
!!!!!!!
!!!!!!!
ये एक अनोखा और अनुकरणीय उदाहरण होता ।
क्योंकि
इतनी हैसियत तो पचास से सत्तर फीसदी मुसलमानों की है नहीं कि रोज रोज
माँस खाते रहे तीनो समय, '

और फिर हर बार गाय गाय गाय ',का ही माँस उपलब्ध हो पाना भी लगभग नामुमकिन है ।

पुलिस जेल हवालात कानून का अलग झमेला है ।


और फिर पङौसी से बैर और खानपान में एका न होने की वजह अगर सबसे बङी है तो
""गौ मांस "खाने का शक ही न!!!!!

सही पूछो तो कई कई मुसलिम परिवारों को तो महीनों हो हो जाते मांस उपलब्ध
हुये पशु तक का ।

अधिकतर मच्छी और मुर्गा तक ही सिमटे हुये हैं ।
गोश्त में भी बहुतायत बकरा और भैंस के पाये ही मिल जायें तो बङी नेमत है ।



गौ वध की वकालत करके "आजमखान "
जैसे मौकापरस्त लोग भावनायें भङकाकर लोगों में फूट भले ही डाल दें ।
परंतु जब पङौसी घायल हो बीमार हो रोग दुख तकलीफ हो तो ',आगे न आकर मदद न
करने की वजह जो जो बनती वह है खानपान में हिचक '।

क्योंकि कितना ही मॉडर्न हिंदू हो जाये ।

गैया और मैया से दूर नहीं रह सकता ।
तो कानून क्या हमें नाक पकङकर हर जगह रोकता बचाता है???
??
दंगे करवा तो नेता देते हैं
लेकिन
उन्हीं दंगाईयों में कोई
।अली अहमद
कोई
रामदास, '
कोई 'जसविन्दर '
निकल कर आता है और
जले घरों से दूसरे मजहब के लोगों को निकाल कर अपने अपने ही मजहब धर्म पंथ
के लोगों से लङकर उनको
आटा कपङा छत देकर जान माल आबरू हर तरह से खुद जोखिम लेकर भी बचाता है ।
तो ये ''आजम खान कैसे जान पायेगा महलों में रहकर कि कच्चे घरों की छतें
आबचक के सहारे एक दूसरे से जुङी हैं और जब मुसलिम के घर गैया कटती है यदा
कदा गौमांस पकता है तो ''हरप्यारी दाई का जी नहीं करता 'फातिमा की जचगी
कराने का और ये समरसता जरूरी है कि हर गाँव में लोग एक दावत एक चौपाल पर
एक बाजार एक हाट एक मेले में मिलते जुलते रहे ।
भलाई गाँव की देश की और किसान मजदूर की ।
गौ वध रुकेगा तो दूध सस्ता होगा और ',तब कुपोषण के शिकार नहीं होंगे बच्चे ।
इस दर्द को वे लोग नहीं समझ सकते जो
सहरी में नाक से पेंदी तक ठुँसी आँत रखकर "इफ्तार में मेवा माला पकौङी
समोसे बिरयानी पुलाव जलेबी कबाब भकोसते है '"
प्रधानजी विधायक जी दरोगा जी और एसपी साब के आवास पर ।
ये भूख तो वह गरीब ""नसीमन ही जानती है जो बासी रोटी चाय पर सहरी करके ',
,
सारा दिन सिलाई करती है और शाम को मट्ठे पकौङी की जिद पर लगे बच्चों को
डाँटकर रूखी रोटी से रोजा खोलती है '
रात को दुधमुँहा नवजात बच्चा छाती से दूध नहीं पाकर बिलखता है ।
तब 'मिलावटी पनीला दूध डेयरी से बीस रूपये का एक बोलत मँगवाकर चुप कराती है ।
©®सुधा राजे


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