सुधा राजे का लेख :-" मानवता का विश्व गाँव और राह में खङा आतंकवाद।"

सुधा राजे का लेख
""""""

आतंक बनाम इसलाम और सवाल "देता है धन कौन?
★लेख *
वक्त आ चुका है कि ',किताबे आसमानी कहकर उस पर शास्त्रार्थ से बच रहे
'इसलामिक विद्वान 'शब्दशः अर्थ और भावार्थ पर 'दूसरे सब लोगों के सामने
खुलकर बहस करें । यूँ कम जानने वाले कम पढ़े लिखे सीधा साधा मजूरी किसानी
प्रकृत जीवन जीने वालों को न बहलायें बहकायें ।
जब जब बात आती है ""आतंकी ""की उसको हर बार हर कोई कह देता है ये इसलाम
नहीं ये मुसलमान नहीं कर सकता ऐसी हिंसा की कुरान इजाजत नहीं देता, '।
किंतु कोई कहे तो कि हर आतंकी जब कत्ल करता है तो उसके "वहशी जुनून ""की
प्रेरक शक्ति क्या होती है? आखिर वह चाहता क्या है??
जवाब मिलेगी पूरी दुनियाँ के हर व्यक्ति को मुसलमान बनने पप मजबूर करके
इसलाम की सत्ता स्थापित करना ।
और मुसलमान बनने पर क्यों एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को क्यों मारता है??
सवाल का जवाब मिलेगा """शरीयत ""की हुकूमत का शब्दशः पालन करवाना "
इसलामिक कानूनों का सख्ती से पालन करना ।
फिर जो जो लोग शरीयत का भी सख्ती से पालन करते हैं और फिर मुसलमान भी हैं
उनको कोई मुसलमान आतंकवादी क्यों मारता है!??

जवाब मिलेगा "
"ज़िहादी क्यों नहीं बनता ""
जिहादी मतलब??
मतलब जो लगातार इसलाम की जनसंख्या बढ़ाता रहे और इसलाम की सत्ता पूरी
दुनियाँ पर थोपकर सबको मुसलमान बनाकर ''''सारी आधुनिकता नष्ट करके सारी
दुनियाँ फिर से शरीयत के कानूनों से इसलामिक नियमों से चलाने के मुहिम का
हिस्सा हो ""।
जो फिर जो जो शरीयत से चल रहा है,,,,,
और मुसलमान है और कुरान को रटकर बैठा है और फिर भी उसे दूसरा मुसलमान
""मार डाल रहा हैक्यो??
''
जवाब मिलेगा """फिर्का ""अलग है ।
ये फिरका क्या है??
ये हैं ""इसलाम को मानने वालों के भी पंथ के भीतर "प्रकारांतर से बने
पृथक पृथक पंथ ""
जिनकी संख्या "72"कही जाती है और मूल रूप से "शिया,, सुन्नी,, बहाबी या
सलाफी ""कुर्द ""आदि गिने जाते है ।

इसमें ""सऊदी अरब ""के साथी मुसलिम देश और "ईरान के साथी मुसलिम देश का
भी एक अंतर है ।

मक्का मदीना सऊदी अरेबिया में होने से पूरे संसार की हज 'मजहबी
तीर्थयात्रा का केंन्द्र सऊदी अरेबिया है ।
और हर मुसलमान पर जीवन में एक बार ""मक्का मदीना जाना फर्ज है "और ये
फर्ज हर हाल में निभाये बिना "हाजी "कहलाने का गर्व हासिल नहीं हो सकता
सो "उमरा"" यानि बिना "रमज़ान महीने के जाना और "हज "यानि रमजान "में
जाना "ही है सबको, 'जो नहीं जा पाते उनको """"""''???
उनको दूसरा काम है कि मुसलमानों की संख्या में वृद्धिकरो ।
ऐसा मजहबी उपदेशक रास्ता निकालते हैं ।
पहले भारत में ""ईरानियों का प्रभाव था आवागमन था ।'
तो पारसी यानि फारसी, भारत आये और भारत में भी बङी संख्या में बस गये ।
उनके प्रभाव से भारत में फारसी भाषा लिपि और खान पान रहन सहन बोलना और
मेलजोल से नाते रिश्ते युद्धों से धर्मप्रभाव बढ़ा ।
बाद में सब घुलमिल गये ।
ईरानी "उनके ईश्वर को "खुदा "कहते हैं सो हर बात पर' खुदा शब्द चलता रहा
तीन दशक पहले तक ।
खुदा हाफिज खुदा ग़वाह 'खुदा जान,े खुदा की बरकत, खुदा की नेमत 'खुदाई,
ये शब्द शायरी और फिल्मों से लेकर जन जन तक छाये रहते थे ।
फिर बढ़ा सऊदी अरब से आवागमन और लेन देन लोग वहाँ की मुद्रा महँगी होने
से वहाँ मजदूरी पर जाते और वहाँ से अरबी संस्कार बोली भाषा पहनावा और
कठोर कानून लेकर आते ।
धीरे धीरे "उर्दू सीखकर मुसलमान कहलाते लोग और फारसी पढ़कर विद्वान
कहलाते आलिम फ़ाजिल,,,, अरबी सीखने सिखाने लगे ।
और हर कसबे गाँव तक मदरसों में अरबी हावी होने लगी क्योंकि ""सऊदी अरब
में मजदूरी जो मिलती है वह भारतीय मुद्रा में कई गुना अधिक बैठती है
""रियाल ""की तुलना में रुपया कमजोर है ।
सो मजदूरी और जॉब की तलाश को कम परेशानी हो तो जरूरी है कि ""अरबी इंगलिश
आती हो और "सऊदी अरेबिया "में कट्टर कठोर इसलामिक कानून लागू हैं इसलिये

इसलामिक कठोर कानूनों और शरिआ का पूरा ज्ञान भी होना जरूरी है ',और जरूरी
है किताबे आसमानी कही जाने वाली "कुरान "का पूरा पढ़ना और रोजे रखना नमाज
पढ़ना और इसलामिक ही तरीके से खाना पहनना और आयतों का रट्टा करना ।
सो अधिकाधिक लोग ज्यों ज्यों अरब देशों में मजदूरी के लिये झटपट धनवान
होने की "लालसा "में जाने लगे और वहाँ जाकर उसी तरह रहना विवशता भी है सो
उसी सब को अपनाने लगे । वहाँ रहते रहते वह सब सीखने लगे जो जो सिखाया
जाता है ।
यानि सब लोग, ""पूरी दुनियाँ को मुसलमान बनाओ और हर मुसलमान पर शरीयत का
कानून लागू करो '।
अब जब हर मुसलमान चाहे जिंम्बाब्बे का हो या साईबेरिया का या फिर चीन और
भारत का ।इसलाम की शर्त के अनुसार उसे "कमाई और बचत जमा का "बीस प्रतिशत
कर इसलामिक दुनियाँ बनाने के लिये देना है जकात यानि दान और वक़्फ ''करना
है यानि वह सब दान केवल मुसलिमों पर इसलाम की भलाई बरकत संपन्नता के
लिये इसलाम को मानमे वालों के लिये मुसलमान की गरीबी मिटाने और मसजिदें
बनवाने हज उमरा कराने पर ही खर्च करनी है ।
सो भला किसका?? अरबों खरबों रुपया """लाभ """पूरी दुनियाँ के दूर दराज के
आये मुसलमानों की हज ''यात्रा और "उमरा "यात्रा के लगातार चलते रहने के
कारण ही """सऊदी अरेबिया और मार्ग में पङने वाले सब देश """धनवान और
धनवान होते चले गये ।
इसलाम को फिर भला क्यों नहीं बढ़ावा देगा वह देश जिसके खजाने भरे छलकते
रहते है केवल इसलिये कि """जितने अधिक मुसलमान होगे उतने अधिक उमरा "और
हज ''यात्री बनकर पर्यटक आयेगे ।!!!!
और जितने पर्यटक मजहबी यात्रा पर आयेगे उतनी अधिक विदेशी मुद्रा और धन
जमा कराते रहेगे!!!!
कुछ हिसाब है कि ""हज "और उमरा,,,,
के मुख्य और परोक्ष प्रबंधन में कितने "लोगों को सऊदी अरेबिया में रोजगार
मिला हुआ है!!!!!!
पेट्रोलियम पदार्थों की आय और हज उमरा की आय को जोङकर और तुलना करके देखे ।
देखे कि कितने लोग प्रतिदिन प्रति शुक्रवार और प्रतिरमजान ''मक्का मदीना
और मुहम्मद हजरत साब की कब्र पर जाते हैं ।
वहाँ जाकर सबको "बाल मुँड़ाने पङते हैं पूरे के पूरे । और सफेद बिना सिले
कपङों में ही यात्रा करनी पङती है ।
ये बाल ही बाल अरबों रुपये की आय का स्रोत बने हुये है । सब हज यात्रियों
के बाल प्रतिवर्ष बेचकर अरबों रुपया खजाने में भर जाता है सरकार के ।
इसके अलावा लोग वहाँ धार्मिक खरीददारी करते हैं और ठहरने खाने पीने रहने
और किराया भाङा के अतिरिक्त भी "अरबों करोङों रुपये ""दान ""करते हैं ।
तो कहना न होगा कि ''हज कराओ ''अधिक से अधिक लोगों को और धन जमा करो ।
तब ये देश हर देश में इसलाम के बढ़ावे के लिये ""दौलत क्यों नहीं भेजेगे?????
विदेशों से यानि इसलामिक देशों से मदरसों इसलामिक रिसर्च केन्द्रों और
मौलवियों उलेमाओं की तकरीरें छापने प्रचारित करने इसलाम को बढ़ावा देने
वाले भवन निर्माण दरगाह मसजिद और कब्रिस्तान बनाने के लिये मदद के नाम पर
""इन्वेस्टमेन्ट ""आता है ।
सिनेमा में "पंडित धूर्त और ठाकुर जल्लाद, दलित को अपराधी किंतु मौलवी को
महान बताने के ट्रैंड चल पङते हैं ।
फारसी में शेर शायरी गजल हम्द कव्वाली करने वाले साहित्यकार लोग फटाफट
दाङी बढ़ाकर मजहबी प्रवचन करने लग जाते हैं ।
क्योंकि कलम घिसकर जो धन मुशायरों से नहीं मिला वह गद्दी पर बैठकर प्रवचन
करने से फटाफट मिलने लगता है ।
और तो और, मदरसा खोलकर पहले कभी रोजी रोटी न चल पाती थी अब कार बंगला
बैंक बैलेंस सब हासिल हो जाता है ।
लगातार अरब देशों से जमात के नाम पर मजहबी प्रचार प्रसार करने वालों के
दल आते रहते हैं ।भले ही उनका "वीसा "पर्यटन या छात्र या किसी और काम का
लिखा हो ।परंतु मसजिदों में ठहरते हैं और गाँव कसबों में स्थानीय लोगों
के घर भोजन करते है रुकते है और बङी बङी शाबासी देने वाली बातें करते हैं
जिससे लोग मुसलमान बने बनाये कुरान सीखें और इसलाम की सत्ता पूरी दुनियाँ
पर कायम करते शरीयत के कानून लागू करवायें ।
ऐसी जमातों के आने के बाद से फटाफट पहनावे बदल जाते हैं लङके कमीज सलवार
टोपी में आने लगते हैं दाङी बढ़ने लगती है 'माथे पर काले दाग बढ़ जाते
हैं औरतें सख्ती से घरों में बंद रखी दाने लगतीं हैं और लङकियों को
कॉन्वेंट और इंगलिश पब्लिक स्कूलों से निकाल कर मदरसे बैठा दिया जाता है,
'सयानी लङकी पर बुरका कस दिया जाता है ।
डीजे बैंड बाजे नाच गाना हलदी घोङी ढोलक बंद कर दीं जाती हैं ।
रुपया बैंक में रखना बंद करके ""इसलामिक फंड ""में रखा जाने लगता है ।
औरतों के जेवरों सोने चाँदी जमा पर टैक्स अदा होते हैं और बढ़ जाती है
सख्ती "अरेबियन रहन सहन माहौल भाषा सीखने अपनाने की ।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के अनेक कसबे लगभग इसलामिक कानून से चल रहे हैं और
वहाँ दूसरे मजहब के लोगों पर भी असर आता जा रहा है ।
दक्षिणभारत और कश्मीर भी बुरी तरह प्रभावित है ।
कारण वही ""जॉब की ऊँची तनखा मजदूरी पाने की तलाश में "रियाल "कमाने की
होङ और फिर उसके "साईड इफेक्ट में ""कट्टरपन की सीख आदतें और ब्रेनवॉश्ड
स्वीकृति ।
हमने बहुत सारे किशोर किशोरियों से बात की तो यही पता चला कि 'घर घर
""हाफिज जी पढ़ाने आते हैं "सिपारा "यानि कुरान "।
और जब तक हर बच्चे को कुरान "हिफ्ज "न हो जाये यानि रट्टा न हो जाये तब
तक पढ़ना पढ़ता है ।
इसे लिखने से अधिक बोल बोल कर पढ़वाया जाता है ।
लङके प्रायः पब्लिक स्कूल में और लङकियाँ प्रायः मुसलिम फंड के स्कूल में
पढ़ाते हैं ।
वे मुसलमान जो भारत में रोजगार पा चुके हैं और बढ़िया कमा रहे हैं उनके
घर पर कम कट्टरपन मिलता है और उनके बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं
।किंतु "जमातों "यानि इसलामिक मजहबी प्रचार समूहों का दवाब इतना अधिक
रहता है कि हर हाल में चाहे "ट्यूशन न जाएँ बच्चों को यातो ""मदरसा जाकर
कुरान सिपारा सीखना पङता है या तो ""हाफिज जी ""को वेतन देकर घर पर ही
कुरान का सिपारा पढ़ाने के लिये रोज बिना नागा बुलाना पङता है ।
अनेक बच्चों ने बताया कि ""हाफिज जी रोज चाय नाश्ता करते हैं और उनका
बहुत सम्मान किया जाता है और वे मारते पीटते बेहद्द हैं कि रो रोकर बुरा
हाल हो जाता है फिर भी अधिकांश माता पिता हाफिज जी को नहीं रोकते टोकते
क्योंकि "सिपारा रटना हर हाल में जरूरी है वरना जमात वाले फिर टोकते हैं
। ये जमात वाले ही घर घर जा जा कर कुरान के नियमों का पालन हो रहा है या
नहीं यह भी देखते हैं ।
ये जमात वाले नगर नगर कसबा गाँव घूमते ही रहते हैं ।और लगभग हर दूसरे
तीसरे परिवार के लङकों का साल में एक दो बार ''जमात 'में यात्रा पर भेजा
जाना जरूरी है
ये मसजिदों में रहते और लोगों के घर अतिथि बनकर खाते पीते और उपदेश करते
हैं । ये जमातें का ही डर है कि आम लोग "रोजा रखते है तब भी जब मन न हो,
और जकात देते हैं तब भी जब देने की इच्छा न हो ',जमात के सामने "मुसलमान
होकर इसलामिक नियम न पालता होने की बात पर जलील होने से बुरा लगता है ।
इन जमातों का खरचा विदेश से भी आता है और जकात के धन से भी उठाया जाता है ।
अब सवाल आतंकी को रकम कहाँ से तो खुद कहो जेहाद को देता कौन
©®सुधा राजे


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