सुधा का संस्मरण'-" सुधियों के बिखरे पन्ने एक थी सुधा!"- "बुद्धं शरणं"

सच कङवा है
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बात है आज से आठ वर्ष पहले की ',एक रिश्तेदारी में 'खलीलाबाद 'के एक गाँव
जाना पङा 'तमेसर 'नाथ दर्शन से लौटते समय तबियत खराब हो गयी गर्मी और
पैदल यात्रा की जिद और वजन उठाने से,पेट चल गया । तो रिश्ते की भाभी
काकियों ने एक 'स्त्री 'को बुलवा दिया 'नाम जो भी हो लोग उसे
'हरिहरपुरवाली 'कहते थे ।
उसने कई दिन मालिश की 'रोज आती भोजन करती चाय पीती और घंटों बतियाती,
बातों बातों में बताया कि उसके घर 'लाल कपङों 'वाले साधु आते हैं 'तो अब
हम लोग 'आपकी तरह पूजा नहीं करते ओ लोग 'हमको 'ऐसे पूजा करना सिखाते हैं

उसने अशुद्ध उच्चारण से बताया भी कि कैसे "मंतर पढ़ते हैं '।तब समझ आयी
कि "बौद्ध हो गया है उसका परिवार 'और उस जैसे अनेक परिवार ':
कुछ साल पहले उसके देवर जेठों ने उसका आदमी मरने पर लठियाकर घर से फटे
कपङों में लगभग निर्वस्त्र छोटे बच्चों सहित घर से निकाल दिया था तब
'"गाँव से छिपते छिपाते वह 'दूसरे गाँव के 'बाबू 'के यहाँ पहुँची और,
गौशाला की चरनी की आङ से पुकार लगायी । बङे बाबा औसारे में ही सोते थे
उन्होने आकर, सारी बात सुनी और 'आङे खङे अपनी चादर और कंबल चरनी की तरफ
उछाल दिये ।
फिर घर खुलवाकर पत्नी बहू और पौत्रवधुओं से कपङे भोजन और बच्चों के लिये
दूध चाय बिसकिट निकलवाकर 'गौशाला में भिजवाये । सुबह गौशाला के लिये
दूसरा टपरा डाल दिया गया और हरिहरपुरवाली कुछ दिन वहीं रहती रही । बाद
में लङके भेजकर विधवा का घर और जमीन 'देवर जेठ के कब्जे से छुङवाये । कई
साल वह गाय भैंस और घर की सेवा करके बच्चे पढ़ाती रही लङके मुंबई कोलकाता
चले गये, बेटी का विवाह अपनी बिरादरी में कर दिया ।हमने पूछा बहुओं और
दामाद का धर्म क्या है? वह हँस पङी "वक्क,,ओ तो बौद्ध नहीं है न, ।
गाँव में अकेसी क्यों रहती हो ' उसने बताया कि गई थी लङकों के घर बारी
बारी से रहने 'मकान बेचकर, जमीन बेचकर 'सारा रुपया दे दिया बच्चों को,
मगर गवार अनपढ़ सास बहू को और बूढ़ी होती बङबङाती माई लङकों को पसंद
नहीं आयी । लङकी है सो जब जब दामाद अनुमति देता है मिल जाती है । गाँव
वापस आकर एक घेर बच गया था जिसमें साझा था 'कूङा डालने गोबर पाथने का
वहीं कुछ मेहनत मदद करके एक खपरैल डलवा ली है और सारा दिन तो वैसे भी,
किसी की मोच 'किसी की कलाई का गट्टा 'किसी की पेट की नाभि बिठाने में पता
ही नहीं चलता । बङका बाबू नहीं रहे, पर लङके बहुत मान रखते हैं वहीं जाकर
भोजन खाती है और बूढ़ी दुलहिन से खैनी सुरती रगङते बतियाती रहती है । कभी
कभार घर भी रह जाती है जब लङकी आती है । गाँव की फिजयोथेरेपिस्ट के रूप
में हरिहरपुरवाली का बहुत सम्मान है । फिर हाँक लगाकर बोली, आज घुघरी खाए
का मन है दुलहिन तनि मरचा का अचार औउर चाना बाँन्हि देती '। इतने में चाह
पिअत आँटी 'तनि भूजा लिअऊँती मउनी में ।
फिर हमने कुछ रुपये और कपङे दिये तो ढेरों आशीष देकर बोली 'समय माई
'रक्षा करें, तमेसरनाथ बाबा रक्षा करें, गोरखनाथ बाबा रक्षा करें,
कालीमाई रक्षा करें बजरंगबली रक्षा करें ।हमने पूछा और बुद्ध? बोली ओ भी
रक्षा करें 'हमने फिर पूछा ' जब आप बौद्ध हो गयी हो तब इन देवताओं से
मतलब?
वह बोली "बै,, ऊ त पूजा करने का नवा तरीका न है!! का ओ से हम भुला जईबे
'कालीमाई 'भोलेबाबा अऊर रामजी के!!
रऊरे त एन्ना पढ़ल बाटी बच्ची!!! कौनो आपन देई देऊता माई बाबा के भुला सकीला!!!??
उसकी फैली बङी बङी सम्मोहिनी आँखों के आगे हमारे पास कोई उत्तर नहीं था
',क्या आपके पास है??
©सुधा राजे


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