Sunday 31 July 2016

सुधियों के बिखरे पन्ने एक थी सुधा -: " माँ ' न जाने क्या था उस आवाज और अंदाज में "

एक 'आदत होती है स्वाभिमान की
और परिश्रम से अपनी कमाई पर जीने वाला उस को समझ सकता है शेष नहीं ।
ये शेष तो 'रीढ़विहीन परजीवी हैं जो कुछ भी कर लेते हैं बस परिश्रम नहीं
होता 'और कम पर गुजारा भी नहीं होता ।
माँ
ऐसी ही थीं
जीवन भर दातुन की मंजन नहीं ।
साबुन नहीं लगाया 'आटा बेसन से नहायीं ।
जीवन भर न बेटों की साङी पहनी न बहुओं के मायके की न पिता के जेवर गहने
रखे न मायके के सब बाँट देतीं ।
और अपनी कृषि से मिले पैसे भी बाँट देतीं थी ',
पूँजी जमा होती तो उधार दे देतीं 'बिना ब्याज के बिना लिखत पढ़त के ।
'
आहार शुद्ध शाकाहारी और रहती 'पक्की हवेली होने पर भी 'फार्महाऊस में
कुत्तों सेवकों और पोत्रों के साथ ।
भोजन अपना स्वयं बनाती 'एक ही समय भोजन करतीं और बिंदी चूङी के अलावा कोई
श्रंगार नहीं करतीं ।
पढ़ने की आदत थी सो एक पुस्तक समाप्त होती तो दूसरी प्रारंभ कर देतीं ।
रोज कुछ नया बुनती रहतीं पंखे टोकरी 'स्वेटर क्रोशिया या बच्चों के कपङों
पर कढ़ाई 'ठाकुरजी के वस्त्र ।
अतिथियों को भोजन कराना और लोगों को उपहार देने का ऐसा 'ऐब 'था कि अकसर
परिजन नाराज रहते और नाते रिश्तेदार प्रसन्न, '
मेहनत की आदत कभी नहीं छोङी सो 'कितने भी मजदूर लगे हों माँ, कुछ न कुछ
करने ही लग जातीं ।
गौ सेवा अंत तक जारी रही और कभी नहीं छूटा गाने गुनगुनाने के साथ काम करना, '
पाककला में 'शैफ को भी मात देतीं थी तो हर बार बङे भोज पर, स्वयं रसोईयों
के सामने डट कर काम करवातीं ',
कभी नापा नहीं परंतु हर बार सही संतुलित स्वाद का जादू था ।
माँ को कच्चे घर पसंद थे सो, एक भी परिचित कच्चे घर में रहता होता वहाँ
अवश्य भेंट करने जातीं और उनके रहने तक एक कमरा दोमंजिला ऐसा था जिसमें
बीच में छत न डालकर दूसरी मंजिल पर खपरैल डाली गयी थी और फर्श पर गौ गोबर
से लीपा जाता था ।
माँ को 'कढ़ी बरा और भाजी ज्वार की रोटी महेरी, गुलगुले और पूङी का हलवा
बेहद पसंद था ।कद्दू की भुजी और बैंगन का भरता चाव से जीमती '
परंतु एक बच्चों जैसी आदत थी '
अगर भोजन करने को न पूछो तो बुरा मान जाती, कभी स्वयं अपना भोजन परोसकर
हमारे होश तक तो नहीं जीमा, 'यहाँ तक कि अगर बाकी लोग भोजन कर गये और कोई
माँ को कहना भूल गया तो 'भोजन करती ही नहीं आँखें भर आतीं और मुँह फुला
लेतीं ',
यह उनको अपमान लगता ।
दूसरी आदत थी, माँ को 'कङाही चढ़ी तो स्वयं बैठती जाकर तलने पूङियाँ
।किसी को नहीं करने देती, '
आटा गूँथो बेलो परोसो सब परंतु पूरी तलने छानने की माँ की अजीब जिद रहती
जो बङी मुश्किल से छूटी ।
पूजापाठ उनसे अधिक नहीं होता था परंतु, पुजारी जी का सीधा कथा दान
दक्षिणा और बहुत सारे व्रत उपवास खूब करतीं थीं ।
माँ ने कभी, किसी को दरवाजे से मदद दिये बिना वापस नहीं लौटाया 'चाहे वह
भिक्षुक हो या पङौसी । किंतु कभी प्रवचन या सतसंग जाना उनको पसंद नहीं था

हजारों पक्के राग के गीत भजन गातीं रहती और हम दोनों कभी जम जाते तो माँ
की तान देखते बनती ।
माँ को बङा गर्व था कि उनकी जरा सी बिटिया उनके सब काम निपुणता से कर
लेती है सो उस प्रदर्शनकारी गर्व ने हमें बङा 'रगेदा '
कहीं भी सामूहिक आयोजन होता "बहू बेटियाँ कोई काम 'बेढंगा करतीं माँ
तत्काल हमें, करके दिखाने सिखाने को कह देतीं और नन्हीं सी आयु से इस तरह
अनेक, "शो "करने के चक्कर में हमारा बङा नुकसान हुआ । बीमार पङ जाते कभी,
पढ़ाई में विघ्न पङता । अच्छा भी लगता जब सब चकित हो जाते, 'परंतु उल्लू
भी बन ही रहे थे 'शाबासी के चक्कर में । महावर और नेल पॉलिश, जब जब हम
माँ को लगवा देते खवासिन भाभी से, माँ पैरों पर हलदी जरूर लगवातीं और
'धरतीं माँ को प्रणाम करतीं, हर त्यौहार पर एक कथा कहतीं और बिना मंत्र
की पूजा हो जाती पूरी रीति विधि से, सजावट "चौक पूरना, और गुड्डे गुङिया
बनाने में उन जैसा कोई विरला ही होगा, ये कला हमने भी सीखी और बङी सुंदर
सुदर गुङियाँ बनायीं भी ।
माँ को अपने कर्मचारी 'संतान से भी अधिक प्रिय थे,
तिज्जू मामा
हरी भैया
कन्हैया मामा
ढूमा फुआ
फूलाबाई
भूरी जिज्जी
पापम्मा काकी
कालिया दद्दा
उनके लिये प्राण तक दाँव पर लगाने वाले लोग सैकङों रहे ।
न जाने कौन सा चुंबक था उनमें कि जो भी एक बार कहीं मिल जाता 'जाति
बिरादरी मजहब सब भूलकर "उनका सगा कुटुंबी बन जाता ।
इसका अहसास तब होता जब, कभी माँ दुखी होती तो, वे लोग बापू और भाईयों तक
को, शालीन किंतु कठोर शब्दों में 'समझाते, 'या जब हम लोग कहीं घूमने जाते
तो होटल धर्मशाला की बजाय माँ किसी के घर मिलने ले जाती और वहाँ हम सबको
जबरन रुकना पङता, अतिथि सत्कार के, भव्य स्वागत होते ।
माँ गाँववालों के दिलों में बसती थी, परंतु नगर में बहुत कम लोग उनको रास आते, '।
माँ को मंदिर जाने की आदत नहीं थी रोज परंतु जब समूह यात्रा बनती तो दूर
दूर तक तीर्थ कर आतीं ।
जिद रहती सो रहती कि पैसा उनको किसी से कभी माँगना नहीं है ।
किसी भी दूर पास की बेटी के पाँव पूजकर गाँठ में पैसे बाँधना उनका नियम
रहा । सो सब पैसे उङ जाते उनका कोई बैंक एकाऊंट कभी चल ही नहीं पाया ।
माँ को साङियाँ देना ही बेकार जाता 'एक ही बार न पहने कहो तो और अपने
'परिचित किसी को भी पकङा दें ।
उनके पास इसलिये अधिक जमा कपङे नहीं रहते ।
कमर में पोटली खुंसी रहती और उसी में पैसे रहते ।
हम लोग जरूरत पङने पर ले लेते, माँ हँसती मना करतीं फिर पकङा देतीं बिना
गिने सारे, और हम लेकर बचे वापस खुटी पर खोंस देते, '
गहने एक एक करके कई किलो सोना चाँदी माँ ने दूर दूर तक की बेटियों के
पीँव पूजने और बहू की मुँह दिखाई में खतम कर दिये ।
हमें माँ की एक निशानी मिली बस उनकी पायलें '
सो भी एक दिन किसी स्कूली उत्सव में पहनी तो माँ बोलीं बस अब रख लो, '।
हर बार सोने के टॉप्स खरीदतीं और फिर किसी बहू बेटी को पकङा देतीं ।
पत्र लिखने की आदत थी परंतु बाद में माँ के हाथ में फ्रेक्चर होने से लेख
बिगङने लगा तो माँ के मुंशी हम बने ।
माँ की चिट्ठी लिखना आसान नहीं था 'कभी भी पूरा मैटर नहीं बोलतीं ',और
सार सार सुनकर अगर अपने मन से लिख देते तो 'कहीं कोई शब्द उनको खटक जाता
फिर काटो ।
माँ वैद्यगुण से बेहद संपन्न थी सब तरह के दर्द घरेलू रसोई के सामानों से
ठीक कर देती कई बार तो गंभीर समस्यायें भी ।
माँ को हरी चूङियाँ बहुत पसंद थी रेशमी काँच की और उनके हाथ इतने कोमल और
नरम थे कि कलाई में फँसी चूङी भी आराम से चढ़ जाती "आध पाव दो की नाप जब
हुयी तो माँ को अफसोस होता कि हाथ कङक हो गये ।
उनकी चूढ़ी जस की तस उतरती महीनों बाद भी । बहुत कम बार चूङी पहनती फिर
भी भरे भरे हाथ रहते ।
माँ को 'सूखे उबले बेर और बेरों का चूर्ण बहुत पसंद रहा । होटल का भोजन
कभी रास न आया परंतु कॉफी चाय टोस्ट के बिना नहीं लेतीं ।
सफाई करमी हो या फेरी करके चिमटे बेचने वाला ।माँ का भैया बन ही जाता और
बिना भोजन के न जाने देती, 'अगर द्वार पर कुछ खरीदा तो "जल और मीठा "तो
देना ही पङता फेरी वाले को भी ।और इस कारण माँ के कई, अनजाने अपने बन
जाते ।
अघोषित जज वकील और सरपंच रहीं माँ गाँव की मुहल्ले की और दूर पास के
नातेदारों की । कोई भी समस्या लेकर कभी भी आ जाता ',माँ का निर्णय सबको
"पसंद आ जाता ।
जाने कहाँ कहाँ से अनाथ बेसहारा लोग घर उठा लातीं!!
दऊन बाई,
विदेशी चाचा
तिज्जू मामा
लक्ष्मी जिज्जी
हरीभईया
सोचकर ही अचंभा होता है कि कैसे जान न पहचान और और जाति न बिरादरी '
कोई सिंधी तो कोई मुसलिम कोई शूद्र तो कोई 'मदरासी 'माँ कैसे 'अपना बना
लेती कि वह आकर घर का सदस्य बनकर जीवन भर रहकर मर तक गये 'पर धोखा नहीं
दिया!!
आज क्या ऐसा करना समझदारी है ।
माँ ने धन नहीं जोङा परंतु, माँ 'ने जो दिया है वही तो आज हमारी पूँजी
है, :माँ की तरह सुंदर तो नहीं परंतु उनकी किंचित छवि मुझमें है और उतने
से ही, लोग कहते थे आपका चेहरा बेहद फोटोजेनिक है । आज बस क्यों न जाने
याद आयीं आप!!
©सुधा राजे

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