सुधा राजे का लेख :- " बिंदी वालियाँ" संस्कृति के इन प्रतीकों का किसी के निजी आचरण के कारण उपहास करना उचित है???"

बिन्दी वालियाँ
"""""""""""""सुधा राजे का लेख ।

तिलक का बिन्दी लगाने का मजाक उङाना कहाँ तक उचित है?क्या तिलक या बिंदी
लगाना अपराध या पिछङेपन की निशानी है ?

कुछ समय से दिल्ली की छद्म सेकुलरवादी सोच से ग्रस्त तथाकथित आधुनिक
फेमिनिस्ट व्यक्तियों ने जिनमें स्त्री पुरुष दोनों ही हैं ',एक
उपहासात्मक नारा सा गढ़ दिया है,,,,

अब कहाँ गईँ वे बिन्दी वाली महिलाएँ? अब कहाँ गयीं वे कलफ लगी साङियों
वाली महिलाएँ?

हमें और आपको सोचना पङेगा एक पल रुक कर कि 'जिस तरह नन सफेद सलेटी "हैबिट
"पहनतीं हैं और पादरी "चोगा पहनते हैं ',मुसलिम गोल टोपी काफिया और
'जुज्बा "पहनते हैं और मुसलिम स्त्रियाँ 'बुरका 'चादर, और गरारा जंफर
पहनतीं हैं । सिख महिलाएँ सलवार कुरता पहनतीं है सिख पुरुष पगङी केश कटार
और कड़ा पहनते हैं और बौद्ध चीवर पहनते हैं ",,ईसाई स्त्री विवाह के समय
"वेडिंग गाऊन और वील पहनती है, 'पुरुष कोट टाई हैट पैन्ट पहनते हैं, ठीक
वैसे ही 'हिन्दू स्त्री को भी स्वतंत्रता है अलग अलग प्रांत की परंपरा
रीति और अपनी पसंद से अपनी पोशाक पहनने और अपने अपने धार्मिक सामाजिक
दस्तूर निभाने का । बिन्दी और तिलक अनंतकाल से भारतीय पोशाक का हिस्सा
रहे हैं 'आसाम बिहार बंगाल और गुजरात राजस्थान महाराष्ट्र की स्त्रियों
में तो बिन्दी उनके जैसे शरीर और पहचान का ही एक हिस्सा बन चुकी है । इसे
न तो थोपा जाता है मार डाँटकर न धमकाकर विवश किया जाता है । दिल्ली मेरठ
अलीगढ़ लखनऊ और सहारन पुर के आसपास का माहौल, अच्छा खासा अल्पसंख्यक
इसलाम से प्रभावित होने के बावजूद 'स्त्रियाँ बिंदी लगातीं है । केवल
सुहागिनें नहीं अपितु शौक और फैशन का हिस्सा बनाकर लङकियाँ कुमारियाँ और
यदा कदा काली सफेद और अन्य रंगों की बिंदी तो विधवायें भी लगाती है ।
मंदिर और पूजा पाठ कथा आदि का आयोजन लगभग हर हिंदू के घर कभी न कभी तो
होता ही है ',सो तिलक पुरुष भी लगाते हैं । शनिवार मंगलवार हनुमान जी को
चोला चढ़ाया जाता है मंदिर जाने वाले युवा लङके प्रौढ़ भी हनुमद् चरण से
सिंदूर लेकर लगाते हैं तिलक ',हरिद्वार और ऋषिकेश प्रयाग काशी मथुरा
अयोध्या जाने पर वहाँ आरती के बाद पुजारी और बटुक ब्राह्मण सभी उपस्थित
लोगों को तिलक लगाते हैं ।
ओरछा नरेश 'मधुकर शाह जब अकबर के सामने राजपूती लंबा तिलक लगाकर गये तो
मौलवियों को बुरा लगा ',उन पर कर थोपने की योजना बनायी गयी ',परंतु दूसरे
हिंदू सामंतों की तरह उन्होंने तिलक मिटाया नहीं बल्कि अपने तिलक को
औचित्य के साथ वर्णित करके, सही ठहराया और "टीकमसिंह "की उपाधि पायी
'उन्ही के नाम पर "टीकमगढ़ "बनाया गया ।सिंधिया आज भी अपने पारिवारिक
समारोह में चंद्रतिलक लगाते हैं और, भाईयों को ""नौरते जवारे कान पर धरकर
तिलक करतीं हैं सारी हिंदू लङकियाँ ''दशहरा पर । भाईदूज "भाऊबीज 'का
त्यौहार जब आता है दीवाली के तीसरे दिन तो सारे हिंदू पुरुष अपनी बहिनों
से 'रक्षा तिलक 'करवाते हैं । विवाह तय होने की 'रस्म 'को ही 'तिलकोत्सव
'कहा जाता है ' और तिलक आया 'बोलकर वधू के भाई लङके का तिलक करते हैं ।
मंडप के दिन 'भाई अपनी बहिनों के घर 'भात 'की रस्म में जाते हैं और बहिन
सारे भाई भतीजों उनके मित्रों यानि "भातियों "का पटरे चौकी पर आरती करके
तिलक करतीं और नारियल देतीं हैं ।दूल्हा बनकर जब हिंदू विवाह करने जाता
है तो ''द्वार पर वर का तिलक कन्या के पिता करते हैं जिसे "टीकाचार
''द्वार चार ''बाघद्वारी "आदि कहते हैं ।
बारात रवाना होने से पहले वर के घर की स्त्रियाँ लङके को आँगन में बिठाकर
टीका करती है और नजर उतारती हैं '। बिन्नायकी ',यानि गणेश पूजा हेतु जब
वर गाँव की परिक्रमा करके बारात के आगे चलकर मंदिर जाता है तब गाँव की
औरतें भी ''मौरचढ़े 'की रस्म का टीका करती हैं । विवाह संपन्न हो जाने के
बाद भी विदाई से पहले 'वर वधू का "टीका "सब महिलाएँ करतीं हैं । देवी
देवताओं की आराधना का हिस्सा है टीका लगाना । कन्याभोज कराकर, उनको भी
तिलक लगातर नमन किया जाता है ।
अनेक पुरुष हैं जो प्रातः बिना ग्रहण करे स्नान पूजा करके 'इष्ट देव का
तिलक लगाकर ही दफ्तर या कार्य स्थल पर जाते हैं ।
दुकान हो या दफ्तर या घर लोग एक छोटे या बङे आले या कमरे में "अपने अपने
ईश्वर को पधार कर उनका तिलक आरती धूप दीप प्रसाद पूजा करके ही काम काज
शुरू करते हैं ।

तिलक पहले चंदन फिर हलदी फिर कुंकुम और फिर सिंदूर 'भस्म केशर 'और
गोरोचन आदि का लगाया जाता था ।
जिसके अपने अपने "आयुर्वेदिक उपचारात्मक काय चिकित्सा में लाभ भी कहे गये है ।
आज लोग "बॉडी स्पा "कराने मँहगे होटल रिसॉर्ट केरल के औषध पर्यटन केंद्र
में आते है दूर दूर देशों से । चंदन मिट्टी हल्दी फूलों का चूर्ण केशर और
अन्य "अरोमा 'पदार्थ का लेप इसका अंग है ।
हिंदू भी प्राचीनकाल में "उबटन करके रोज नहाते थे 'और मालिश करके चंदन
तिलक लगाकर कुंकुम टीका लगाते थे ।आपको विश्वास न हो तो एक दिन सप्ताह
में उबटन करके स्नान कीजिये, फूलों को गरम पानी में डालकर रखिये, ठंडा
होने पर उससे 'मिट्टी पोतकर मल मल कर छुटाकर नहाईये और असली चंदन को
पत्थर पर घिसकर तिलक लगाईये '।पूरा दिन आप सिरदर्द और तनाव से बहुत सीमा
तक बचे रहेगे ।और महकता तो रहेगा ही भीनी सुगंधि से आपका मुखमंडल ।इसे
पोंगापंथी बतानेवाले जाकर देखे कि 'उच्चशिक्षित धनाढ्य 'यूरोपियन अमेरिकन
और विदेशी गैर हिंदू तक आ आ कर किस तरह 'समझ और सीख रहे हैं प्रतिदन के
भारतीयों के 'स्वस्थ निरोग रहने के प्राचीन उपाय 'ध्यान, योग, और
जीवनचर्या 'आहार विहार के नियम ।
नहीं लगाना तो मत लगाओ न, 'कौन जबरन लगवा रहा है आपको!! परंतु दूसरों के
डर से न पोंछो ।

समय बदल रहा है लोग पहनावा वैश्विक फैशन से पहन रहे हैं और धार्मिक
प्रतीक घर मंदिर तक सिमट रहे हैं, माथे पर तिलक लगाने वाले भी अब, बाहर
निकलने से पहले तिलक पोंछ लेते हैं । क्योंकि मजाक उङाया जाने लगा है, उन
जगहों पर जहाँ, दूसरे धर्मों के लोग अधिक संख्या में रहते हैं ',परंतु
क्या हम केवल लोगों के डर से अपने मन के अनुसार जीने के मौलिक अधिकार
निरापद 'मौलिकताएँ भी खोते जायेंगे?
आप देखें कि बङे बङे इंजीनियर डॉक्टर प्रोफेसर तक जो मुसलिम है "माथे पर
बङा सा काला निशान बनाये रखना चाहते है, मसजिद की दहलीज पर माथा पटक पटक
कर नमाज की निशानी बतौर वहाँ की अगरबत्तियों की राख भी मलते हैं और चौखट
की धूल भी 'जो जितना काला निशान वाला उतना बङा नमाजी हर बात पर या खुदा
या अल्लाह इंशा अल्ला माशा अल्ला । क्रिश्चियन, गले में क्रॉस लटकाये
मिलेगे और बात बात सीने पर क्रॉस बनाकर पर ओ गॉड ओ गॉश कहते मिलेगे ।
उनके विवाह भी चर्च की रीति के ही अनुसार होते हैं और पारंपरिक परिधान के
साथ सारी रसमें भी निभायी जातीं है । जो लोग दक्षिण भारत गये होगें या
रहते हैं या बंगाल में उनको गहराई से पता होगा कि वहाँ "ईसाई बन चुके
आदिवासी परिवारों की स्त्रियाँ अब भी साङी पहनतीं और बिंदी लगाती हैं ।
बंगाल की मुसलिम स्त्रियाँ भी बिंदी लगा लेती है काँच प्लास्टिक या लाल
के अलावा अन्य रंग की । नहीं तो माथे पर माँगटीका 'बेंदी, झूमर और बोरला,
राँकङ, शीशफूल आदि भी विवाह या उत्सव पर स्त्रियाँ पहन लेतीं हैं ।
लता मंगेशकर, आशाभोंसले, मार्गरेट अल्वा, सुभाषिनी अली, शुभा मुद्गल,
श्रीमती ओमथानवी, कविता कृष्णामूर्ति, सुषमा स्वराज, स्मृति ईरानी, ऊषा
उत्थुप, सोनल मानसिंह, एम एस सुब्बुलक्ष्मी, तीजनबाई, मालिनी अवस्थी,
विजयलक्ष्मी पंडित, वसुंधरा राजे, रेखा भूमनवजैमिनी गणेषन, हेमामालिनी
'सुधा चंद्रन, वैजयंती माला, सुधा नवल, आदि हमारे देश की पहचान हैं और सब
की सब साङी पहनतीं हैं बिंदी भी लगाती है ।
क्या इस वजह से इन सबका उपहास होना चाहिये कि ये ''भारत के हस्तकला
कारीगरी की चंदेरी बनारसी हैंडलूम, बंगालताँत, कांथा,वाणीजयराम,
सुभद्राकुमारी चौहान, कोटाडोरिया, साऊथसिल्क, कोसा, सूती कलफ वाली आदि
साङियाँ पहनतीं हैं!!!
क्या इस सबसे उनकी बौद्धिकता उपलब्धि हुनर और देश के लिये उनकी उपयोगिता
कम हो जाती है??
माना कि 'आज का युग बदलता समय कार्य की तेजी और जॉब नौकरी रोजगार की
शर्तों के साथ स्त्री पुरुष सबका जीवन बदल गया है । लङकियाँ लङके सब
भागदौङ करते रहते हैं परंपरायें पीछे रह गयीं हैं और जरूरतें हावी है ।
तो भागो और दौङो और अपने अपने लक्ष्य पाने के लिये जुटे रहो,, परंतु ये
अधिकार किसी को भी नहीं कि वह दूसरों की मान्यताओं पहनावे और परंपराओं या
पसंद नापसंद का मजाक बनाये उसे पिछङा या 'प्रतीक रूप में
"बिंदी साङी " वालियाँ कहकर व्यंग्य कसे!!!!
कोई गाँव की स्त्री जब 'हमें बलकटी "कह देती है तो समझ में आता है कि
उसने अभी नगर नहीं देखा, बाईक या कार चलातीं स्त्री नहीं देखी और नहीं
देखा ऐसा वातावरण जहाँ बेटियाँ बेटों की तरह रहती है और पति पत्नी सास
ससुर एक टेबल पर भोजन करते हैं । वह अपराधी नहीं 'अंजान है 'और इसीलिए
उसकी हर बात तब तक क्षम्य है जब तक कि वह कोई हानि या अपमान करने के लिए
कुछ नहीं कर कह या जता रही 'या रहा हो । परंतु भारतीय वातावरण में रहकर
पले बढ़े पढ़े और कामकाज कर रहा व्यक्ति चाहे हिंदू हो या अन्य धर्म से,
चाहे स्त्री हो या पुरुष या अन्य लिंग , किसी की भावनाओं या कार्यव्यवहार
पर चोट पहुँचाने मखौल उङाने उनको धर्मविशेष का होने या पहनावा पिछङा होने
का 'या उनके कार्य की आलोचना के लिये भी ''बिंदी साङी वालियाँ "कहकर मजाक
बनाये या व्यंग्य करे यह एक "वाचिक हिंसा है "अपराध है वैचारिक दबाब है
कि वे 'बिंदी लगाना त्याग दें और साङी पहनना छोङकर अन्य वस्त्र पहने ।
हम अपनी मरजी चाहे जो पहने खायें करें यह अधिकार जिस तरह हमारे समाज और
संविधान ने दिया है उसी तरह हर तिलक लगाने वाले को ',कलावा बाँधने वाले
को 'टीका बिंदी त्रिपुंड, आदि लगाने वाले को, सिंदूर साङी चूङी चोटी
जनेऊ आदि अपनाने वाले को पूरा अधिकार है कि वह जैसे चाहे रहे । सिखों ने
कनाडा अमेरिका फ्रांस तक में पगङी पहनने के हक की लङाई लङी और जीत भी ली
। क्या उनकी पगङी उनके विकास में बाधक है? अनेक मुसलिम डॉक्टर इंजीनियर
वकील पत्रकार और प्रोफेशनल नमाज का काला निशान बनाये रखते हैं माथे पर
गोल टोपी पहनकर मसजिद जाते हैं दाङी भी रख लेते हैं तो क्या यह उनको
कार्य जॉब या प्रोफेसयशन के कमी बेशी त्रुटि के लिये "निंदा "मजाक या
व्यंग्य का मुद्दा है?? क्यों केवल खासकर "हिंदू पहनावे रीति रिवाज
मान्यताओं और प्रतीकों को जानबूझकर खुद हिंदू ही प्रगतिशीलता के नाम पर
व्यंग्य मजाक और उपहास निंदा का मुद्दा बनाते हैं किसी अन्य गलती है भी
या नहीं की चर्चा के लिये??
क्या इससे करोङों लोगों की जो पूरी पृथ्वी पर फैले हैं "भावनायें "आहत
नहीं होतीं? यह हिंदू ही है जो अपने प्रतीकों संस्कारों का इतना 'उपहास
निंदा व्यंग्य सहन भी कर लेता है और कर भी लेता है । परंतु कुछ बात है कि
हस्ती "मिटती नहीं हमारी ।
©®सुधा राजे
पढ़े हमारा ब्लॉग '
''गूँगे रुदन जंगली गीत "

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