Wednesday 4 June 2014

सुधा राजे का लेख - "" समाज और परंपराएँ।""

समाज की ""वैज्ञानिक आवश्यकताओं
को पुराने वैज्ञानिकों ने जब व्यापक
समाज के आवश्यक समझा तब उसे धर्म
से जोङ दिया """"
कालान्तर में ऋषियों के स्थान पर
ढोंगी साधु रहने लगे जो वही सम्मान
चाहते थे किंतु न शोध करते थे न
ज्ञानार्जन और वितरण """""
परिणामस्वरूप भारतीय स्वस्थ
परंपरायें वैदिक रीतियाँ """विकृत
""होतीं गयीं """"स्वार्थी शोषक
कुटुंबियों ने उसे घृणित
बना डाला """"
यथा """
रजस्वला स्त्री से मिट्टी के घङे न
छुआना
रसोई न छुआना
परोसना पकाने धोने और पूजा के
कार्य न कराना """""
यह एक स्वस्थ परंपरा थी """"
उसे घृणा में बदल दिया गया """"
आज सब जानते हैं कि """"दूषित
सामान छूने से टीबी फैलती है """
दैहिक स्राव से संक्रमिक रोग फैलते हैं
"
दैहिक स्पर्श से स्वाईन फ्लू
"""हेपेटाईटिस फैलते हैं ।
खसरा और तमाम रोगों के कीटाणु ।
स्पर्श साँस और भोजन जल बिस्तर से
फैलते हैं ।
अब लोग तनिक सा चिकित्सकों पर
दृष्टिपात करे ""
नाक मुँह दवा से धुले कपङे से ढँके हैं ।
हाथों पर दास्ताने है । औऱ देह पर
एप्रिन है ।
ये सब वे घर जाने पर चिकित्सालय में
ही छोङ जाते हैं ।
और अदर के वस्त्र सब कीटाणु नाशक
तरल में धुलवाते हैं """"
क्यों???
एक गृहिणी का भी चिकित्सक
जैसा ही दायित्व है घर परिवार में
सबके प्रति और चुनौती है स्वयं के
लिये भी स्वस्थ रहने की """
सहायता मिलती रही ऋषियों के
बनाये नियमों से """"""
आज किसी भी महिला चिकित्सक के
पास जाईये ""बहुत
सी स्त्रियाँ """""केवल मासिक धर्म
की गङबङी के निदान की औषधि के
लिये आती हैं """""
यह तथ्य है कि "बारह से सोलह के
बीच की आयु में लगभग सब
लङकियों को रजस्वला होना है ।
प्रतिमाह तीन से पाँच दिन ।
ये लङकियाँ बच्चियाँ हैं नादान और
पढ़ने लिखने वाली खेल कूद में रूचि लेने
वाली ।
लगभग पचपन साल से साठ साल तक
स्त्रियाँ रजस्वला होने से
मुक्ति पाती हैं ।
ये वे स्त्रियाँ हैं
जो प्रायः नाती पोतों वाली हैं ।
परिवार में दिन हो या रात ।
शीत ग्रीष्म हो या पीवस हेमंत बसंत
',
स्त्रियाँ हर आयु की स्त्रियाँ ही तब
"""पनघट से पानी लाना 'आटा घर
पर चक्की से पीसना "तालाब
नदी पर जाकर वस्त्र धोकर
लाना 'चरखा करघा चलाकर वस्त्र
बुनना "खरल बट्टे ओखली मूसल से
मसाले अनाज कूटना, सिलबट्टे से
पीसना ।लकङी काटकर लाना ।चूल्हे
पर पकाना ।काले बरतन राख रेत से
माँजना ।गोबर
लीपना मिट्टी चढ़ाना ।चूल्हे
घङौँची बनाना ।
ढोरों की कुट्टी गोबर
सानी करना दूध
निकालना दही बिलौना। सिलाई
कढ़ाई बुनाई कताई "रफू और
कथरी गुदङी रजाई तागना।
बुआई कटाई
उङावनी फटकना किराना परोरना बीनना करना ।
सब स्त्रियों के हवाले थे ।
रजस्वला स्त्री "पेट पेङू
पिंडलियों कमर के दर्द से परेशान ।
रक्ताल्पता मितली मूड चिङचिङापन
अनिद्रा मंदाग्नि से परेशान ।
शरीर थका और मन डिप्रेशन अवसाद
में दुखी।
बार बार अंतः वस्त्र बदलना हाथ
धोना।नमी और बेतरतीब
दिनचर्या हो जाना।
यदि "कहते कि हर महीने सात दिन
कार्य पुरुष करेंगे
तो झगङा हो जाता।
किंतु ये बात कमजोर इम्युनिटी के
दौर से गुजर रही स्त्री को बचाने के
लिये थी।परंतु पुरुष अहं को बनाये
रखने के लिये नियम
बनाया कि ""ऋतुमती को स्पर्श करने
और उसकी बनायी रसोई का भोजन
लेने से "सेवा कराने से बल बुद्धि आयु
क्षीण हो जाते हैं।
हमें याद इन "सात
दिनों "की छुट्टियों की भाभियाँ प्रतीक्षा करतीं जब
घर के पुरुष रसोई में या फार्म पर
पिकनिक मनाते ।
घृणा ही नहीं होती हर बार स्पर्श
न करने का कारण
स्वास्थ्य भी होता है
अब सब दिन वर्किंग डेज
©®सुधा राजे
511/2, पीताम्बरा आशीष
फतेहनगर
शेरकोट-246747
बिजनौर
उ. प्र.
मोबाइल नं- 9358874117
ईमेल - sudha.raje7@gmail.com

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