सुधा राजे की कविताएँ:- काँच की कलाइयों वाले लोग ।

1. एक दिन सारे बबूल भर जायेगे
बबलियों की लंबी सुराहीदार
खूबसूरत गरदनों के चारों तरफ
लिपटे फटे दुपट्टों के ऐंठ कर काले
हो चुके रक्त वाले हारों से
और तब तक सब "शरीफ "खोज चुके
होगे माँदे खिङकियाँ खाटों के तले
टाँड छप्पर दुछत्ती छिपकर
""बबलियों की चीख पुकार मदद
की टेर सुनते रहकर उठ न पाने के
लिये,,
चोटी घसीटते हाथ, तबदील हो चुके
होंगे काँच की कलाईयों में
चूङियाँ टूटकर अपनी जरूरत खत्म
कर चुकीं होगी
दरवाजे धकियाकर बबलियाँ खीच
ली जायेगी और तेजाब ही तेजाब
बेईन्तिहा खूबसूरती पर
जलता सङता भभकता रहेगा और
हर तरफ होगी ""रूहें ""चीख कर दम
तोङ चुके मादा जिस्मों की ।
""भले ""लोग"" न गवाही दे पायेगे न
गुनहगार को पहचान पायेगे और
गालियाँ बनकर रहचुकीं औरतें
मादा होने का नर्क
भोगती हुयी प्रेतात्माओं में तबदील
हो चुकीं होगी ।
तब सिर उठने से पहले काट दिये
जायेगे और रस्सियाँ बुनकर झूले में
रखने लगेंगी पिशाच मादायें
ताकि बबूलों पर दुपट्टों की जरूरत
ही न रहे सारे पेङ काटकर तखतों में
बदल दिये जायेगे जिन पर बैठे होंगे
लंबे कपङों वाले झक सफेद लोग
और पाये रख दिये जायेगे "शरीफ
लोगों के पौरुष पर
तब सिर्फ दो ही नस्ले रह
जायेंगी प्रेत मादा रूहें और
रक्तपायी जीव ।
तब तक गाँव के गाँव सन्नाटे रहेगे ।
जंगलों में खींचकर ले
जायी गयीं मादायें दूसरे दिन खाने
बरतने के लिये तखतों के छपरखट पर
टाँग दी जायेंगी """""""
ईश्वर करे ऐसा कभी न
हो """""लेकिन काश ऐसा होना कोई
ईश्वर रोक सके """"
अब सब औरतों को ""न राखियों में
भरोसा है न संदल और सिंदूर पर """
वे जो प्रेत बन चुकी है जिंदा और
मुरदा मादायें
""""वही जलती लकङियाँ उठाकर
थमा सकतीं हैं जिंदा बच
गयी लङकियों के हाथों में वे रूहें
जो चूङी नहीं पहनती क्योंकि
काँच में तबदील हो चुके है सब भले
लोग
और शरीफों की बस्ती में उनके
कपङों से झाँकती आँखों से छोटे
सुबूत उनकी नग्न लाशों पर कफन
डालने को ही निकलते हैं
बाहर खाटों के नीचे किवाङों के पीछे
दुछत्ती और टाँड पर से
फूलती पिचकती साँसों के साथ
कहीं "मादा होने का कर्ज वसूलते
""शरीफ लोग
"कमजोर हाथों से अब
कभी उठा नहीं पाते चूङियों का बोझ
इसलिये जंगलों की तरफ से
चीखती आवाजे बस्ती के बीच से
उठने पर भींच लेते है आँखे
लंबे सफेद कपङों वाले लोग "तखत
पर साफ करने को दुपट्टों के टुकङे
पाँव पोश बनाये जाने लगे हैं ।
घर घर जहर गमलों में उगाने लगीं है
मादायें "ताकि फिर बबूलों के पेङ न
मिलें तो बबलियाँ बियारी करके
चुपचाप सो जायें ।
और जला सकें लाल कपङे सबके
सब मेंहदी के पेङ """"
"कोई डरना मत
खाईयों तालों नदी नालों सब जगह
मादा रूहें पहरा देने लगीं है
कुचले हुये जिस्मों से निकलकर
सभ्यताओं का इतिहास लिये ।
"काँच की कलाई वाले भले
लोगों को अब जरूरत नहीं दुबकने
की न अपनी जगहों से निकलने
की ""




2. मानती है अब तक 'बबली 'शहर में
सब भले लोग रहते हैं और हर दिन
हठ करती है बाबा दादा से शहर
चलने की अपने लिये गाँव
की मङैया में ताला लगाकर गाय भैंस
बेचकर पढ़ाने लिखाने और किराये
की खोली में रहकर मेहनत
मजूरी करके "नर्स "बनने
की "चाहती है "गोलू को मास्टर
बनाना ',
पर बाबा नहीं मानते
क्या खायेंगे कहाँ रहेगे और
क्या होगा गाँव के खेत
मङैया गेंवङा चौंपों का ',
बबली पाठशाला नहीं गयी इसलिये
गोलू जाता रहा ।और अब
बबली कभी कहीं नहीं जायेगी ।
जा रहें हैं बाबा दादा और अम्माँ ।
खेत बटाई पर देकर मङैया और चौंपे
बेचकर ।
रहेगे किराये की खोली में ।
पढेगा गोलू और रिक्शा चलायेंगे
बाबा ।
दादा कारखाने में चाय बनायेंगे
अम्माँ बरतन माँजेगी ।
बबली अब कभी नर्स नहीं बन
सकती क्योंकि चंद रोज पहले कुछ
भले लोग छिपकर रुक गये थे
किवाङों के पीछे ।
जब बबली छुङा रही थी काँच
अपनी कलाई के टप टप टपकते लहू
की धार के बीच माँस में
धँसी "उम्मीद "के साथ "
कि वह गाँव के भले
लङकों की मुँहबोली बहिन लगती है
और मुँहबोली बेटी लगती है उन
औरतों की जो लौट गयीं उलटे पाँव
चारा लेकर आतीं '
उसे देखकर "सहेलियाँ बुलाने "
नर्सों ने रख लिये है अवशेष और
मास्टर जी ने नाम काट दिया है
रजिस्टर से कब का ।
जिनका वे सब 'पहले 'से ही बुरे लोग
थे गाँव में चरचा है ।
लेकिन "गोलू "पूछना चाहता है
कि इतने भले लोगों के बीच चंद बुरे
जानवर "बिना बाँधे डाँटे कैसे बच
रहते हैं ।
वह अब मास्टर नहीं बनना चाहता "
उसके हाथ में टूटे काँच का एक
टुकङा है ।
और
किसी लोहे पर जङना चाहता है वह
ये रक्त भरा टुकङा ।
ताकि
रोज याद कर सके "
गोलू भईया
खावे लईया
चना चबैना
मैं तेरी बहिना
""""
एक भी भला आदमी गोलू से
बोलता नहीं है और
सब लोगों ने पिलखन वाली नहर के
किनारे जाना छोङ दिया है ।
बबली
की आवाज़ गूँजती है ''काका बचाओ
भईया मैं तुम्हारे गाँव की बहिन हूँ
मुझे जाने दो """"
"""""शहर में एक दीवार पर पोस्टर
लगा है """जब एक लङकी मार
दी जाती है तब एक सभ्यता एक
गाँव एक पूरे नगर की आबरू आँख
का पानी मर जाता है यह
स्त्री का निजी मसला नहीं समाज
की हत्या का अपराध है "
©®सुधा राजॆ
address -
511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
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u.p.
mob- 9358874117
7669489600
email- sudha.raje7@gmail.com
education:- m.a., l.l.b., m.j.m.c.
सहस्त्राधिक लेख कहानियाँ गीत कविताएँ यत्र तत्र प्रकाशित
उपन्यास प्रकाशनाधीन
सम्प्रति :- लेखक एवं फ्रीलांस पत्रकार

यह रचना पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित है ।

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