लेख:कठोर खुरदुरे हाथ
खुरदुरे कठोर हाथ
.................सुधा राजे
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गुलाबी पाँव गुलाबी कान गुलाबी हथेलियों वाले नरम पिलपिले बच्चे बनाकर नहीं पाला गया था हमें ,पारिवारिक जीवन शैली कठोर थी और वारियर्स लाईफ बीहड़ों जंगलों खेतों से सरकारी बँगलों तक का सारा वातावरण ही कठोर था । न दिन में सोना न सूर्योदय के बाद बिस्तर पर पड़े रहना । कौन बैठता था कमरों में दिन भर दौड़ कूद व्यायाम या कठोर दिनचर्या । स्कूलों में भी तब डंबल लेझिम कबड्डी खो खो भाला गोला लंबी कूद ऊँची कूद परेड चलते रहते ।
कई किलोमीटर यूँ ही दौड़ जाते कई सौ मीटर पहाड़ यूँ ही चढ़ उतर जाते नदी ताल जंगल बाग खेत सब बचपन से ही मित्र बन गए थे ,पसेरियों भर सब्जियाँ कटतीं ,मन मन भर आटा चावल पकता ,सब मिलकर सहायता करते सहायकों की ।
समय बदला स्थान बदला परिवार बदला ,कठोर शैली का अभ्यास नहीं गया ,भोर से देर रात तक कुछ न कुछ तो करना ही है ,और उस परिवर्तन का परिणाम बाग बगीचे खेत सब्जी फल की फसल के रूप में दिखने लगा ।
गुलाबी नरम नाजुक बदन नये नाते रिश्ते वालों को परेशानी होती ,दिन में दोपहर होते ही सो जाना । शाम होते ही खा लेना ।
बहुत सुनाते लोग "काली हो गयी धूप में बगीचे में खुरपी लेकर जुटी रहती है चैन नहीं "
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हमने देखा ऐसे नाते रिश्तेदारों को परायी चिरौरियाँ करते ,तनिक काम काज बढ़ने पर घबराते ,स्त्री घर में न हो तो सबकुछ होते हुयेलभूखा मरते और नौकर छुट्टी पर हो तो नरक सा घर पड़ा रहते ।
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कोमल होना
प्रसंशा का विषय बनाया गया ही नाकारा करने के लिए है । जो पुरुष शायरी और साहित्य सिनेमा और सगाई तक कोमलता की ललक में रहते हैं वही ,जब समय पर खाना ,धुले कपड़े ,घर साफ नहीं मिलता तो बिलबिलाते हैं ,गुलाबी नरम हथेलियाँ ये सब नहीं कर सकतीं ।
लंबे नाखून गुलाबी हथेली तसवीरों में ही सुहाती है ,अस्सी किलो चावल दो क्विंटल अनाज कई पसेरी दाल फटक कर चुपचाप ससुर जी तेरहवीं के लिये जब हमने रख दिया ,तब आईँ सहायिकाएँ ,और बहुत हाय हाय करने लगी ,ठेठ पड़ गयीं खरोंच लग गयी राम राम क्या जरूरत थी ,
!!!!सवाल जरूरत का नहीं अभ्यास का है ।
हमने सोच लिया कि अपने गुलाबी रिश्तेदारों की तरह अपनी संतान नहीं बनानी नाजुक पराश्रित । 6 माह से ही हमारा प्रशिक्षण जारी हो गया ,दूर सामान खिलौने रख देते ,साहस करो प्राप्त करो । भोजन पकाना हो खेतों पर दर्जनों मजदूरों के साथ गन्ना काटना बोना खाद बिखेरना हो ,या घर की गाय भैंस को नहलाना पानी पिलाना हो सेवकों सहायकों के साथ बराबरी से हाथ बँटाते रहे बच्चे । एक दिन यूनिवर्सिटी पहुँच गये हमसे सैकड़ों किलोमीटर दूर । वहाँ से मदर्स डे पर एक वीडियो भेजा हमारे लिये ""थैंक यू माँ ""। वहाँ एन सी सी पढ़ाई कैंप गेम्स हाॅस्टल सबके बीच तालमेल और सीजीपीए का भी पुरस्कार लेना आसान न होता ,यदि आपने हमने मिट्टी न उठवाई होती पेड़ों पर न चढ़ाया होता ,खेत न दिखाये होते, बंदूक न चलवाई होती ,कुल्हाड़ी दरांती हँसिया चाकू खुरपी पेंचकस बेलन झाड़ू चिमटा प्लायर्स स्पानर कन्नी आरी हथौड़ी न थमाये होते ।फ्रैक्चर हो गया टाँग में और हम ट्रैंनिंग करते रहे ,एक भी संकट पड़ता वार्डन हमें पुकारती , हमने कई हजार रुपये फेस्टिवल में गुझिया समोसे कचौरी पूरी गट्टे की स्टाल लगाकर कमा लिये और होटल के मास्टर शैफ ने विधि पूछी । थैंक यू माँ सा ।
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वह फोन काॅल वह वीडियो हमारा पुरस्कार है ,उस पीड़ा का जो बच्चों को बेढंगा काम करते थकते देखते और सहायक बिलबिलाते "रहने दो हम करते हैं "हम मुँह छिपा कर बहने को आतुर आँसू वापस पी जाते और फिर कैसे सही करना है समझाते , दो नंबर कम मिलते परंतु सारे प्रोजेक्ट बच्चे स्वयं करते ।
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डरो
बच्चों को लगती खराशों या पड़ती ठेठों से नहीं । कठोर यथार्थ की धरती पर पड़ती जरूरतों की परीक्षाओं से गुलाबी नरम नाजुक चीजें धूप में कुम्हला ओंस से गल बारिश से बह और आँधी में उड़ जातीं हैं ।
परमुखापेक्षी पराधीन पराश्रित न बनायें बेटा हो या बेटी ,हर काम जो सामने पड़े सिखाते जायें
©®सुधा राजे
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