विचार: :

कितने आदमी थे रे !!!!
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लोकतंत्र में संख्याबल पर ही सारी ऊर्जा केंद्रित हो जाती है !!
क्वालिटी ओपीनियन अर्थात गुणवत्तापरक विचार अभिव्यक्ति  या क्वालिटी प्रोडक्शन अर्थात् गुणवत्तात्मक रूप से श्रेष्ठ निष्पत्ति का मायना ही समाप्त हो चला है ।
आपके लिये कितने श्रोता? कितने वोटर ?कितने फोलोवर ?कितनी भीड़? कितने दर्शक ?कितने समर्थक ?यही आज का लोकतंत्र है ।
जबकि सत्य निर्द्वंद्व अकेला और निरावृत साहस होता है।
सत्य हारा न हो परंतु बहुत परेशान है हर स्थान पर शंख फूँकते मायावी लोग हैं जो सत्य का स्वर दबा देते हैं जयकार या हाहाकार में न तो रुदन सुनाई देता है न ही सृजन दिखाई देता है ।
एक कोलाहल है हर तरफ लोग एक विषय किसी के चिंतन का चुराकर उसको इंटरप्रेट यानि अपने मन के हिसाब से तोड़ मरोड़ कर कुछ और रंग रूप भाव देकर प्रस्तुत कर देते मौलिक चिंतन के रूप में वह जो ठेठ मौलिक सृजक है कहीं बँधा परिस्थियों की अदृश्य रस्सियों से सोचता रहता है कोलाहल सुनता रहता है बंद कोठरी में और सुन लेता है उसमें पैरों तले कुचले अस्तित्वों के विलाप सहायता की पुकार नेपथ्में चलते षडयंत्र और मूक प्रतिरोध को लड़ता शांकुतल भरत साहस । प्रतीक बौने हो गये प्रतिमान सब आत्माविहीन और हावी होने लगा है सत्य की ऊर्जा पर संख्याबल कौन कहता है सत्यमेव जयते !!सत्य सुकून से मरे या घुट घुट कर जिये यह कोई नहीं चाहता कि वह सामने आये क्योंकि वह जो अनुभव तुमने लिखा था संस्मरण के रूप में वह तो कथा उसकी थी ,वह जो उपलब्धि तुमने मंचों पर लूटी वाहवाही करके वह दर्द यातना से उपजा गीत उसका था ।
भीड़ कहती है जिसे नायक वही होता जाता है और नेपथ्य में घायल अस्त्र शस्त्रों से बिंधा सबके लिये चुपचाप लड़ता सत्य मरने को एकाकी रह जाता है । हर बार कहावतें सच्ची नहीं उतरतीं वरना मेरी डायरियाँ यूँ  भीड़वाली दीमकें नहीं चरतीं ।©®सुधा राजे

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