लेख:पश्चिमी उत्तरप्रदेश, जैसा मैंने देखा, एक एलियन की दृष्टि से
#YogyAadityaNathJI
पश्चिमी उत्तरप्रदेश :जैसा मैंने देखा ;एक एलियन की दृष्टि से
.....कथा एक प्रवास की ,(सुधा राजे )
अगली किश्त ......25/2/2018/
नशे और हिंसा की गिरफ्त में जकड़ा हरा भरा क्षेत्र
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आप जब कहीं भी इस क्षेत्र में सड़क या रेलमार्ग से निकलें तो एक पौधा सर्वत्र दिखाई देता है "भाँग" जिसे विजया भी कहते हैं ,बरसात के बाद पूरा क्षेत्र भाँति भाँति के खर पतवार से भर जाता है जिसमें "भाँग ,पटेरी ,फूस ,पार्थेनियम यानि गाजरघास ,अरंड ,आक मदार और विविध प्रकार की घास है । स्थानीय लड़के हर आयु के जब देखो तब भाँग का पौधा मल कर रगड़ते रहते हैं दोनों हथेलियों से ,रस जब हरा हरा चिपक जाता है तो बालों पर पोत लेते हैं ,फिर रगड़ते हैं ,और जब वह रस सूख जाता है तब गोली सी बनाकर चिलम या बीड़ी सिगरेट हुक्का आदि में धरकर पीते हैं ,इसे "सुल्फा "कहते हैं दस वर्ष से नब्बे वर्ष तक के श्रमिक कारीगर कृषक मजदूर अधिकांश या तो सुल्फा पीते मिलते हैं या गाँजा ,शेष को देसी दारू ऐसे है जैसे चाय पानी रोज की बात । दो दशक पहले हमने इस क्षेत्र में शराब की दुकानें घनी बस्ती मुहल्लों आदि से हटवाने के लिये आंदोलन प्रारंभ किये थे तब सोशल मीडिया नहीं था डायल वाले एक्सचेंज के नियंत्रित फोन चलते थे फिर अखबारों में हमारे सामाजिक सुधार अभियान सुर्खियों में रहे और सब को आश्चर्य भी लगता था कि "स्त्री?वह भी इस क्षेत्र की !!ये कैसे संभव है । कारण यही कि तब तक स्त्रियाँ या तो काले बुरके और लंबे घूँघट में बंद रहतीं थीं या गन्ना छीलने ,गेहूँ काटने ,निराई गुड़ाई करने घास लकड़ी लेने मुँह छिपाकर जंगल खेत जातीं थीं । सन्ध्या होते ही पुरुष शराब में धुत्त होने जगह जगह झुंड बनाकर पीने और झगड़ने लगते ,और रात होते ही घर घर से मारपीट चीखपुकार रोने कलपने की आवाजों के साथ भीषण गंदी गालियाँ हवा में कौंचने लगतीं ,अकसर किसी न किसी परिवार में सुबह कोई या तो पुलिस चौकी पहुँच जाता या झोलाछाप डाॅक्टर के पास । इन दो आँखों से यह सब देखा भी और मरहम पट्टियाँ भी कीं कभी सिर फोड़ लिये भाईयों की कभी ,नीले हरे दाग लिये कराहतीं मजबूर स्त्रियों की । असहनीय पीड़ा सहतीं उन सब स्त्रियों की एक एक कहानी दर्द का पूरा महाकाव्य है , गुस्सा उस दिन फट पड़ा था जब नंगे होकर शराबियों ने छत पर उत्पात मचाया और बस्ती की मजबूर स्त्रियों ने पुराने कपड़ों की दरी पर लेटी लड़कियों को भरी गरमी में कोठरी में सुलाया ,आधी रात को वे सब मेरे पास आयीं ,और शराबियों से पिटीं कुटीं सैकड़ों स्त्रियाँ भभकर रो पड़ीं ,किसी की साड़ी गिरवी रखी थी किसी की पायल किसी के कुंडल तो किसी के बिछुये ,हद तो यह थी कि उनमें एक दो इतने गिर चुके थे कि परिवार की स्त्री तक के साथ होती हद दरजे की अश्लीलता केवल इसलिये सह रहे थे कि वह दोस्त "दारू पिलाता है"। उस बस्ती को जब देखा तो बहुत देर तक रोते रहे हम । फिर दर्जनों गाँवों में यह लहर चल गयी जैसे ही यह पता चला कि हमने वह शराब की हट्टी बस्ती से हटवा दी ,एक के बाद एक गाँव की स्त्रियाँ बागी होती गयीं ,साथ में थे किशोर किशोरी बच्चे , बाद में हम एक सड़क दुर्घटना के शिकार हो जाने पर बुन्देलखंड स्वास्थ्य लाभ के लिये चले गये और वह क्रम नेतृत्व विहीन होकर दिशाहीन राजनीति का शिकार हो गया । ये तब की बात है जब राज्य में बसपा की सरकार थी ।
होता क्या है कि हर वर्ष किसी न किसी प्रकार का चुनाव तो होता ही है । सांसद ,विधायक ,एम एल सी ,पंच ,प्रधान ,वार्ड मेंबर ,चेयरमैन ,गन्ना सोसायटी, और तरह तरह के मंडल समिति आदि ,इस क्षेत्र की यही विचित्र दुखद परंपरा है कि छोटे से छोटा चुनाव तक लाखों रुपये की सौदेबाजी बन जाता है । चुनाव शुरू होते ही औसतन हर पुरुष नशे में धुत्त दिन हो या रात लड़खड़ाता दिखने लगता है , कहीं कहीं तो नाली में गटर में कीचड़ में घूरे पर कूड़ी पर खेत सड़क बाजार में पसरे शराबी मिल जाते हैं ,और यह बड़ी साधारण सी बात है । लोग निकलते रहते हैं हँसते रहते हैं ,पहले हर एक के पास मोबाईल नहीं था ,अब हैं तो यदा कदा वीडियो फोटो भी बनते रहते हैं और इसकी पकड़ में कभी कभार वरदी वाले भी आ जाते हैं । अब तक इस क्षेत्र का हाल यही रहा है जैसे अघोषित घोषणा हो
""आगंतुक अपनी अपने सामान की अपनी मान मर्यादा नैतिकता की स्वयं रक्षा करें ""
कहने को तो मुसलिम शराब नहीं पीते पीना हराम है ,किंतु आप मजे से शादी वलीमा दावत मीलाद या अन्समारोहों पर जमकर मँहगी या सस्ती शराब पीते हुये उनको भी देख सकते हैं ,बस यह तनिक परदे के भीतर का मामला है सड़क पर कुछ कम नसीब गरीब मुसलमान मिलेगा नशे में ,तो वहाँ गाँजा सुलफा अफीम और हाँ मेडिकल वाली नशा कारक औषधियाँ तो हैं ही । स्त्रियों का भी बहुत बड़ा प्रतिशत बीड़ी हुक्का और घूँघट में शराब पीने का लती पाया जाता रहा है ।
शराब को दवाई "कह देता है कारीगर मजदूर ,क्योंकि बहुतायत रोजगार पुताई या पेंटिंग ब्रुश कारखानों ,सीमेन्ट गोदामों ,रूई धुनाई कताई ,पेपर मिल ,कबाड़ी रिसाईक्लिंग लोहा गलाने की फैक्टरियों ,गैराजों ,खेतों खलिहानों की गहाई कटाई दाँय उसाँय ढुलाई नलाई ,आदि में है। जिनमें बारीक बाल ,धूल ,कण ,रेशे ,आदि कंठ साँसनली में चले जाते हैं ,उनको साफ करके पेट में उतारने से गला साफ रहता है फेफड़ों में नहीं जाती गंदगी ,ऐसा कहकर तर्क देते हैं सब पियक्कड़ । इन कारखानों में नाबालिग बच्चे भी बहुतायत काम करते है, हमने छोटे छोटे प्रयास चुपचाप तंत्र को सूचना देकर ,लिखकर ,समझाकर किये तो कुछ हद तक सफल भी हुये परंतु अपना नाम हम नहीं ला सकते थे तब सामने ,और दायित्व बहुत थे ,सो यह कार्य पूरा नहीं हो सका ,आज भी ,बच्चों के नाम तो स्कूल में लिख जाता है परंतु जाते वे कारखानों में ही हैं वह भी आधी मजदूरी पर ,और यह कहने की शर्त पर कि यहाँ मजदूर नहीं हैं काम सीख रहे हैं ,क्योंकि आधी मजदूरी भी तीस रुपये घंटे से बीस रुपये घंटे और पक्का होने पर तीन हजार से पाँच हजार रुपये महीने तक होती है जिसका लालच त्यागना सरल नहीं है ।
नशे की सबसे खतरनाक शिकार कम पढ़ी लिखी किंतु तनिक ठीक ठाक रहन सहन वाली लड़कियाँ हैं ,हमने देखा कि नर्स का काम सीख रही एक लड़की ,जब हम एक अधिकृत चिकित्सक के यहाँ भर्ती थे तब स्वयं ही अपने हाथ पर इंजेक्शन लगा रही थी ,वह दवाई जो प्रसव पीड़ा के अतिशय दर्द होने की भयानकता पर तनिक राहत के लिये लगाया जाता है । कुछ मेडिकल स्टोर जिनके संचालक प्राय:कम पढ़े लिखे हाईस्कूल या इंटर तक पढ़े लड़के हैं ,लायसेंस तो होलसेल का है ,बेचते दवाई रिटेल में हैं ,नशे के तत्व वाली खाँसी की दवायें ,एनलजिसिक और प्रतिबंधित दवायें जो केवल चिकित्सकीय परामर्श से ही दी जा सकतीं है ,सीधे ही माँगने पर दे देते हैं ,एक लड़की रोज कई सारी डायजीपाम खा जाती थी ,शादी के बाद आयी मिलने तो हमने पूछा कैसे चल रहा है अब ?बोली चालू है अब नहीं छोड़ सकती ,ये तनिक पुरानी बात है ,परन्तु गुटखा बीड़ी सिगरेट कच्ची पक्की शराब भाँग और नशे की दवाईयाँ ,अनपढ़ मजदूर मेहनत कश छोटे रोजगारों में लगे लोगों में सबसे अधिक हैं । मज़ाल है कि बाराती रवाना हो लें जब तक मूलाधार से नाक तक दारू न ढँकोस लें । बारात की घुड़चढ़ी दूल्हे के घर से ही विलंबित चलने की परंपरा ही दारूबाजों की मेहरबानी से है और यही सबसे आकर्षण की शै है शादी में जाने की उनके । लड़की वालों के दरवाजों पर बारात डेरे से सजकर निकलती बारात घंटों पागलों की भाँति नाचती सड़क पर लोटपोट होती लड़कों की प्रतियोगिता बन जाती है कि कौन कितनी पी सकता है कितना कूद कर लोटकर नाच सकता है कितनी देर तक सड़क पर लोट पोट हो सकता है कितनी अश्लीलता कामुकता अभद्रता दिखा सकता है । बाराती पियक्कड़ों का नाच देखने लायक तक नहीं होता न बच्चों के देखने लायक फिर भी स्त्रियों के लिये वही छिपकर देखने का मनोरंजन है और लड़के तुक तुक कर देॆकते हैं कहाँ लड़की है कोई ,उसी जगह फिर लोटपोट नंगई ,। गीत तो चलते ही हैं हरियाणवी पंजाबी और सिनेमाई अश्लीलता के परम अमर्यादित बोलों वाले तो युवक क्या बूढ़े तक कपड़ा फाड़ डांस करने लगते हैं । इधर कुछ वर्षों से डीजे अवतार हो ही गया है सो वहाँ जयमाला स्टेज के सामने यदि डी जे नहीं लगाया तो बारात लौटती तक देख ली हमने । डी जे पर बारात आते ही ततैया काटे वाला पागल डांस चालू हो जाता है ,जिसमें जमीन पर कपड़े उतारकर लोटना सबसे चरम गति है ,। इसी में अब दूल्हा निकासी पर घर की स्त्रियाँ भी नाचने लगीं है ,और दुलहन के दरवाजे पर भी बारात में जाने वाली स्त्रियों का नाच जमकर वीडियो लुटते रुपये और रुपये सिर पर लगा लगा कर खिंचते फोटो एक अजीब सी अशालीन अपारंपरिक आधुनिकता के नाम पर गृहिणी कमपढ़ी लिखी बेडौल स्त्रियों का अभद्र नाच बनकर रह गया है ,जिनकी वीडियो ,दूसरे परिवारों से आये मित्र मेहमान आगंतुक राहगीर बनाकर उसपर अश्लील गाना सेट करके अपना भी मनोरंजन करते हैं बाद में ऐसे घरेलू वीडियो यदा कदा सोशल मीडिया पर भी देखे जा सकते हैं ।
नशा एक और बढ़ता कदम फैलाता कारोबार हो चुका है स्थानीय लोगों का पंजाब कनेक्शन ,सीमापार आवागमन । बहुत से परिवारों के लोगों का रोजगार पंजाब की चीजों से चलता है और वे वहाँ आते जाते रहते हैं ऊनी कपड़े ,इलेक्ट्रोनिक्स ,बाल ,पशुचर्म पशु ,माँस ,शराब, कपड़े, साग सब्जी ,कृषिउपज आदि ,और जाते रहते हैं कश्मीर सीमांत क्षेत्रों तक ,सेविनसिस्टर्स प्रांत यानि पूर्वोत्तर के सात राज्यों तक ,राजस्थान के सीमान्त तक और बंगाल बिहार महाराष्ट्र अरब देशों तक ,कभी माल बेचने कभी कच्चा माल लाने ,कभी माल सप्लाई का आॅर्डर लेने तो कभी मजहबी उपदेश प्रचार की जमातों धर्मयात्राओं आदि में ।शिक्षा के लिये बहुत कम ही परिवारों से लोग इस प्रांत से बाहर निकलते हैं अपितु शिक्षित उच्च शिक्षित लोग येन केन प्रकारणेन इस क्षेत्र से बाहर निकलने को छटपटाते रहते हैं । यह विडंबना ही है कि कृषि और गाँव का घर तक बेचकर उच्च शिक्षित लोग बेहतर माहौल की तलाश में इस क्षेत्र को एक एक करके छोड़ देते हैं दिल्ली से दुबई तक मुंबई से लंदन तक प.उ.प्र. का मूल निवासी मिल सकता है । कारण यह है कि इस माहौल को बदल पाना किसी एक दो के वश की बात ही नहीं । अब तक भी बिजली ही पूरी नहीं आती अब से पहले तो सप्ताह सिस्टम था ,एक सप्ताह रात को बिजली आती थी एक सप्ताह दिन को बिजली आती थी वह भी मात्र आठ से दस घंटे । एक दो समस्या हो तो कोई सुधारे ,जब सारा का सारा क्षेत्र ही अभ्यस्त हो अवैध खानपान रहन सहन गंदगी अश्लीलता कट्टपन स्त्री बच्चों पर हिंसा गाली झगड़ों का तब ,यह सुधार व्यवस्था और तंत्र की सहायता के बिना पूरा नहीं हो सकता । क्योंकि इसे सदियों से ऐसा जानबूझकर बनाया जाता बने रहने दिया जाता रहा है । हम दम ठोक कर कह सकते हैं कि यहाँ चुनाव प्रत्याशी रात रात भर मिठाई शराब कपड़े सामान रुपये और जमकर खुलेआम पंडाल में दावतें देते रहते हैं । एक मामूली वार्ड मेंबर तक प्रति व्यक्ति हजार से दो हजार रुपये तक व्यय कर देता है । पुलिस किसे किसे और कहाँ तक पकड़ेगी ,पुलिस के लोग तो स्वयं ही इसी क्षेत्र के निवासी हैं और उनको भी कुछ अचंभा नहीं लगता ,वैसे काररवाही के नाम पर कुछ पेटियाँ शराब जब्त करके दिखा दी जातीं हैं ,हमारी गुमनाम सूचना पर ,और सभा में सामने दी गयी चुनौती तथा सलाह पर ,कुछ झल्लाये हुये पुलिस वालों ने एक दो रुपयों की पेटी और फल मिठाई भी पकड़े कहीं कहीं ।परन्तु एक साफ सुथरा बिना नशे का बिना दारू पिलाये बिना दावतें खिलाये चुनाव करवाना ,इस क्षेत्र में फिलहाल तो असंभव ही है इसीलिये सारे भाषण तर्क वितर्क जागृति सभायें बेकार हो जातीं हैं क्योंकि ,चुनाव तो आखिरी रात को हुयी गुटबंदी और कुल पहुँची शराब रुपयों खेप उपहार कपड़े और सामान पर ही होता है ,उन वोटरों को मतलब ही नहीं कि चुनाव बाद प्रत्याशी क्या क्या कर सकता था उनके कल्याण के लिये जो वह अब नहीं करेगा क्योंकि सीधी गिनती है ,न जाने क्या करे क्या न करे "वोट की कीमत तो एडवांस में ले ही लो "ऐसे ऐसे नाज नखरे दिखाते हैं वोटर कि जी यहाँ काश तानाशाही ही सही होती ,पचास कदम की दूरी तक के लिये वाहन भिजवाये जाते हैं और लड्डू पेड़े रसगुल्ले एक से अधिक एक प्रत्याशी सरे आम बाँटता जाता है । नशे का आदी इस तरह चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी ही बनाता है ,क्योंकि दो तीन महीने जमकर मुफ्त शराब पीने को मिलती है तब ,हर चुनाव में वोटर सब काम छोड़कर हर शाम सुबह पीता रहता है ,बच्चे तक नारे लगाने पोस्टर चिपकाने विरोधी पोस्टर उखाड़ने और परिवार को चुपचाप सामान भिजवाने वाले एजेंट बनकर मिठाई कोल्ड ड्रिंक ही नहीं शराब भी चखते रहते हैं इस तरह जब लत पड़ जाती है दो चार महीने की मुफ्त से तब ,मजदूरी का आधा धन ,शराब की हट्टी पर जाने लगता है ,फिर कोई चुनाव और फिर कोई दारू का मुफ्त दौर .....©®सुधा राजे
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