लेख:पश्चिमी उत्तर प्रदेश, एलियन की दृष्टि से जैसा मैंने देखा,
#MyYogyAadityaNathji
पश्चिमी उत्तरप्रदेश :एक एलियन की दृष्टि से जैसा मैंने देखा (सुधा राजे )तीसरी किश्त
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7*लोगों में उन्नति विकास तरक्की नहीं मज़हब की चिंता अत्यधिक है
इतना कुछ अखबार नहीं छापेंगे
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चूँकि मेरे पास आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं और गूगल से हम तथ्य लेते नहीं फिर भी यह देखने से ही पता चल जाता है कि प.उ.प्र.में सबसे अधिक लोग मुसलिम हैं हर तरफ काले बुरकों में बंद औरतें ,जालीदार टोपी ऊँचे मुहरीदार सलवार पाजामे लंबे कुरते तराशी हुयी दाड़ी ,भयंकर भीड़ से हर तरफ कोलाहल और ठसाठस वाहन ,हज़ारों लाऊडस्पीकरों पर गूँजती अज़ानें ,सड़कों पर जाम लगकर अदा होती नमाज़ें और हर सड़क गली मुहल्ले में मांस की दुकाने देखकर ही पता चल जाता है कि आप प.उ.प्र. में आ गये हैं । लोगों का जो भी जैसा भी विकास है वह घर में रसोई और सजावट आराम और काम जल्दी करने के यंत्र खरीदने तक ही अधिक है । वाशिंग मशीनें आने से पहले बुधवार बृहस्पतिवार को औरतें लगातार दिनभर कपड़े कूटतीं सुखाती कोयलों वाली इसतरी से तहें लगाती रहतीं थीं ।धोबी इसीलिये इस क्षेत्र में बहुत व्यस्त रहते हैं क्योंकि सफेद कपड़े हर शुक्रवार को सबको चाहिये सफे में नमाज़ें अदा करने को और वे उतने सफेद भट्टी नील कुटाई इसतरी के बिना हो नहीं सकते ।नदी नालों तालाबों कुँओं हैंडपंपों के आसपास खुले घसियाले मैदानों में ""बिछाने""का काम करते धोबी बहुत दिखते थे । हथकरघा सूत कताई दरी चादरें रजाई गद्दे तकिये काफिये और सूती कपड़े बनाने का लघुकुटीर उद्योग बहुत बड़े क्षेत्र में गाँवों छोटे कसबों नगरों में रचा बसा है और सबसे अधिक मुसलिम ही इन कार्यों में लगे हैं ,पीली सूती मटमैली चादरें धोबी धोकर ब्लीचिंग करके "बिछाते "है इसलिये यहाँ स्थानीय लोग धुलाई कार्य को "बिछाने "का काम कहते हैं । लोहा बाज़ार लोहियान ,बंदूक बाज़ार बदूकचियान ,चूड़ी श्रंगार आदि का बाजार मनिहारान ,मौलिवियों का मुहल्ला शेखान ,हलवाईयान ,काजियान ,माहेगीरान ,असारियान ,मंसूरियान, कुरैशियान, बकरकसावन, इमामबाड़ा, जामा मसजिद, इस तरह के मुहल्लों के नाम हैं और प्राय हर तीसरे चौथे कसबे का नाम "बाद"प्रत्यय से बनता है ;मुरादाबाद, नजीबाबाद, कादराबाद, साहिबाबाद, जलालाबाद, फिरो़जाबाद, नौरंगाबाद, हसीनाबाद, हाफिज़ाबाद, अकबराबाद,नसीराबाद, ......आदि ।नाम से ही नगर कसबे गाँव की आंतरिक जनसंख्या का रहन सहन और स्थिति का बहुत कुछ आकलन होने लगता है ।
लोगों पर मज़हब का शिकंज़ा इस क्षेत्र में कुछ अधिक ही जकड़ा हुआ है और पसंद हो या न पसंद हो उन्हें "ज़मातें "कारी मुअल्लिम मौलाना मौलवी कारी इमाम और मुअज्जन आदि के हर समय कड़ी निगरानी करते रहने से सब बातें मन से या बेमन से माननी ही पड़तीं हैं । बहुत निकट से अध्ययन कर्त्ता की दृष्टि से निस्पृह आकलन करते रहने से यह बहुत आसानी से पता चल जाता है कि इतना अधिक हस्तक्षेप गृहस्थ मजदूर कारीगर कृषक छोटे विक्रेता आदि पसंद नहीं करते परंतु मानते हैं ऐसा दिखाते रहते हैं एक लड़की थी जो परिजनों के परदे बुरके की कठोर शर्त के बाद भी असंस्थागत छात्रा के रूप में ही घर पर रहकर पढ़ती रही और हमारे पास समझने के लिये आती रहती ,बहुत सुंदर शालीन दयालु भावुक लड़की थी एक गुरु शिष्या से अधिक नाता जुड़ गया था अब्बा उसके अरब देश में किसी शैख के निजी ड्राईवर थे तीन वर्ष में एक माह के लिये आते और मुफ्तखोर चाचाओं की तानाशाही में उन तीनों मेधावी बच्चियों की पढ़ाई बंद करवा दी गयी निपूती होने के दंश से पीड़ित उनकी माँ ने कुटुंब का लड़का गोद ले लिया और बेटियों को कैद में देखकर छटपटातीं बातें सहतीं ,किस्मत या बदकिस्मती से उन लड़कियों के अब्बू की टाँग टूट गयी और रहने आ गये एक साल परिवार के साथ । जो जैसा सुनते रहते थे भाईयों अम्मी अब्बू से उसके विपरीत सब देखकर ,कुछ ठाना और ठीक होकर दुबारा अरब देश लौट गये ,इस बीउस लड़की की शादी कजिन से करने का दबाव ममेरे फुफेरे मौसेरे सब नातों से पड़ता बढ़ता गया ।लड़की बुरका नहीं पहनना चाहती थी किंतु दुपट्टे से पूरी तरस्वयं को ढँककर चलती थी ,मुसलिम लड़कियों के मामले में घरवाले कम जमात और मुहल्लेवाले अधिक नुक्ताचीनी करते हैं सो सब के सब बोलते गये । विवश होकर अब्बा ने हाँ कर दी सगाई पक्की करने के बाद चाचा लोग बौखलाये कि अब धनादोहन का माध्यम ही नहीं रहेगा ,तो लड़की के ही खिलाफ अफवाहें उड़ा दी कि पागल है पढ़ने से दिमाग पर गरमी चढ़ गयी नाता टूट गया । लड़की इतनी दुखी हुयी कि घुटनों तक लंबे बाल कतर डाले धूप में दिन दिन बैठकर चेहरा काला बदसूरत कर लिया और अवसाद में रहने लगी । उसकी अम्मी ने बहुत समझाकर हमारे पास भेजा और सकारात्मक परिणाम बने लड़की ने पुन:काॅलेज में नियमित छात्रा के रूप में प्रवेश ले लिया बीकाॅम कर लिया ,चाचाओं ने तरह तरह से कलह मचायी ,परन्तु बुरका और मेहरम यानि साथ में एक पुरुष का होना ये शर्ते वह पूरी करती गयी अम्मी का एक भतीजा मदद करता रहा ,लड़की के अब्बा ढेर सारा धन कमाकर लौटे ,सबकी आशा के विपरीत दिल्ली में मकान लेकर परिवार कसबे से निकाल ले गये चंडीगढ़ के एक बैंक मैनेजर से लड़की की शादी कर दी छोटी बेटियों को काॅलेज में प्रवेश दिला दिया ।ये एक उदाहरण मात्र है सच का किंतु सब लड़कियाँ इतनी भाग्यवान नहीं हैं । परिणाम स्वरूप प.उ.प्र.में मुसलिम लड़कियों की औसत शिक्षा दसवीं बारहवीं तक ही सीमित है । बहुत कम लड़कियाँ यूनिवर्सिटी तक पहुँचतीं हैं । एक मेधावी लड़की के पिता सबकी परवाह न करते हुये उसे बिना बुरके के पढ़ने भेजते रहे ,एक दिन मसजिद में लोगों ने उनके पीछे नमाज पढ़ने से मना केवल इस लिये कर दिया कि उनकी बेटी बिना नकाब बिना बुरके के घर से बाहर निकलती है और अकेली कोचिंग स्कूल जाती है । ऐसा नहीं है कि लड़कियाँ नहीं पढ़ रहीं बिलकुल ,पढ़ तो रहीं हैं परन्तु केवल उन परिवारों की जिनके अभिभावक धन और सामाजिक रुतबे में ताकतवर हैं वरना तो अनपढ़ नगरपालिका चेयरमैन की पुत्रवधू फार्मासिस्ट होकर भी बुरके में घर में बंद रहती देखी । लोग डरते हैं कि कोई मज़हबी व्यक्ति कहीं उनको मज़हब के नियमों का पालन ना करने वाला ना कह दे । हर दिन दोपहर में एक घंटे तक बाजार बंद सा हो जाता है ,खुली सूनी दुकानें दिखतीं हैं ,शाम को फिर वही हाल एक घंटे के अंतर से दो नमाज़ें होने के बीच सूने हो जाते हैं क्लीनिक अस्पताल ,डाॅक्टर तक उठकर मरीज़ों की लंबी कतार छोड़कर नमाज अदा करने चल देते हैं ।
एक बार दो तीन माह की बेटी को बहुत संकटापन्न स्थिति में लेकर शिशुरोग विशेषज्ञ के पास ले जाना पड़ा ,पल पल भारी था बच्ची नीली पड़ती जा रही थी भयानक ठंड से उसे निमोनिया का संक्रमण हो गया था साँस तक डूब रही थी मैं बेहाल चीखती पुकारती रह गयी ,बड़ी गुहार विनय याचना के बाद डाॅक्टर उस दिन संक्षिप्त नमाज करके आये ,मैंने लाखों बार उनका धन्यवाद किया ,बच्ची की प्राणरक्षा के लिये वे कुछ पल जल्दी आने का अहसान जीवन भर मुझ पर है ।किंतु शिकायत भी है कि इमरजेंसी केस में तो बच्चे प्राण रक्षा से बड़ी परमात्मा की सेवा और क्या हो सकती है । कज़ा नमाज़ भी तो अदा की जा सकती थी ,क्या कोई ईसाई या हिंदू डाॅक्टर होता तो पहले बच्चा देखता या अपनी प्रार्थना को जाता !!यही हाल है लगभग सारे क्षेत्र का । जो लड़के हिंदी अंग्रेजी गणित विज्ञान पढ़ने में कमज़ोर होते हैं वे प्राय: मदरसे जाकर पढ़ते हैं और वहाँ दीनी तालीम लेकर हाफिज़ यानि मज़हबी किताब कुरान को कंठस्थ कर चुके होते हैं तब दूसरों को "सिपारा यानि कुरान के पाठ पढ़ाने का काम करने लगते हैं जो प्राय:प्रति बच्चा सौ डेढ़ सौ रुपये महीने पर पढ़ाते हैं । मज़हबी तंत्र देखता है कि कोई भी बच्चा छूट न जाये नमाज़ और सिपारे से या तो हर दिन मदरसे जाना पड़ता है या तो मुहल्ले परिवार के समूह बनाकर एक बैठक में हर दिन हाफिज़ जी सिपारा पढ़ाने आने लगते हैं । काॅन्वेंट या किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ते सीबीएसई ,आई सी एस सी ,आदि के भी सब बच्चे हर शाम बिना नागा "सिपारा पढ़ते हैं । हमारे हाफिज़ जी आने वाले होंगे घर जाना है कहकर सब काम छोड़कर बच्चे मदरसा या घर की ओर दौड़ लगाते हैं । यही कारण है कि प.उ.प्र.में अरबी उर्दू लगभग सब को थोड़ी बहुत पढ़नी आती है ।परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे सब उर्दू अरबी के विद्वान हैं ।अधिकाँश बल्कि कुछ को ही छोड़कर सबको न तो उर्दू अरबी आरसी के अर्थ समझ में आते हैं न ही अभिव्यक्ति की क्षमता उस भाषा में प्राप्त हो पाती है । कुरान के सिपारे हिफ्ज करने वालों को भी बहुत कम बार शत प्रतिशत अर्थ सारे पाठ का पता होता है । लिपि पढ़ना भी बहुत लोगों को अटक अटक कर ही आता है । यहाँ उर्दू साहित्य की भी बहुत उपस्थिति नहीं है मुशायरे होते हैं कव्वालियाँ होती हैं शेरी नशिस्त होती हैं परन्तु उनकी चाल वही भीड़ की तालियाँ लेने के लिये हँसी मज़ाक हुस्न जवानी सियासत आदि तक ही रह जाती है । हालाँकि बहुत पहले कुछ शायर इस क्षेत्र से मुंबई दिल्ली तक भी पहुँच गये परंतु वे वहीं के होकर रह गये । वैसे तो हर लड़का यहाँ शायरी करता मिल सकता है मौलिकता के स्थान पर उस्ताद के सिखाये सुधारे शायर ही प्राय:बहुत हैं और उनपर जैसी मेहनत मँजाई की जाती है ,हिंदी के प्राकृत मौलिक सृजक के लिये ईर्ष्या और प्रेरणा का विषय है कि उसे इस क्षेत्र में मंच तक नहीं मिलता ।
मज़हबी संगठनों का दबदबा इस तरह घुसपैठ कर चुका है कि दूर सुदूरपूर्न मध्यपूर्व यानि अरब ईरान ईराक कुवैत सूडान लीबिया मोरक्को ट्यूनीशिया सऊदी अरेबिया दुबई तक के लोग यहाँ आते जाते प्राय:दिख जाते हैं और कश्मीर अफगानिस्तान पाकिस्तान बांगलादेश के लोग तो दिखते ही रहते हैं ।अवैध बांगलादेशी लोग यहाँ बिहारी या बंगाली कहकर नौकरियाँ गुमटियाँ खोखे कबाड़ीगीरी होटलों ढाबों पर काम तंत्र मंत्र जादूटोना हिक़मतगीरी यानि झोलाछाप डाॅक्टरी करते आसानी से लोगों के बीच घुले मिले रहते हैं और दंगों फसादों अपराधों तक में अनेक बांगलादेशी लिप्त पाये जाते रहे हैं स्थानीय नेता वोट बैंक की राजनीति के चक्कर में इनको राशनकार्ड वोटरकार्ड और बैंक खाते तक उपलब्ध करवा देते हैं । इनको पता है कि वापस वतन लौटने का मतलब गरीबी बेरोजगारी मारामारी है फिर भी भारत के प्रति इनकी आस्थायें वफादार नहीं देखी गयीं ।बहुत वर्ष पहले जर्नलिज्म की मास्टर्स डिग्री करने के दौरान मेरठ दिल्ली आते जाते डिवाईडरों पर बेगम पुल से परतापुर तक हमने ऐसे लोगों का बाहुल्य देखा और लिखा था जिनपर काररवाही भी हुयी और अब वे लोग वहाँ नहीं हैं ,परन्तु संदेह है कि वे स्थानीय आबादी में रच बस खप गये हैं और ये जो खानाबदोश टैंट लगाकर औषधियाँ जड़ीबूटियाँ बेचते लोग हैं इनमें कहीं ग़ैर भारतीय भी तो नहीं । केवल मदरसा पढ़े लोग जो कभी स्कूल काॅलेज गये ही नहीं घर बैठे ही पत्राचार से अनेक गुप्त या प्रकट संस्थाओं से डिगरियाँ ले लेते हैं । काॅपियाँ डाक से घर आ जाती हैं या मदरसे का केंद्र होने पर वहाँ से मिल जाती हैं लड़के घर पर या हाफिज जी या मदरसीन मौलवी जी के पास बैठकर सब लिख डालते हैं नकल उतारकर और बस डिगरी घर आ जाती है आलिम फाजिल कामिल आदि अनेक डिगरियाँ यूँ ही घर पर देख देख कर नकल उतार कर काॅपी भरने से मिलतीं रहतीं हैं ,आश्चर्य इस बात का कि सचमुच यूनिवर्सिटी से पढ़े व्यक्ति का इतना सम्मान नहीं होता जितना पत्राचार से अदीब कामिल आलिम फाजिल आदि किये हुये व्यक्ति का होता है ।जैसे एक ड्रैस कोड सब पर ज़ारी है गोल टोपी या क्रोशिये वाली जालीदार टोपी कशमीरी अफगानी या अरबी तरह के कपड़े पुरुष पहनते हैं औरतें सलवार कुरता दुपट्टा माथा बाँधकर नक़ाब ऊपर से दरजनों जेबों वाला काला बुरका जिसपर फैशनेबुल औरतें चमकीली कढ़ाई बटन नग स्टोन जड़वा लेती हैं तो पुराने माहौल वाली औरते सिर पर गोल टोपी से सिला गया एकदम बंद बुरका पहनतीं मिलती है आँखों पर तनिक सी जाली रहती है ।औरतें मसजिदों में नहीं जा सकतीं न ही लड़कियाँ ।मज़ारों दरग़ाहों पर अवश्य कुछ समुदायों की औरतें जातीं हैं तो कुछ उनको गलत कहतीं हैं । सलाफी या बहाबी कहे जाने वाले लोग बहुत कठोरता से मज़हबी नियमों का पालन करते हैं जबकि तबलीगी ज़मात वाले तो बीमा नहीं कराते ना ही बैंक में खाता खुलवाते हैं हालाँकि सरकारी नीतियों का लाभ उठाने के लिये खाते खुलवाये तो हैं परंतु अपनी बचत की रकम उसमें जमा न करके "मुसलिमफंड"
नामक सामुदायिक बैंक व्यवस्था में जमा करते हैं जो पूरी तरह से मुसलिम समुदाय द्वारा ही संचालित है । मुसलिम फंड की पासबुक भी बनती है और जेवर गहने गिरवी रखकर यह संस्था उधार रुपया भी देती है । अनेक गैर मुसलिम परिवारों ने भी मुसलिम फंड में खाता खुलवा रखा है ।
ये खाता विशेष इस बात में है कि इसमें ब्याज नहीं मिलता बल्कि जमा रकम से समुदाय के स्कूल काॅलेज मसजिद मज़ार कब्रिस्तान इज्तमा सभा और विधवाओं को कंबल रजाई भोजन की व्यवस्था की जाती है मज़हबी कार्य चलाये जाते हैं । मुसलिम फंड चलते रहने के पीछे घर से रकम ले जाने वाली द्वार द्वार तक की अभिकर्त्ता व्यवस्था है । ये अभिकर्त्ता हर दिन प्रत्येक परिवार के बीच बैठकर जो भी जितनी भी बचत होती है जमा करके ले जाते हैं और रसीद देकर रुपया पासबुक पर चढ़ा देते हैं । दिहाड़ी मजदूर कारीगर रोजाना काम करके कमाने वाले लोग गृहणियाँ घरों में बंद लड़कियाँ विधवायें तलाकशुदा प्रौढ़ायें और किशोर युवा लड़के सब इस तरह रोजाना की बचत से कुछ न कुछ तो जमा कर ही लेते हैं भले ही ब्याज नहीं मिलता परंतु कर्ज कितना भी लेना हो मुसलिम फंड से मिल जाता है गहने जेवर की गिरवी या मकान खेत दुकान की गिरवी पर लोग रकम लेकर सऊदी अरब दुबई कुवैत मस्कट ओमान दमाम अबूधाबी आदि जाकर मजदूरी करके कुछ ही वर्षों में करोड़पति बन जाते हैं वापस आकर मकान दुकान गाड़ी मशीनरी और रहन सहन बदलकर ठासे रहने लगते हैं और इनकी देखा देखी दूसरे युवक जाने को बेचैन रहते हैं । बढ़ईगीरी ,राजमिस्त्री ,बोझा ढोनेवाले ,खानसामा ,नाई हज्जाम ,बिजलीफिटिंग ,ड्राईवर ,सेनेटरी ,प्लंबरिंग और मैकेनिक आॅटोमोबाईल आदि के कारीगर मजदूर सबसे अधिक काम पा जाते हैं मुद्रा विनिमय में वहाँ के लाखों रियाल, दीनार ,आदि करोड़ों रुपये के होते हैं यही लाभ है । एक प्रवासी मजदूर दूसरों के लिये आयातक निर्यातक भी बन जाता है और वहाँ से जितना संभव हो सकता है उतना कपड़ा मशीने जेवर खरीद कर एक दूसरे साथी के हाथों आता जाता रहता है कई बार सामान समुद्रमार्ग से कार्गो यानि मालवाहक जहाज से भी आता है ।इसी में कस्टम और एयरपोर्ट पुलिस और टोलटैक्स वाले भी कमीशन गीरी करते रहते हैं ऐसा मजदूर बताते हैं । जब भी एक मजदूरी पर विदश जाता है तब सब परिचित मिलने दुआयें पढ़ने आते हैं दावत होती है मेलमिलाप के बाद कारों का काफिला दिल्ली एयरपोर्ट तक छोड़ने जाता है । अनेक मुसलिम और ग़ैर मुसलिम भी अरब देशों में मजदूरी पर रखवाने के लिये दलाली करते हैं इनको एजेंट कहते है पासपोर्ट वीजा बनवाने से जाॅब दिलाने तक का इनका कमीशन रहता है और यह बहुत आम रोजगार बन चुका है । अनेक घपलेबाज इसी बीच सक्रिय हैं जो कम होशियार लड़कों को काम दिलाने के बहाने बड़ी रकम ले ले कर अरब भिजवा तो देते हैं परन्तु वहाँ विदेश में जमी ह्यूमन रिसोर्स सप्लाई कंपनियों से जाॅब नहीं दिलवा पाते तब लड़के फँस जाते हैं रुपया मकान दुकान खेत गिरवी रखकर लिया था तो चुकायें कैसे और परदेश में बिना काम मिले रहें कहाँ खायें कैसे ।कई बार बंद कर लिये गये ऐसे लड़के वापस बुलवाने को परिजनों को और अधिक रकम जुटाकर भेजनी पड़ जाती है और बुरी तरह बरबाद हो जाते हैं ।तो भी आकर्षण अरब की नौकरी का कम नहीं होता । जैसे ही पता चलता है कि लड़का अरब में काम करता है सब नातेदार चिपटने लगते हैं क्योंकि वहाँ से तोहफा लायेगा और कमाई होगी तो उनको भी लाभ होगा ही । अनेक औरतें ऐसीं हैं जिनके शौहर पच्चीतीचालीस सालों से विदेश में ही रह रहे हैं किंतु वे हर तीन चार साल में महीने पंद्रह दिन को आये शौहर के बच्चों की अम्मी बनकर अनेक बच्चे पालतीं पोसतीं बैंक से रुपया निकालतीं खर्चतीं हिसाब लगातीं केवल फोन पर बतियातीं रह जातीं हैं पूरी जिमदगी विधवा ना तलाकशुदा ना शादीशुदा वाली स्थिति में रहतीं लाखों औरतें इस क्षेत्र में एकाकी निकाह निबाहतीं देखी जा सकतीं हैं । विरहिनों का ही है जैसे प.उ.प्र .जिनको पैसा कपड़े मशीने जेवर मकान तो मिल जाता है लेकिन आज़ादी साथ प्यार और स्वतंत्र निर्णायक हैसियत कभी नहीं मिलती । ग़ैर मुसलिम विरहिनों की भी संख्या कम नहीं है क्योंकि अरब में मजदूरी नौकरी करके फटाफट अमीर तो सब ही बनना चाहते हैं । कुछ लड़के विफल हो जाते हैं काम ऐसा नहीं मिलता कि फटाफट धनवान बन जायें वे लौटकर दबे सहमे कर्ज चुकाते रह जाते हैं । अनेक लड़कों की तो शादी ही नहीं हो पाती अरब की कमाई के चक्कर में और आयु निकल जाती है । कुशल राजपूत गया था पच्चीस वर्ष पहले केवल दो बार भारत आया और अब लौटा है करोड़ रुपया जमा करके परंतु न शादी हुयी ना बच्चे हैं शुगर लग गयी पथरी हो गयी और इलाज के बाद यहीं रह रहे ईर्ष्यालु भाईयों में अपनी पैतृक संपत्ति बाँटकर दोनों के पच्चीस लाख के दो घर बनवा रहा है तेजी के काम चालू है शेष रुपया छह भतीजों चार पाँच भाँजों की पढ़ाई पर लगा दिया । पहले भेजी रकम दो बहिनों की शादी और चार बहिनों के बच्चों के भात में लगायी थी । कुशल से पूछा ,भैया अपने लिये कुछ सोचा ,निराशा से हँस दिया क्या करूँगा अब कुछ भी रखकर है ही कौन मेरा आगे पीछे पचास का होने वाला हूँ शरीर में रोग है जब तक काम कर सकता हूँ करता रहूँगा । प्रदीप राजपूत की पत्नी विधवा की तरसास के कठोर नियंत्रण में रहती है तीन बेटे जवान हो गये पिता की सूरत पंद्रह वर्षों से नहीं देखी दो साल एक साल तीन साल का छोड़कर गया था प्रदीप वहीं कैंसर हुआ आॅपरेशन करा लिया भारत आने में बहुत रकम बेकार हो जाती तो विधवा की तरह रहती बीबी के बस हस्ताक्षर भर हैं मकान दुकान बैंक में सर्वेसर्वा तो दनदन करती माँ है जो खुलकर साँस तक नहीं लेने देती प्रदीप के परिवार को । राजू घबराकर वापस आया तो चालीस का हो गया था कि शादी बिना न रह जाऊँ और अब मिनी ट्रक चलाता है । एकमुश्त बड़ी पूँजी के लालच में लोग जाते तो हैं परंतु लालच बढ़ता जाता है और फिर देश लौटने के लिये समय निकल जाता है नागरिकता के कारण आ तो जाते हैं परंतु केवल मकान दुकान गाड़ी के मालिक होकर समाज में पैसे वाला कहलाने के सिवा सब सुख आराम छिन जाता है । मुसलिमों में लड़की फटाफट अरब की नौकरी वाले को दे दी जाती है । अक्सा पाँच साल की हो गयी पेट में एक माह की थी तब अब्बू अरब चले गये थे वीडियोचैट से देखती बातें करतीं बीबियाँ बच्चे अब इतनी राहत भी पा गये हैं तो इंटरनेट की कृपा से । इसलिये सबसे पहली शाॅपिंग औरत स्मार्ट फोन की करवाती है अरब से ही आता है बढ़िया मोबाईल और अनपढ हो या पढ़ी कम पढ़ी सबको जल्दी ही मोबाईल चलाना अवश्य आ जाता है । प्रौढ क़मरज़हाँ को नंबर नाम कुछ नहीं आता तो हमारे पास टैबलैट सीखने उसके शौहर ने भेजा । नोटबंदी के दौरान हम चकित थे इतनी रकम !!आयी तो आयी कहाँ से । सरकार यदि प्रति खाता की बजाय कुल मुसलिम खातों की रकम जमापूँजी की गणना करेगी तो पता चलेगा कि उस दौरान नवंबर दिसंबर 2016में एकाएक प.उ.प्र.में नोटों का अंबार खड़ा था । औरतें नोट गिनना नहीं जानती थी बुरके के भीतर झोले के भीतर बड़े बैग बोरी थैले सूटकेस संदूक तक से लाखों रुपये थामे कतार में खड़ीं धक्कामुक्की करतीं पहले मैं, पहले मैं ,पर जमकर झगड़ रहीं थीं सुरक्षा में तैनात उनके परिजन पुरुन किसी को फोटो खींचने दे रहे थे न ही आसपास फटकने दे रहे थे । बैंक बंद हो जाते तो रात तीन बजे से कोई आकर जगह घेर लेता और एक हटता तो दूसरे को खड़ा करके ।हमारे पास मात्र कुछ हजार रुपये ही घर में रहते हैं सो हमें उनके ही रद्दी हो जाने का डर था तो सोचो मर मर कर कमाई बचाई करोड़ों की रकम को कैसे हिसाब में लगाया गया होगा । सोना खरीदा गया चांदी खरीदी कुछ न बना तो पीतल तांबा मशीने खरीद लीं । जमीनें खरीदी पेट्रोल भर भर कर खरीदा गया । परिचितों को पूँजी लागत निवेश दे दिये ,जनधन जीरो बैलैंस वाले खाताधारकों से कमीशन तय करके रकमें जमा करायीं गयीं । वरना बैंक जाता ही कौन रहा है । विनिमय की जब तक मजबूरी न हो । तब से लोग चौकन्ने हो चले हैं हर घर में अनेक खाते खुल गये और सोने में निवेश बढ़ गया है ,कहने को अल्पशिक्षितों का क्षेत्र है परंतु सट्टा लाॅटरी शेयर मार्केट हवाला पूँजी विनिमय अनेक देशों की करेंसी की दर और अपनी कमाई कहाँ लगायें कैसे टैक्स बचायें इस पर खूब सजग हैं लोग । भले ही उनको भारत के पूरे राज्य राजधानी प्रतीक चिह्न याद न हों परंतु सऊदी अरब के कानून परंपरायें और मज़हबी दायरे अच्छे से याद हैं अनेक लड़के वहाँ मौलवी गीरी करने जाते हैं और वहाँ के मज़हबी उपदेशक यहाँ आते रहते हैं । कहीं किसी का कुछ भी होता रहे लोग अपने आप में इतने मगन मस्त रहते हैं कि औरतों को घर के बाहर निकाल कर पुरुष लात जूतों से गालियाँ देकर पीट रहे होते हैं भीड़ तमाशा देखती है गुजरती रहती है गोलबंद होकर जमा हो जाती है कदाचित ही कोई आगे बढ़कर किसी हिंसक पुरुष को रोकता या बुरा भला कहता हो हाँ औरत को अवश्य दस बीस लानत मलामत सुना दी जातीं हैं । कमी कुछ तो रही होगी औरत में वरना क्यों पिटती ,औरत है ही ऐसी जात इसे ऐसे ही रखना चाहिये । आए दिन घरेलू हिंसा की शिकार औरतें क्लीनिकों झोलाछापों और घरेलू वैद्यों से मरहम पट्टी करवाती झूठे बहानों से अपनी पिटाई छिपातीं रहतीं हैं ।तलाक़शुदा पुरुष की तत्काल दूसरी तीसरी चौथी तक शादी अच्छी कमाई के कारण हो जाती है वहीं औरतों का रूप रंग गोरापन और कम जहेज (दहेज)उनके दुबारा घर नहीं बसने देता या किसी बूढ़े प्रौढ़ बालबच्चेदार के पल्ले बाँध दीं जातीं हैं । जातीय कट्टरता मुसलिमों में भी है सो एक बिरादरी की शादी दूसरी में अपवाद स्वरूप हो तो हो वरना अपनी ही जात में शादी करते हैं । मज़हब बदलने का बोलबाला है और कोई व्यक्ति मज़हब बदल रहा हो तो सब परिवार उसे रकम कपड़े बरतन तोहफे देते हैं जाति प्राय पुरानी का ही नाम बदल देते हैं जैसे खटीक हुआ तो कुरैशी ढीमर हुआ तो माहेगीर आदि । कई बार जाति बाद में निर्धारित करने को टाल दी जाती है और ""जात धरी गयी "एक रस्म करके जाति कह दी जाती है । एक युवक की जाति "सबनीगर"रखी गयी क्योंकि मज़हब में आने के बाद उसे कलई चूना पुताई करने का काम मिला । अंतर्सांप्रदायिक शादियाँ भी होतीं रहतीं है और बहुत छिप छिपाकर रहने के बाद अंतत:सबको पता चल ही जाता है । एक राजपूत परिवार की लड़की शिक्षिका थी और बाहर कहीं कमरा लेकर रहती थी पिता भाई के घर उस परिवैर का आना जाना था लड़के के निक़ाह का निमंत्रण पाकर सब गये ,क्योंकि यहाँ मुसलिम मेज़बान जब हिंदुओं को बुलाते हैं तो हिंदू हलवाई लगाकर खाना शाकाहारी पकवाकर पृथक दावत देते हैं यदि उनका हिंदुओं में व्यवहार है तो । निकाह में हर जगह चौहान साब का परिवार फोटो में दूल्हा दुलहिन को आशीर्वाद देता नाचता ठुमकता बाद में मुँह दिखाई देने गयी औरतों ने आकर सन्नाटा खींदिया परिवार में । पुलिस क्या करती परिवार तो सब जगह मेरा बेटा मेरी बेटी करता उपस्थित था अंतत:पिता ने सबसे कह दिया अब जो हो गया हो गया जाईये आप सब बेटी मेरी मरजी उसकी । कभी कभी ऐसी शादियाँ भयंकर तनाव का कारण बन जातीं हैं । रमज़ान पर दो बजे रात के बाद आप प.उ.प्र.में हैं तो न सो सकते हैं न ही कोई बहुत एकाग्रता वाला कार्य कर सकते हैं क्योंकि हज़ारों मसजिदों पर लगे लंबे लंबे लाऊडस्पीकरों के गुच्छों से चारों दिशाओं में "हज़ारात जाग जाईये ,सहरी कर लीजिये खाना पीना खा लीजिये सहरी का आखिरी वक्त पाँच बजकर तीन मिनट पर है इस वक्त दो बज रहे है" जैसी घोषणायें लगातार होती रहती है जब तक कि सुबह की अज़ान नहीं होती "बिस्सोमे गदन नवयतो बिन सहरे रमज़ान "कहकर नीयत बाँधकर लोग आखिरी निवाला पानी लेकर रोज़ा शुरू करते हैं और नमाज़ अदा करके दुबारा सुबह सो जाते हैं ।रमज़ान में लोग देर तक सोये रहते हैं बारह एक बजे दूसरी अज़ान तक भी कुछ औरतें सोयीं रहतीं हैं कामकाज सब बहुत कम कर दिये जाते हैं दुकाने देर रात तो खुलतीं है सुबह से दोपहर तक लगभग बंद रहतीं हैं ।बेकरी का काम बहुत अधिक बढ़ जाता है जो दो बजे ही खुल जातीं है । शा को फलचाट कबाब बिरियानी हलीम जर्दा पकौड़ी फुलकी समोसे जलेबी इफ्तारी के लिये नुक्कड़ नुक्कड़ पर बिकने लगती है । थाल के थाल इफतारी भरकर हर परिवार से मसजिद में जाती है वहीं इफतार खाकर रोज़ा तोड़ते सैकड़ों लोगों में यह इफतारी बँटती है । तशतरियों पर पचासों तरह के खाद्य रखकर सब के सब बेसब्री से इफ्तार का गोला छूटने की प्रतीक्षा करते रहते हैं एकाएक माईक दहाड़ उठते हैं भड़ाम .....और एक तीखा सायरन गूँजता है सब मसजिदों से ....सब के सब रोज़ेदार लोग अपने सामने रखा खजूर पहले खाकर पानी पीते हैं और जल्दी से वह सामान खा पीकर नमाज़ अदा करने चले जाते हैं औरते लड़कियाँ सब घर पर ही नमाज़ अदा करतीं हैं । ग़ैर मुसलिम व्यापारी नेता व्यवसायिक लोग मेलमिलाप के लिये अपने घर दफतर आदि पर रोज़ा इफतार दावतें आयोजित कराते हैं । इफातार के थाल हमारे भी घर आते हैं परिचितों के यहाँ से और हम भी सहरी इफतारी भेजते रहते हैं । समाज में समरसता बनाये रखने के लिये यह सब एक आवश्यक औपचारिकता है । ईद तीन चार दिन तक दावतों मेल मिलापों मेलों का सिलसिला बन जाती है दोनों बार विशेषकर ईदुलफित्र यानि मीठी ईद ,चाँद दिखते ही बाज़ार पूरी रात के लिये खुल जाते हैं और जमकर ईद की खरीददारी रमज़ान भर से भी अधिक ईद पर दिखती है । ईद की सिवईयों के लिये दूध सौ से तीन सौ रुपये लीटर तक बिक जाता है सो अधिकांश परिवार कई लीटर दूध पहले से ही लेकर फ्रिज में भर लेते हैं और अनेक परिवार पाऊडर वाली खीर शीर सिवईयाँ बनाते हैं । ग़ैर मुसलिमों के यहाँ भी भिजवायें जाते हैं डोंगे और ईदी लेना देना चलता रहता है ।हमें भी गड्डी भर खुले रुपये रखने पड़ते हैं बच्चों को ईदी देने के लिये ।अरब का आयातित हर तरह का सामान इस क्षेत्र में मिलता है दूसरे स्थान पर चीन और बांगलादेश का सामान क्या पता चोरी छिपे पाकिस्तान का भी आता हो । जबकि होली एक ही दिन में आधे दिन बाद समाप्त हो जाती है वह भी प्रतिपदा यानि धुलैंड़ी वाले दिन ही ,कई हिंदू बहुल क्षेत्रों में एकादशी से दोपहर बाद रंग के जुलूस निकलने लगते हैं परंतु ऐसे नगर कसबे कम हैं जैसे कि धामपुर में यह देखा जा सकता है ।दीवाली भी एक ही दिन दिखती है वह भी बिजली की झालरों पर अधिक प्रतियोगिता रहती है पूजापाठ हवन यज्ञ पर नहीं । लोग दीवाली पर मुसलिम परिचितों के घर मिठाई के डिब्बे भिजवाते हैं और मिलावटी मिठाईयाँ मजबूरन खाते खिलाते हैं । अधिक तर हिंदू तीज त्यौहारों का तो पता ही केवल पंचांग कैलेण्डर या जंत्री देखकर ही चलता है । इन दो चार वर्षों में मुसलिम परिवारों में
"हैप्पी न्यू यीयर कहने पर मज़हबी लोगों ने पाबंदी लगा दी है और बर्थ डे मनाने पर भी "वरना जन्मदिन का केक सामान्य रूप से हिंदू मुसलिम दोनों ही समुदायों में "हैप्पीबड्डे "कहकर काटा जाता रहा है । कुछ ऐसी सुगबुगाहटें सशंकित करतीं हैं कि लोग मज़हबी कट्टरपन की ओर बढ़ रहे हैं । छोटी लड़कियों के नक़ाब जैसा हाॅक्स पाँच साल की आयु में ही पहनाने लगे हैं अचानक फ्राॅक पैंट गायब होकर नन्हीं बच्चियाँ तक सलवार पाजामी में दिखने लगीं हैं और टोपियों दाड़ियों की मान्यता बढ़ती ही जा रही है । अचानक ही अज़ानों का शोर कई गुना बढ़ गया है और उसी अनुपात में नयी नयी मसज़िदें भी बनती ही जा रही हैं कई करोड़ की लागत से छोटे छोटे कसबों तक में मसजिदें बनती जा रहीं हैं ।लोग विकास उन्नति ज्ञान तरक्की साक्षरता स्वास्थ्य पर्यावरण जागरुकता पारस्परिक मेल जोल के स्थान पर मज़हबी कट्टरपन कठोर नियमों की ओर बढ़ते जा रहे हैं ©®सुधाराजे
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