लेख:पुरुष की स्त्री

यह मात्र एक भ्रम है कि पुरुष स्त्री का शत्रु है ।
और भ्रम है ये भी कि सारे नियम स्त्री पर अत्याचार को थोपे गये ।
पुरुष
उसकी तो कामना ही स्त्री का साहचर्य
उसका तो लक्ष्य ही स्त्री का पालन ।
पुरुष उसका तो ध्येय ही सुंदर स्त्री ।
कोमल स्त्री
प्रसन्न स्त्री
मुस्कुराती गाती हँसती नाचती मगन और सजती सँवरती सुखी स्त्री ।
कभी सोचना सखी
पुरुष बनकर
परकाया प्रवेश करके
पुरुष उदास और ऊबा हुआ था ।
अकेला ।
उसे चाहिये थी स्त्री ।
मिलते ही वह भूल गया सारे घाव सब दुराव ।
वह बचाना चाहता था स्त्री को हिस्र पशुओं चोरों ठगों लुटेरों धूप ताप शीत वर्षा और धूल मिट्टी से ।
उसने ईंटे बनायीं
पत्थर तोङे
मिट्टी खोदी और चिन दिये वैभव के महल ।
वन काटे लोहा पिघलाया और जङ दिये द्वार गवाक्ष और रात दिन बुनता रहा वस्त्र ।
भर लाया नरम शैया पर बिछौने ओढ़ने कंबल और रजाई तोशक और उत्तरीय अंशुक और पटम्बर।
कंधे पर बिठाकर चढ़ा दिया स्त्री को अट्टालिकाओं के विलास में और मुग्ध होता रहा स्वेद सुखाये बिना कि वह सुखी हुयी हंस दी ।
वह सकुचाया और भूमि खोद कर फसलें बोयीं । पहाङ तोङकर रास्ते बनाये खोज लाया फल फूल मधु मेवे मांस और मिष्ठान्न ।
स्त्री सुखी हो तृप्त हो प्रसन्न हो ।बस इतनी ही सार्थकता रही उसके हर घाव की हर परिश्रम का यही ध्येय।
वह खोज लाया अंगराग सुगंधि लेपन और विलेपन ।
बना डाले आभूषण वाद्यंत्र और रच डाली संगीत साहित्य सुरों चित्रों शिल्पों महलों मंदिरों की दुनियाँ ।
पुरुष की मांसपेशियों की हर फङकन सिर्फ स्त्री के वैभव विलास सुख सुरक्षा और सज धज के लिये ।
स्त्री ने गाना गाया
पुरुष झूम उठा ।
स्त्री ने कुछ भी कहा वह पूरा करने को तत्पर हो उठा ।
उसने सिंह का चर्म उतारा और स्त्री की आसनी बना दी।
उसने गज को पराजित किया और स्त्री के आगे झुका दिया ।
उसने हय को हराया और स्त्री के रथ खींचने पर विवश कर दिया।
वह ढोता रहा स्त्री की पालकी और रोता रहा स्त्री के लिये ।
वह तैरा
धाराओं को चीरकर और पुल रच दिये कि स्त्री भ्रमण कर सके सारी दुनियाँ।
वह हँस पङा
रोया
सकुचाया
जब स्त्री ने कहा मुझे तुम्हारी सृष्टि पसंद है
और प्रेम है तुमसे ।
अब स्त्री ही उसका केंद्र थी।
वह
बाहर तपता जलता ठोकरें खाता और भर लाता छिली हुयी पीठ पर
स्त्री के लिये फूल वस्त्र भोजन और नरम बिस्तर ।
स्त्री ने पुरुषों को रचा और स्त्रियाँ रचीं ।
वह पिता बनकर घोङा बना घुटनो चला बेटी के लिये और भाई बनकर तोङता रहा सबसे ऊँची डाली के फल फूल बहिन के लिये ।
पुत्र बनकर दबाता रहा चरण और बनाता रहा सुख के भवन माँ के लिये।
हर रुप हर नाते में स्त्री से प्रेम किया उसने ।

यह रास न आया दूसरे हिंस्र पशुओं को ।
पुरुष का वेश धरकर वे घात में घूमने लगे स्त्री की ।
क्योंकि उनको प्रतिशोध लेना था पुरुष से ।
वे पुरुष नहीं थे ।
पुरुष वेश में थे ।
खींच ले गये
चुराकर स्त्री को ।
नोंचा रौंदा और बेच दिया बोली लगाकर नीलामी में ।
स्त्री रोयी तङपी दर्द से विरह से भय से आतंक से ।
सब पुरुषवेशधारी हँसे ।
वे पुरुष नहीं थे ।
स्त्री ने याद किया अपना घर
अपना पुरुष
अपना पुत्र
अपना पिता
अपना भाई
और टूटकर चीखी ।
ये आर्तनाद जब यातना के काले पहाङ दलदल जंगल ।से परे ।स्त्री के नगर घर पहुंचा ।
उसके सब पुरुष नाते निकले खोज में ।
स्त्री अपना सौन्दर्य हँसी यौवन और सुगंधि खो चुकी थी।
प्रतीक्षा से हताश वह पशुस्त्री को जन्म दे चुकी थी पशुमानवों की संख्या बढ़ने लगी वे पुरुष नहीं थे ।वे स्त्रियाँ भी नहीं थी।

सारे पुरुष पहली बार भयभीत हुये ।
वे जो शेरों से जीते
पहाङों को काट पाये ।
स्त्री की यातना नहीं सह सके
उसने तीर चलाकर वध कर दिया स्त्री का ।
और आकर चारदीवारी ऊँची कर दी ।
द्वार पर सलाखें और छतों पर ऊँची मुँडेरे रख दीं ।
सारे पुलों पर फाटक लगा दिये
और सुगंधियों पर कसकर डाटें रख दीं।
अब वह डरता था
पुरुषवेशधारी स्त्रीखोर हिंस्रजीवों से ।

वह तबसे लगातार नियम बनाता है स्त्री को सीमित करने के लिये ।
लगातार प्रतिशोध लेता है हिस्रपुरुष वेशधारी दरिन्दों से
और चीखकर रोता है अपने ही हाथों स्त्री को वधकरके यातना से मुक्ति के लिये मार देता और रोज मरता ।
क्योंकि
वह स्त्री विहीन विश्व रचने लगा है ।
इसलिये वह खुद पुरुष से पशु में बदलने लगा है ।
ये आज भी सच है कि स्त्री ही उसकी मंज़िल है।
©Written by Sudha Raje

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